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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 85 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 85/ मन्त्र 8
    ऋषिः - अत्रिः देवता - वरुणः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    कि॒त॒वासो॒ यद्रि॑रि॒पुर्न दी॒वि यद्वा॑ घा स॒त्यमु॒त यन्न वि॒द्म। सर्वा॒ ता वि ष्य॑ शिथि॒रेव॑ दे॒वाधा॑ ते स्याम वरुण प्रि॒यासः॑ ॥८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    कि॒त॒वासः॑ । यत् । रि॒रि॒पुः । न । दी॒वि । यत् । वा॒ । घ॒ । स॒त्यम् । उ॒त । यत् । न । वि॒द्म । सर्वा॑ । ता । वि । स्य॒ । शि॒थि॒राऽइ॑व । दे॒व॒ । अध॑ । ते॒ । स्या॒म॒ । व॒रु॒ण॒ । प्रि॒यासः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    कितवासो यद्रिरिपुर्न दीवि यद्वा घा सत्यमुत यन्न विद्म। सर्वा ता वि ष्य शिथिरेव देवाधा ते स्याम वरुण प्रियासः ॥८॥

    स्वर रहित पद पाठ

    कितवासः। यत्। रिरिपुः। न। दीवि। यत्। वा। घ। सत्यम्। उत। यत्। न। विद्म। सर्वा। ता। वि। स्य। शिथिराऽइव। देव। अध। ते। स्याम। वरुण। प्रियासः ॥८॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 85; मन्त्र » 8
    अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 31; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    के मनुष्याः सत्कर्त्तव्यास्तिरस्करणीयाश्चेत्याह ॥

    अन्वयः

    हे वरुण देव ! यद्ये कितवासो दीवि न रिरिपुर्यद्वा सत्यमुत न विद्म यद् घा न विद्म ता सर्वा शिथिरेव त्वं विष्य यतोऽधा वयं ते प्रियासः स्याम ॥८॥

    पदार्थः

    (कितवासः) द्यूतकाराः (यत्) ये (रिरिपुः) आरोपयन्ति (न) निषेधे (दीवि) द्यूतकर्म्मणि (यत्) (वा) (घा) एव। अत्र ऋचि तुनुघेति दीर्घः। (सत्यम्) सत्सु साधुम् (उत) (यत्) (न) (विद्म) (सर्वा) सर्वाणि (ता) तानि (वि) (स्य) अन्तं कुरु (शिथिरेव) यथा शिथिलाः (देव) विद्वन् (अधा) अत्र निपातस्य चेति दीर्घः। (ते) तव (स्याम) (वरुण) (प्रियासः) प्रसन्नाः ॥८॥

    भावार्थः

    हे मनुष्या ! ये छलिनो मनुष्या द्यूतादिकर्म्म कुर्य्युस्ते ताडनीया ये च सत्यमाचरणं कुर्य्युस्ते सत्कर्त्तव्या इति ॥८॥ अत्र राजेश्वरमेघविद्वद्गुणकर्मवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इति पञ्चाशीतितमं सूक्तमेकत्रिंशो वर्गश्च समाप्तः ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    कौन से मनुष्य सत्कार और कौन तिरस्कार करने योग्य हैं, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (वरुण) श्रेष्ठ (देव) विद्वन् ! (यत्) जो (कितवासः) जुआ करनेवाले (दीवि) जुआरूप कर्म्म में (न) नहीं (रिरिपुः) आरोपित करते हैं (वा) अथवा (यत्) जिस (सत्यम्) श्रेष्ठों में श्रेष्ठ को (उत) तर्क वितर्क से (न)(विद्म) जानें और (यत्) जिसे (घा) ही नहीं जानें (ता) उन (सर्वा) सम्पूर्णों को (शिथिरेव) जैसे शिथिल वैसे आप (वि, स्य) अन्त करिये जिससे (अधा) इसके अनन्तर हम लोग (ते) आपके (प्रियासः) प्रसन्न प्यारे (स्याम) होवें ॥८॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यो ! जो छली मनुष्य जुआ आदि कर्म्म करें, वे ताड़ना करने योग्य और जो सत्य आचरण करें, वे सत्कार करने योग्य हैं ॥८॥ इस सूक्त में राजा, ईश्वर, मेघ और विद्वान् के गुण कर्म वर्णन करने से इस सूक्त के अर्थ की इस से पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह पच्चासीवाँ सूक्त और एकतीसवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥

