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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 50 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 50/ मन्त्र 3
    ऋषिः - स्वस्त्यात्रेयः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - स्वराडुष्णिक् स्वरः - ऋषभः

    अतो॑ न॒ आ नॄनति॑थी॒नतः॒ पत्नी॑र्दशस्यत। आ॒रे विश्वं॑ पथे॒ष्ठां द्वि॒षो यु॑योतु॒ यूयु॑विः ॥३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अतः॑ । नः॒ । आ । नॄन् । अति॑थीन् । अतः॑ । पत्नीः॑ । द॒श॒स्य॒त॒ । आ॒रे । विश्व॑म् । प॒थे॒ऽस्थाम् । द्वि॒षः । यु॒यो॒तु॒ यूयु॑विः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अतो न आ नॄनतिथीनतः पत्नीर्दशस्यत। आरे विश्वं पथेष्ठां द्विषो युयोतु यूयुविः ॥३॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अतः। नः। आ। नॄन्। अतिथीन्। अतः। पत्नीः। दशस्यत। आरे। विश्वम्। पथेऽस्थाम्। द्विषः। युयोतु। यूयुविः ॥३॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 50; मन्त्र » 3
    अष्टक » 4; अध्याय » 3; वर्ग » 4; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    मनुष्यैः किं सत्कर्त्तव्यं किं प्राप्तव्यमित्याह ॥

    अन्वयः

    हे मनुष्या ! अतो नो नॄनतिथीनतोऽनन्तरं पत्नीरा दशस्यत। विश्वं पथेष्ठां जनमारे दशस्यत यूयुविर्द्विष आरे युयोतु ॥३॥

    पदार्थः

    (अतः) कारणात् (नः) अस्मान् (आ) समन्तात् (नॄन्) अधर्माद्वियोज्य धर्म्मपथं गमयितॄन् (अतिथीन्) अनियततिथीन् (अतः) (पत्नीः) (दशस्यत) बलयत (आरे) (विश्वम्) सर्वञ्जनम् (पथेष्ठाम्) यो धर्मे पथि तिष्ठति तम् (द्विषः) द्वेष्ट्रीन् (युयोतु) वियोजयतु (यूयुविः) विभागकर्त्ता ॥३॥

    भावार्थः

    मनुष्यैर्धार्म्मिकानतिथीन्त्संसेव्य सङ्गत्य विवेकम्प्राप्य द्वेषादिदोषा आरे प्रक्षेपणीयाः ॥३॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    मनुष्यों को किस का सत्कार करना और क्या प्राप्त करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! (अतः) इस कारण से (नः) हम लोगों और (नॄन्) अधर्म्म से अलग कर धर्म्म के मार्ग को चलानेवाले (अतिथीन्) जिनके आगमन की तिथि नियत नहीं उनको (अतः) इसके अनन्तर (पत्नीः) स्त्रियों को (आ) सब प्रकार से (दशस्यत) प्रबल करिये और (विश्वम्) सम्पूर्ण जन को तथा (पथेष्ठाम्) जो धर्म्मयुक्त पथ में स्थित हो उसको (आरे) समीप में प्रबल करिये और (यूयुविः) विभाग करनेवाला (द्विषः) द्वेष्टा जनों को दूर में (युयोतु) विशेष करके विभक्त करें ॥३॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को चाहिये कि धार्मिक अतिथियों की उत्तम प्रकार सेवा कर मिल के विवेक को प्राप्त होकर द्वेष आदि दोषों को दूर करें ॥३॥

