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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 75 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 75/ मन्त्र 7
    ऋषिः - अमहीयुः देवता - अश्विनौ छन्दः - स्वराट्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    अश्वि॑ना॒वेह ग॑च्छतं॒ नास॑त्या॒ मा वि वे॑नतम्। ति॒रश्चि॑दर्य॒या परि॑ व॒र्तिर्या॑तमदाभ्या॒ माध्वी॒ मम॑ श्रुतं॒ हव॑म् ॥७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अश्वि॑नौ । आ । इ॒ह । ग॒च्छ॒त॒म् । नास॑त्या । मा । वि । वे॒न॒त॒म् । ति॒रः । चि॒त् । अ॒र्य॒ऽया । परि॑ । व॒र्तिः । या॒त॒म् । अ॒दा॒भ्या॒ । माध्वी॒ इति॑ । मम॑ । श्रुत॑म् । हव॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अश्विनावेह गच्छतं नासत्या मा वि वेनतम्। तिरश्चिदर्यया परि वर्तिर्यातमदाभ्या माध्वी मम श्रुतं हवम् ॥७॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अश्विनौ। आ। इह। गच्छतम्। नासत्या। मा। वि। वेनतम्। तिरः। चित्। अर्यऽया। परि। वर्तिः। यातम्। अदाभ्या। माध्वी इति। मम। श्रुतम्। हवम् ॥७॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 75; मन्त्र » 7
    अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 16; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्मनुष्यैः कथं वर्त्तितव्यमित्याह ॥

    अन्वयः

    हे नासत्याऽदाभ्या माध्वी अश्विनौ ! युवामिहाऽऽगच्छतमर्य्यया वेनतं तिरश्चिन्मां कुर्य्यातं वर्त्तिः परि यातं मम हवं विश्रुतम् ॥७॥

    पदार्थः

    (अश्विनौ) व्याप्तविद्यौ (आ) (इह) अस्मिन् संसारे (गच्छतम्) (नासत्या) अविद्यमानासत्यव्यवहारौ (मा) (वि) (वेनतम्) कामयतम् (तिरः) तिरस्कारम् (चित्) अपि (अर्य्यया) अर्य्यस्य स्त्रिया (परि) (वर्त्तिः) मार्गम् (यातम्) (अदाभ्या) अहिंसनीयौ (माध्वी) (मम) (श्रुतम्) (हवम्) ॥७॥

    भावार्थः

    हे स्त्रीपुरुषौ ! युवां गृहस्थमार्गे वर्त्तित्वा धर्म्येण सन्तानानैश्वर्य्यं चेच्छतम्। अध्यापनपरीक्षे च सदैव कुर्य्यातम् ॥७॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर मनुष्यों को कैसे वर्त्ताव करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (नासत्या) नहीं विद्यमान असत्य व्यवहार जिनके ऐसे (अदाभ्या) नहीं हिंसा करने योग्य (माध्वी) मधुर स्वभाववाले (अश्विनौ) विद्या में व्याप्त ! आप दोनों (इह) इस संसार में (आ, गच्छतम्) आइये तथा (अर्य्यया) वैश्य या स्वामी की स्त्री से (वेनतम्) कामना करो (तिरः) तिरस्कार को (चित्) भी (मा) मत करो (वर्त्तिः) मार्ग को (परि, यातम्) सब ओर से प्राप्त होओ और (मम) मेरे (हवम्) आह्वान को (वि) विशेष करके (श्रुतम्) सुनो ॥७॥

    भावार्थ

    हे स्त्रीपुरुषो ! आप दोनों गृहस्थ मार्ग में वर्त्ताव करके धर्म्म से सन्तान और ऐश्वर्य की इच्छा करो तथा अध्यापन और परीक्षा सदा ही करो ॥७॥