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    विषय

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    भावार्थ

    भा०- ( दीविन कितवासः ) द्यूत कार्य में जूआ खोर लोग जिस प्रकार योंही निराधार छल कपट से एक दूसरे पर दोष आरोप करते हैं उसी प्रकार जो ( कितवासः ) तेरा क्या है ? इस प्रकार डरा धमका कर अन्यों का माल झपट लेने वाले छली लोग भी ( यत् रिरिपुः ) जो हम पर चोरी आदि का मिथ्या दोषारोप करें ( यद् वा घ सत्यम् ) और जो सचमुच हमारा कसूर हो, (उत) और (यत् न विद्म) जिस अपराध को हम नहीं जानते और कर बैठते हैं ( ता सर्वा ) उन सब अपराधों को हे (देव) दण्ड देने हारे ! हे ( वरुण ) दुष्टवारक ! तू ( शिथिरा इव ) ढीला सा (वि ष्य ) करके हमसे छुड़ा दे । राष्ट्र के पाप की प्रवृत्तियों को सदा दबाते रहने से वे ढीली पड़कर प्रजा में से आप से आप, डाल से फल के समान या बंधी रस्सी के समान छूट जाय ( अध ) और ( ते ) तेरे हम ( प्रियासः स्याम ) प्रिय हों । इत्येकत्रिंशो वर्गः ॥

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अत्रिर्ऋषिः ॥ वरुणो देवता ॥ छन्दः - १, २ विराट् त्रिष्टुप् । ३, ४, ६,८ , निचृत्त्रिष्टुप् । ५ स्वराट् पंक्ति: । ७ ब्राह्मयुष्णिक् ।। अष्टर्चं सूक्तम् ।।

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    Bhajan

    आज का वैदिक भजन 🙏 1088
    ओ३म् कि॒त॒वासो॒ यद्रि॑रि॒पुर्न दी॒वि यद्वा॑ घा स॒त्यमु॒त यन्न वि॒द्म ।
    सर्वा॒ ता वि ष्य॑ शिथि॒रेव॑ दे॒वाधा॑ ते स्याम वरुण प्रि॒यास॑: ॥
    ऋग्वेद 5/85/8

    काबिल बनूँ काबिल, 
    खुशी से मैं रहूँ खिल के, 
    करूँ सत्य को धारण,
    ऐसी शक्ति दे, 
    रहे ना तुझसे दूरी, 
    ऐसी प्रीत भर दे, 
    तेरा प्रेम करूँ मैं हासिल, 
    खुशी से रहूँ मैं खिलके,
    काबिल बनूँ काबिल 

    पाप की लगे ना घुन, 
    हो ना काठ सा जीवन, 
    होवे शुद्ध ही आचरण, 
    शुद्ध तन मन व धन, 
    अनमन ना हो मन, ना वृजिन, 
    विषय वासना में होगे ना आसीन, 
    संतुलित मन हो अशिथिल 
    हर पल 
    साफ दिल
    काबिल बनूँ काबिल 

    आचरण ऐसा होवे शुद्ध, 
    जैसे यह शुद्ध चाँदनी, 
    पाप या पापाभासों की,
    ना होवे खलबली, 
    माँग प्रभु से बल प्रार्थी बन, 
    थाम ले तू उसका आँचल,
    बन प्रभु का प्यारा काबिल,
    अदोखिल,
    साफ दिल, 
    काबिल बनूँ काबिल, 
    खुशी से मैं रहूँ खिल के, 
    करूँ सत्य को धारण,
    ऐसी शक्ति दे, 
    रहे ना तुझसे दूरी, 
    ऐसी प्रीत भर दे, 
    तेरा प्रेम करूँ मैं हासिल, 
    खुशी से रहूँ मैं खिलके,
    काबिल बनूँ काबिल 
     
    रचनाकार व स्वर :- पूज्य श्री ललित मोहन साहनी जी – मुम्बई
    रचना दिनाँक :-  २७.६.२०१३   १०.२८ pm
    राग :- पीलू
    गायन समय दिन का तीसरा प्रहर, ताल कहरवा  ८ मात्रा
                         
    शीर्षक :- हम निष्पाप होकर तेरे प्यारे बन जाएं 664 वां  वैदिक भजन
    *तर्ज :- *
    705-0106

    आसीन = लगा हुआ 
    अदोखिल = निष्कलंक 
    पापाभास = पाप न करने पर भी दोष लगाने का आभास 
    काबिल = योग्य, विद्वान 
    खलबली =  घबराहट 
    घुन = काट में लगने वाला कीड़ा 
    अनमन = उदास , खिन्न ऐ
    वृजिन = टेढ़ा 
    अशिथिल = मजबूत, दृढ़
     

