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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 13 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 13/ मन्त्र 2
    ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः देवता - अग्निः छन्दः - स्वराट्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    त्वं भगो॑ न॒ आ हि रत्न॑मि॒षे परि॑ज्मेव क्षयसि द॒स्मव॑र्चाः। अग्ने॑ मि॒त्रो न बृ॑ह॒त ऋ॒तस्याऽसि॑ क्ष॒त्ता वा॒मस्य॑ देव॒ भूरेः॑ ॥२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वम् । भगः॑ । नः॒ । आ । हि । रत्न॑म् । इ॒षे । परि॑ज्माऽइव । क्ष॒य॒सि॒ । द॒स्मऽव॑र्चाः । अग्ने॑ । मि॒त्रः । न । बृ॒ह॒तः । ऋ॒तस्य । असि॑ । क्ष॒त्ता । वा॒मस्य॑ । दे॒व॒ । भूरेः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वं भगो न आ हि रत्नमिषे परिज्मेव क्षयसि दस्मवर्चाः। अग्ने मित्रो न बृहत ऋतस्याऽसि क्षत्ता वामस्य देव भूरेः ॥२॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वम्। भगः। नः। आ। हि। रत्नम्। इषे। परिज्माऽइव। क्षयसि। दस्मऽवर्चाः। अग्ने। मित्रः। न। बृहतः। ऋतस्य। असि। क्षत्ता। वामस्य। देव। भूरेः ॥२॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 13; मन्त्र » 2
    अष्टक » 4; अध्याय » 5; वर्ग » 15; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्विद्वद्भिरत्र कथं वर्त्तितव्यमित्याह ॥

    अन्वयः

    हे देवाग्ने ! यतस्त्वं मित्रो न बृहतो वामस्य भूरेर्ऋतस्य क्षत्ताऽसि तस्माद्दस्मवर्चाः स त्वं परिज्मेव भगः सन् नो हि रत्नमिष आ क्षयसि तस्मान्माननीयोऽसि ॥२॥

    पदार्थः

    (त्वम्) (भगः) भजनीयैश्वर्यः (नः) अस्मान् (आ) (हि) (रत्नम्) धनम् (इषे) प्राप्तुम् (परिज्मेव) परितः सर्वन्तो गन्ता वायुरिव (क्षयसि) निवससि निवासयसि वा (दस्मवर्चाः) दस्ममुपक्षयितं निवासयितं निवासितं वर्चो दीप्तिर्येन सः (अग्ने) पावक इव वर्त्तमान (मित्रः) सखा (न) इव (बृहतः) महतः (ऋतस्य) सत्यस्योदकस्य वा (असि) (क्षत्ता) छेदकः (वामस्य) प्रशस्यस्य (देव) दातर्विद्वन् (भूरेः) बहोः ॥२॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। ये विद्वांसः प्राणवद्धनैश्वर्य्यशोभां दधति ते मित्रवद्वर्त्तित्वा सर्वान्त्सुखयन्तु ॥२॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर विद्वानों को इस संसार में कैसा वर्त्ताव करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (देव) देनेवाले (अग्ने) अग्नि के समान वर्त्तमान विद्वन् ! जिस कारण से (त्वम्) आप (मित्रः) (न) जैसे वैसे (बृहतः) बड़े (वामस्य) श्रेष्ठ (भूरेः) बहुत (ऋतस्य) सत्य वा जल के (क्षत्ता) छेदक (असि) हैं, इस कारण से (दस्मवर्चाः) उपक्षयित अर्थात् निवास कराई वा निवास की कान्ति जिन्होंने तथा (परिज्मेव) जो सब ओर से चलनेवाले वायु के सदृश (भगः) सेवन करने योग्य ऐश्वर्य्य जिनका ऐसे हुए (नः) हम लोगों को (हि) जिस कारण से (रत्नम्) धन को (इषे) प्राप्त होने को (आ) सब ओर से (क्षयसि) निवास करते वा निवास कराते हो, इस कारण आदर करने योग्य हो ॥२॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो विद्वान् जन प्राणों के सदृश धन और ऐश्वर्य्य की शोभा को धारण करते हैं, वे मित्र के सदृश वर्त्ताव करके सब को सुखी करें ॥२॥