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    विषय

    दो अश्वी । विद्वान् जितेन्द्रिय स्त्री पुरुषों के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    भा०- ( अश्विनौ ) हे जितेन्द्रिय स्त्री पुरुषो ! आप दोनों ( इह ) इस लोक में ( आ गच्छतम् ) आदर पूर्वक आइये । हे ( नासत्या ) परस्पर कभी असत्याचरण न करने वाले ! आप दोनों ( मा वि वेनतम् ) कभी विरुद्ध कामना न करो। आप दोनों ( अर्यमा ) स्वामी होकर ( तिरः चित् वर्त्तिः ) प्राप्त आजीविका के कार्य मार्ग को वा गृह को ( अदाभ्या ) अहिंसित अपीड़ित होकर ( परि यातम् ) जाओ । ( मम हवम् ) मेरे उपदेश को ( माध्वी श्रुतम् ) मधुवत् ज्ञान के संग्रही होकर श्रवण करो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अवस्युरात्रेय ऋषि: ।। अश्विनौ देवते ॥ छन्द: – १, ३ पंक्ति: । २, ४, ६, ७, ८ निचृत्पंक्तिः । ५ स्वराट् पंक्तिः । ९ विराट् पंक्तिः ।। नवर्चं सुक्तम् ।।

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    विषय

    नासत्या - अदाभ्या

    पदार्थ

    [१] (अश्विनौ) = हे प्राणापानो ! (इह) = इस हमारे जीवनयज्ञ में (आगच्छतम्) = आप आवो। हम सदा आपकी आराधना करें। हे (नासत्या) = सब असत्यों को दूर करनेवाले प्राणापानो! आप (मा विवेनतम्) = हमारे प्रति अपगत कामनावाले मत होवो। हम कभी भी प्राणसाधना से विमुख न हों। [२] (अर्यया) = [अर्यौ सा० ] हमारे जीवन यज्ञ के स्वामी होते हुए आप (तिरः चित्) = दूर देश से भी (वर्तिः परियातम्) = हमारे शरीर-गृह को प्राप्त होवो । हम अन्य सब कार्यों को छोड़कर प्राणसाधना को अवश्य करें ही। (अदाभ्या) = आप हिंसित होनेवाले नहीं। आपकी साधना के होने पर शरीर रोगों से व मन वासनाओं से आक्रान्त व हिंसित नहीं हो पाता इस प्रकार हमारे जीवन को (माध्वी) = मधुर बनानेवाले आप (मम हवं श्रुतम्) = मेरी पुकार को सुनो। अर्थात् मैं सदा आपकी आराधना करनेवाला बनूँ।

    भावार्थ

    भावार्थ– प्राणसाधना को हम अवश्य करें ही। पर हमारे जीवन को 'असत्य से शून्य, रोगों व वासनाओं से अहिंसित तथा मधुर' बनायेगी।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे स्त्री-पुरुषांनो! तुम्ही गृहस्थधर्माचे पालन करून धर्माने संतानाची व ऐश्वर्याची इच्छा बाळगा. अध्यापन करा व सदैव परीक्षा करत राहा. ॥ ७ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Ashvins, come hither, noble masters, indomitable leaders ever dedicated to truth. Even if you are far away, pray do not be indifferent, slacken not the reins, cross over the winding paths and come. O creators and givers of honey sweets, listen to my prayer.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How should men behave is told further.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men ! you are devoid of false conduct, inviolable and are endowed with sweet temper. O teachers and preachers! come hither to us. with your wives who have (exercise. Ed.) control over themselves and desire to have happiness and progress. Never insult any good person. Go your way but listen to my request.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O men and women! discharge your domestic duties and righteously (right way. Ed.) desire to have wealth and progeny. Always teach and examine students.

    Foot Notes

    (वेनतम् ) कामयतम् । वी-गतिव्याप्तिप्रजनकान्त्यसन-खादनेषु ( अदा० ) | अत्र कान्त्यर्थंग्रहणम् । कान्तिः-कामना | = Desire. (तिरः) तिरस्कारम् । = Insult. (अदाभ्या) अहिंसनीयो । दम्नोति वधकर्मा (NG 2 19)। = Inviolable. (अर्य्यया) अर्य्यस्य स्त्रिया । अर्य इति ईश्वरनाम (NG 2, 22 ) अत्र इन्द्रियस्वामी-जितेन्द्रिय:। = The wife of a master of senses (who can exercise control over. Ed.)

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