    Vyakhya

    प्रस्तुत भजन से सम्बन्धित पूज्य श्री ललित साहनी जी का सन्देश :-- 👇👇

    हम निष्पाप होकर तेरे प्यारे बन जाएं

    अनेक बार हमारे आचरण ऐसे होते हैं कि उन्हें पाप तो नहीं कह सकते पर उनमें कोई ऐसी असावधानी होती है कि जिसे लेकर जनता में हमारे सम्बन्ध में भ्रम फैलाया जा सकता है। धूर्त,छलिया,ईर्ष्यालू लोग हमारी इस  असावधानी का दुरुपयोग उठाकर जनता में घोषित कर देते हैं, कि हम अमुक प्रकार का पाप आचरण करते हैं,यद्यपि यह पाप का आरोप हमारे ऊपर धूर्त लोगों ने यूं ही थोप दिया होता है, जो हमारे व्यवहार में वास्तव में नहीं होता, तो भी इसका परिणाम यह होता है कि जनता में हमारे विषय में संदेह फैल जाता है । और जनता में अपने विषय में सदैव फैल जाने का फल यह होता है कि हम उन लोगों में जो अनेक अच्छे लोग हित के कार्य करना चाहते थे, उन्हें करने में असमर्थ हो जाते हैं या उनके करने में बाधा पहुंचती है। अपने इस प्रकार के आचरणों को जिनसे हमारे पापी होने का संदेह हो सकता है हम 
    पापाभास कहते हैं ।यानी पाप का आभास। 
    यह वस्तुतः पाप तो नहीं होते पर पाप जैसे दिखते हैं, इनका आभास पाप जैसा होता है ,इसके लिए पापाभास है। हमें जहां पापों से दूर रहना चाहिए वहां पापाभासों से भी दूर रहना चाहिए, क्योंकि पापों की भान्ति पापाभास भी हमें बदनाम करके लोग-संग्रह के अयोग्य बना देते हैं। और लोक-संग्रह के बिना हम कोई भी अच्छा कार्य नहीं कर सकते ।इसलिए हमें अपना आचरण इतना स्वच्छ रखना चाहिए कि कोई भूल से भी उसमें पाप की धारणा कर सके। 
    और अनेक बार तो हमारे आचरण ऐसे भी होते हैं कि जो सचमुच ही पाप भरे होते हैं।  हमें सचमुच के पापा चरणों से तो बचना ही चाहिए उनसे बच्चे बिना तो हमारा गुजारा ही नहीं है ।
    जब हम पापाचरण करते हैं, तो कई बार ऐसा होता है कि हमें उसका ज्ञान होता है, हम जान रहे होते हैं कि अमुक बात हमें इस प्रकार नहीं करनी चाहिए थी, हम अपने स्वार्थ में पड़कर ही उसे इस तरह कर रहे हैं।इस अवस्था में हमारा आत्मा हमारे पाप की गवाही दे रहा होता है। परन्तु कई बार ऐसा भी होता है कि हमें स्वयं अपने आचरण के पाप में होने का ज्ञान नहीं होता। यदि हमें इसका ज्ञान होता तो हम संभवतः आचरण ना करते। हमारे इस प्रकार के अज्ञान के अधीन किए हुए पाप भी हैं पाप ही।
     प्रभु ने जड़ और चेतन जगत के जो अनेक नियम बनाए हैं उनके भंग का नाम ही पाप है। इन नियमों का भंग चाहे ज्ञान के द्वारा किया जाए चाहे बिना जाने उसके करने से हम अपने आचरण को पाप में तो बना ही लेते हैं क्योंकि हमारे इस आचरण से व्यवस्था का भंग होता है। और हमारे सभी प्रति लोगों को कष्ट पहुंचता है। अपने अज्ञान जन्य पापों से बचने का उपाय यही है कि हम सारी वस्तुस्थिति का सही ज्ञान प्राप्त करें। इसलिए शास्त्रों में ज्ञान प्राप्ति को धर्म का एक आवश्यक अंग माना है।
    अपने आप को पूर्ण पवित्र बनाने के लिए हमें पापाभासों और पापों दोनों से ही बचना चाहिए और फिर यह पापाभास और पाप चाहे ज्ञान पूर्वक हो चाहे अज्ञान पूर्वक हैं दोनों अवस्थाओं में पाप तो पाप ही है। इसलिए हमें ज्ञान जन्य और अज्ञान जन्य दोनों प्रकार के पापों से पृथक रहना चाहिए। और पाप से दूर रहने के अपने इस प्रयत्न में हमें प्रभु से सहायता की याचना करनी चाहिए। 
    जब हम पाप से लड़ाई में अपना पूरा पूरा बल लगा देते हैं , अनन्तर प्रभु से इस युद्ध के विजय में पाने के लिए सहायता की मांग भी करते हैं तो वह हमारी मांग को सुनते हैं , और हमें पाप को जीतने की शक्ति प्रदान करते हैं। जब हमारी शक्ति में भगवान की शक्ति मिल जाती है तो पाप से इस प्रकार छूटकर गिर पड़ते हैं जैसे पके हुए फल ढीले होकर वृक्ष से गिर पड़ते हैं। तब हमारे साथ पापों का      पापाचरणों का संपर्क नहीं रहता हम पूर्ण पवित्र बन जाते हैं ।
    पूर्ण पवित्र बन जाने का पापों से सर्वथा दूर हो जाने का फल यह होता है कि हम उस वरुण प्रभु के प्यारे बन जाते हैं ।हमारे इस जीवन में उनकी हम पर अनेक कृपायें बरसने लगती हैं और मृत्यु के अनन्तर वह हमें मोक्ष सुख का अधिकारी बना देते हैं। जो भगवान का प्यारा बनना चाहता है उसे पापाचरण छोड़कर पवित्र बनना चाहिए पाप में लिप्त रहते हुए हम भगवान की स्तुति कर लेने मात्र से उसके प्यारे नहीं बन सकते। जो जितना पाप से दूर होगा वह उतना ही अधिक भगवान का प्यारा होगा।

