ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 11/ मन्त्र 2
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - अग्निः
छन्दः - निचृत्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
त्वं होता॑ म॒न्द्रत॑मो नो अ॒ध्रुग॒न्तर्दे॒वो वि॒दथा॒ मर्त्ये॑षु। पा॒व॒कया॑ जु॒ह्वा॒३॒॑ वह्नि॑रा॒साग्ने॒ यज॑स्व त॒न्वं१॒॑ तव॒ स्वाम् ॥२॥
स्वर सहित पद पाठत्वम् । होता॑ । म॒न्द्रऽत॑मः । नः॒ । अ॒ध्रुक् । अ॒न्तः । दे॒वः । वि॒दथा॑ । मर्ते॑षु । पा॒व॒कया॑ । जु॒ह्वा॑ । वह्निः॑ । आ॒सा । अग्ने॑ । यज॑स्व । त॒न्व॑म् । तव॑ । स्वाम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वं होता मन्द्रतमो नो अध्रुगन्तर्देवो विदथा मर्त्येषु। पावकया जुह्वा३ वह्निरासाग्ने यजस्व तन्वं१ तव स्वाम् ॥२॥
स्वर रहित पद पाठत्वम्। होता। मन्द्रऽतमः। नः। अध्रुक्। अन्तः। देवः। विदथा। मर्तेषु। पावकया। जुह्वा। वह्निः। आसा। अग्ने। यजस्व। तन्वम्। तव। स्वाम् ॥२॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 11; मन्त्र » 2
अष्टक » 4; अध्याय » 5; वर्ग » 13; मन्त्र » 2
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अष्टक » 4; अध्याय » 5; वर्ग » 13; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वयः
हे अग्ने विद्वन् ! यथा मन्द्रतमो होता विदथाऽन्तर्देवो वह्निरासेव पावकया जुह्वा नस्तव स्वां तन्वं सङ्गमयति तथा त्वं मर्त्येष्वध्रुक्सन्नस्मानस्माकं शरीराणि च यजस्व ॥२॥
पदार्थः
(त्वम्) (होता) दाता (मन्द्रतमः) अतिशयेनानन्दयिता (नः) अस्मान् (अध्रुक्) यः कञ्चिन्न द्रोग्धि (अन्तः) मध्ये (देवः) देदीप्यमानः (विदथा) विदथे यज्ञे (मर्त्येषु) मनुष्येषु (पावकया) पवित्रकारिकया ज्वालया (जुह्वा) जुहोति गृह्णाति ददाति वा यया (वह्निः) वोढा (आसा) मुखेनेव (अग्ने) अग्निरिव परोपकारिन् (यजस्व) सङ्गच्छस्व (तन्वम्) (तव) (स्वाम्) स्वकीयाम् ॥२॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः । यथा विद्युत्सूर्यभौमरूपेणाग्निः सर्वजगदुपकरोति तथैव विद्वांसो जगदानन्दयन्ति ॥२॥
हिन्दी (1)
विषय
फिर उसी विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (अग्ने) अग्नि के समान परोपकार के सहित वर्त्तमान विद्वन् जन ! जैसे (मन्द्रतमः) अतिशय आनन्द करानेवाले (होता) दाताजन (विदथा) यज्ञ के (अन्तः) मध्य में (देवः) प्रकाशमान (वह्निः) धारण करनेवाला अग्नि (आसा) मुख के सदृश (पावकया) पवित्र करनेवाली ज्वाला से (जुह्वा) ग्रहण करता वा देता जिससे उससे (नः) हम लोगों को और (तव) आपके सम्बन्ध में (स्वाम्) अपने (तन्वम्) शरीर को मिलाता है, वैसे (त्वम्) आप (मर्त्येषु) मनुष्यों में (अध्रुक्) किसी से न द्रोह करनेवाले होते हुए हम लोगों वा हम लोगों के शरीरों को (यजस्व) उत्तम प्रकार मिलिये ॥२॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है । जैसे बिजुली, सूर्य्य और भूमि में हुए तेजस्वी पदार्थों के रूप से अग्नि सम्पूर्ण जगत् का उपकार करता है, वैसे ही विद्वान् जन जगत् को आनन्दित करते हैं ॥२॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे विद्युत, सूर्य व भूमीतील तेजस्वी अग्नी संपूर्ण जगावर उपकार करतो तसेच विद्वान लोक जगाला आनंदित करतात. ॥ २ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Agni, you are our leading light of yajna, charming and blissful, free from jealousy among mortals, radiant and generous creator giver in our yajnic endeavours, harbinger of wealth by the purifying flames of fire with havis offered with the holy ladle of ghrta and catalysed to fragrance. O lord of us all, develop your own self of radiant fire and develop the social structure of order.
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