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    विषय

    अग्नि से प्रकाश और जाठराग्नि से प्राणों के तुल्य राजा से न्याय की उत्पत्ति ।

    भावार्थ

    जिस प्रकार अग्नि ( रत्नम् इषे ) सुन्दर प्रकाश को दूर तक फेंकता, वा देता है, ( परिज्मा इव दस्मवर्चा: क्षयति ) वायु या प्राण के समान क्षीण तेज होकर वा अन्न को देह में क्षय करता हुआ जाठराग्नि रूप से निवास करता है । ( ऋतस्य मित्रः ) और जल को मित्रवत् स्नेह से चाहता है, (भूरेः क्षत्ता) बहुत से सुख का दाता है उसी प्रकार हे (अग्ने) अग्नि के तुल्य तेजस्विन् ! राजन् ! प्रभो ! (त्वं ) तू ( भगः ) स्वयं ऐश्वर्यवान् सेवने योग्य होकर ( नः ) हमारे लिये ( रत्नम् ) रमणीय ऐश्वर्य को ( आ इषे हि ) सब ओर से देता, चाहता वा प्राप्त करता है । तू ( दस्मवर्चा: ) शत्रुओं के नाशकारी तेज से युक्त होकर ( परिज्मा इव ) सर्वत्रगामी वायुवत् ( परि-ज्मा ) भूमि पर शासक होकर ( क्षयसि ) शत्रु का नाश करता और प्रजा को बसाता है । और तू ( मित्रः न ) मरण या नाश होने से बचाने वाला सूर्यवत् (बृहतः ऋतस्य ) बड़े भारी न्याय, सत्य ज्ञान रूप प्रकाश का ( क्षत्ता असि ) देने वाला हो । और हे विद्वन् ! तेजस्विन् ! दातः ! तू ( भूरेः वामस्य ) बहुत से सुन्दर संभोग्य ऐश्वर्य का भी ( क्षत्ता असि ) देने वाला हो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ।। अग्निर्देवता ॥ छन्दः - १ पंक्तिः । २ स्वराट् पंक्तिः। ३, ४ विराट् त्रिष्टुप्। ५, ६ निचृत्त्रिष्टुप् ॥ षडृचं सूक्तम् ।।

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    विषय

    'दस्मवर्चाः' प्रभु

    पदार्थ

    [१] हे प्रभो ! (त्वं भगः) = आप ऐश्वर्य के पुञ्ज हैं। (नः) = हमारे लिये (हि) = निश्चय से (रत्नम्) = रमणीय धन को (आ इषे) = [आगमय] प्राप्त कराइये । हे (दस्मवर्चा:) = दर्शनीय दीप्तिवाले प्रभो ! (परिज्मा इव) = परितः गन्ता वायु की तरह तू (क्षयसि) = ऐश्वर्यवाला है, वास्तविक जीवन को देनेवाला है। [२] (अग्ने) = हे अग्रेणी प्रभो ! (मित्रः न) = प्रमीति से, मृत्यु से बचानेवाले की तरह तू (बृहतः ऋतस्य) = महान् ऋत का (क्षत्ता असि) = हमारे लिये देनेवाला है, हमारे जीवन को तू ऋतमय बनानेवाला है। हे देव-सब कुछ देनेवाले प्रभो ! (वामस्य) = सुन्दर (भूरेः) = भरण-पोषण के साधनभूत धन के आप देनेवाले हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ– हे प्रभो ! आप हमें रमणीय धनों को प्राप्त कराइये, हमारा जीवन आपकी कृपा से महान् ऋत का धारण करनेवाला हो, हमारे जीवन की सब क्रियाएँ ठीक समय व ठीक स्थान पर हों।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. जे विद्वान प्राणाप्रमाणे धन व ऐश्वर्य बाळगतात त्यांनी मित्राप्रमाणे वागून सर्वांना सुखी करावे. ॥ २ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Agni, leading light of the world, like a magnanimous master, you bestow upon us cherished jewel wealths of the world. Power of extra ordinary deeds of glory, you move and abide everywhere like the circumambient wind, omnipresent. O refulgent and generous friend of the world like the sun, you are the light and path-maker for our pursuit of the highest and widest paths of universal truth and life’s onward flow, and you are the gracious dispenser of the fruits of human action.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How should the enlightened men behave is told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O liberal donor! enlightened persons are purifying like the fire. You are worthy of respect as you as a friend are the discriminator (between the untruth and. Ed.) admirable great truth. Therefore you dwell, like circumambient air with wonderous splendor, and being endowed with admirable wealth, enable us to obtain the charming wealth.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those enlightened persons who (rightly. Ed.) uphold the beauty of wealth and prosperity like the Prana, should deal with all in a friendly manner and should make all happy.

    Foot Notes

    (इषे) प्राप्तुम् । इष-गतौ (दिवा० ) गतेस्त्रिष्यर्थेष्वर्थेष्वत्र प्राप्त्यर्थग्रहणम् । = To obtain (वामस्य) प्रशस्यस्य । वाम इति प्रशस्यनाम (NG 3, 8)। = Of the admirable. (दस्मवर्चा:) दस्ममुपक्षयितं निवासितं वर्चो दीप्तिर्येन सः | वर्च-दीप्तौ (भ्वा.) दसु-उपक्षये (दि०) क्षि-निवासगत्योः । = Full of splendor.

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