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    विषय

    सैन्यों, स्त्रियों और शिष्टों का आदर करने का उपदेश ।

    भावार्थ

    भा०—हे विद्वान् पुरुषो ! ( अतः ) इस कारण से वा इस राष्ट्र में हे राजन् ! (नः) हमारे (नृन् ) नेता पुरुषों को, हमारे ( अतिथीन् ) मान्य परिव्राजक, अतिथियों को, और ( नः पत्नीः ) हमारी स्त्रियों और सेनाओं को, ( दशस्यत ) उत्तम रीति से आदर सत्कार करो, और (आरे) अपने समीप स्थित (पथेष्ठां ) सन्मार्ग में स्थित (विश्वं) सबका आदर सत्कार करो। और ( यूयुविः ) सब शत्रुओं को दूर करने हारा और सत्यासत्य का विवेकी पुरुष (द्विषः ) शत्रुओं को (युयोतु ) दूर करे।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    स्वस्त्यात्रेय ऋषिः ॥ विश्वेदेवा देवताः ॥ छन्दः-१ स्वराडुष्णिक् । २ निचृदुष्णिक् । ३ भुरिगुष्णिक् । ४, ५ निचृदनुष्टुप् ॥ पञ्चर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    नृन् अथिथीन् पत्नी:

    पदार्थ

    [१] (अतः) = इस जीवन के निर्माण के हेतु से (न:) = हमारे लिये (नॄन्) = आगे ले चलनेवाले 'माता, पिता व आचार्यों' को (दशस्यत) = दो । (अतिथीन्) = उत्तम अतिथियों को प्राप्त कराओ । (अतः) इस जीवन के निर्माण के हेतु से (पत्नी:) = उत्तम पत्नियों को प्राप्त कराओ। माता, पिता, आचार्य व अतिथि तो हमारे जीवन निर्माण में हिस्सा लेते ही हैं, सब से महत्त्वपूर्ण भाग पत्नियों का होता है । [३] (यूयुविः) = वह सब बुराइयों से हमें पृथक् करनेवाला प्रभु (विश्वम्) = सब (पथेष्ठाम्) = मार्ग में प्रतिबन्धक रूप से स्थित (द्विषः) = द्वेष की भावनाओं को (आरे) = दूर (युयोतु) = पृथक् करे । द्वेष से ऊपर उठकर ही अध्यात्म उन्नति होना सम्भव होता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ- हमें उत्तम माता, पिता, आचार्य व अतिथियों का सम्पर्क मिले। पत्नी उत्तम हो । प्रभु हमारे से द्वेष को दूर करें ।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    माणसांनी धार्मिक अतिथींची उत्तम प्रकारे सेवा करून त्यांच्या सहवासात राहून विवेकाने द्वेष इत्यादी दोष दूर करावेत. ॥ ३ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    From here, from this elective and promotive yajna of total cooperation, serve and strengthen and thereby promote us all, leaders, chance visitors, immigrants and others, raise and promote the women, mothers of the nation, and, maker and breaker as you are, throw off all the hate, enmity and negativities obstructing the paths of progress.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What should men honour and what should be achieved is told?

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men! show respect to our venerable guest who keep people away from unrighteousness and lead them to the path of righteousness. They give strength to or show honour to your wives. Respect all those men who follow the path of righteousness. Let the discriminator drive all adversaries who hate us at a distance. Let all malice and other evils be kept away.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Men should serve and associate with righteous guests and develop discrimination or discretion. They should throw away all evils like malice.

    Translator's Notes

    दशस्यत has been interpreted by Dayananda Sarasvati here as बलयत though he has not pointed out the root-meaning. Sayanacharya has interpreted it as सर्वतः परिचरत or प्रवच्छत i.e. serve from all sides or give. In Dhatupath, we find Kashakritsna's दश दर्शने ( 9, 124), so it may be taken to mean आदहं दर्शयत show respect to. To show respect is to strengthen and encourage others. Or अनेकार्थां धातव: Root verbs have got many meanings. पत्नीदेशस्यत should mean show respect to your wives. But Prof. Wilson has translated it as 'Worship' the wives (of the deities) which is not correct. Griffith also has committed the same mistake by rendering it into English as 'Honour our guests, the Hero Gods and then the Davies. He adds the foot-note-The Davies- the consorts of the Gods. This interpretation is not correct as it is based not upon the test पत्नीदर्शस्यत्र but upon the imagination of the translators. It is also wrong on their part to take gods' (Wilson) or Gods '(Griffith) from the simple word used in the text is अतिथिन् which means the guests.

    Foot Notes

    (दशस्यत) बलयत । = Strengthen by showing then due respect. (यूयुविः) विभागकर्त्ता । = Discriminator.

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