    हे प्रभु मेरे पापों को शिथिल कर के परे गिराने में मेरी सहायता करो और मुझे निष्पाप बनाकर अपना प्यारा बना लो।

     

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    विषय

    निष्पापता व वरुण-प्रियता

    पदार्थ

    [१] (कितवासः) = जुवारी व्यक्ति (न) = जैसे (दीवि) = देवन [जुए] कर्म में (यत् रिरिपुः) = जिस पाप का हमारे पर यों ही लेप कर देते हैं । अर्थात् जिस पाप को हमने किया तो नहीं, पर दूसरे द्वेषवश यों ही हमारे पर उसे थोप देते हैं। (वा) = अथवा (यत् घा सत्यम्) = जो निश्चय से सचमुच पाप हमारे से हो गया है। (यत् न विद्म) = जिस पाप को हम जानते नहीं, अर्थात् जो अनजाने में हो जाता है । हे (देव) = सब बुराइयों को कुचलने की कामनावाले प्रभो! आप (सर्वा ता) = उन सब पापों को (शिथिरा इव) = अत्यन्त शिथिल हुओं-हुओं की तरह (विष्य) = हमारे से पृथक् कर दीजिये। [२] हे वरुण-हमारे जीवनों को व्रतों के बन्धन में बाँधनेवाले प्रभो ! [पाशी] (अधा) = अब पापविमोचन के होने पर (ते) = आपके (प्रियासः स्याम) = हम प्रिय हों। निष्पाप जीवनवाले बनकर हम आपके प्रिय बनें ।

    भावार्थ

    भावार्थ-निष्पापता हमें प्रभु का प्रिय बनाये । निष्पाप बनकर हम इन्द्राग्नी के, बल व प्रकाश के आराधक बनते हैं। सो अत्रि- त्रिविध पापों से काम-क्रोध-लोभ जन्य पापों से ऊपर उठा हुआ व्यक्ति इन इन्द्राग्नी की आराधना करता हुआ कहता है -

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे माणसांनो! छळ कपट करणाऱ्या माणसांनी द्युत वगैरे कर्म केल्यास ती ताडना करण्यायोग्य असतात व जी सत्याचरण करतात ती सत्कार करण्यायोग्य असतात. ॥ ८ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Like gamblers in the game, if someone attribute sin or deception to us, which may be true or may not be true, or which we might not even know, all that, O lord of light and judgement, loosen so that we may be free and be dear to you.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    Who should be respected and who should be condemned is told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O highly learned noble person ! if any gamesters (gamblers. Ed.) are engaged in gambling or playing dice, let they be punished. If we do not know what is good for the righteous persons or do not know the truth, please put an end to it, i.e. to this our ignorance or sloth like a loose thing. Let us be your beloved and enlightened person.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O men! those who are deceitful men engaged In gambling and other evil acts, should be punished and those whose conduct is in accordance with truth should be honored.

    Foot Notes

    (कितवास) द्यूतकरा:। = Gamblers. (स्य) अन्तं कुरु । षो-अन्तकर्मणि ( दिवा०) | = Put an end to finish off.

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