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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 13 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 13/ मन्त्र 4
    ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः देवता - अग्निः छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    यस्ते॑ सूनो सहसो गी॒र्भिरु॒क्थैर्य॒ज्ञैर्मर्तो॒ निशि॑तिं वे॒द्यान॑ट्। विश्वं॒ स दे॑व॒ प्रति॒ वार॑मग्ने ध॒त्ते धा॒न्यं१॒॑ पत्य॑ते वस॒व्यैः॑ ॥४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यः । ते॒ । सू॒नो॒ इति॑ । स॒ह॒सः॒ । गीः॒ऽभिः । उ॒क्थैः । य॒ज्ञैः । मर्तः॑ । निऽशि॑तम् । वे॒द्या । आन॑ट् । विश्व॑म् । सः । दे॒व॒ । प्रति॑ । वार॑म् । अ॒ग्ने॒ । ध॒त्ते । धा॒न्यम् । पत्य॑ते । व॒स॒व्यैः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यस्ते सूनो सहसो गीर्भिरुक्थैर्यज्ञैर्मर्तो निशितिं वेद्यानट्। विश्वं स देव प्रति वारमग्ने धत्ते धान्यं१ पत्यते वसव्यैः ॥४॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यः। ते। सूनो इति। सहसः। गीःऽभिः। उक्थैः। यज्ञैः। मर्तः। निऽशितम्। वेद्या। आनट्। विश्वम्। सः। देव। प्रति। वारम्। अग्ने। धत्ते। धान्यम्। पत्यते। वसव्यैः ॥४॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 13; मन्त्र » 4
    अष्टक » 4; अध्याय » 5; वर्ग » 15; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्मनुष्यैः किं कर्त्तव्यमित्याह ॥

    अन्वयः

    हे सहसस्सूनो देवाग्ने ! ते यो मर्त्तो गीर्भिरुक्थैर्वेद्या निशितिमानड् वसव्यैर्यज्ञैर्विश्वं धान्यं वारं प्रति धत्ते पत्यते स त्वया सङ्गन्तव्यः ॥४॥

    पदार्थः

    (यः) (ते) तव (सूनो) (सहसः) बलिष्ठस्य (गीर्भिः) वाग्भिः (उक्थैः) वक्तुमर्हैर्वेदितव्यैर्वेदवचनैः (यज्ञैः) विद्वत्सत्कारादिभिः (मर्त्तः) मनुष्यः (निशितिम्) नितरां तीक्ष्णम् (वेद्या) सुखप्रापिकया (आनट्) व्याप्नोति (विश्वम्) समग्रम् (सः) सुखप्रदाता (देव) (प्रति) (वा) (अरम्) अलम् (अग्ने) अग्निवद्वर्त्तमान विद्वन् (धत्ते) (धान्यम्) (पत्यते) पतिरिवाचरति (वसव्यैः) वसुषु धनेषु भवैः ॥४॥

    भावार्थः

    हे मनुष्याः ! पूर्णेन ब्रह्मचर्य्येण शरीरात्मबलमलं कृत्वा सन्तानोत्पत्तिं कुरुत ॥४॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर मनुष्यों को क्या करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (सहसः) बलिष्ठ के (सूनोः) पुत्र (देव) दीप्तिमान् (अग्ने) अग्नि के समान वर्त्तमान विद्वन् ! (ते) आप का (यः) जो (मर्त्तः) मनुष्य (गीर्भिः) वाणियों और (उक्थैः) कहने और जानने योग्य वेद के वचनों से और (वेद्या) सुख को प्राप्त करानेवाली वेदी से (निशितिम्) निरन्तर तीक्ष्णता के साथ (आनट्) व्याप्त होता है (वसव्यैः) धनों में प्रकट हुए पदार्थों के साथ (यज्ञैः) विद्वानों के सत्कारादिकों से (विश्वम्) समग्र पदार्थ को (धान्यम्) धान्य को (वा) वा (अरम्) पूर्ण (प्रति, धत्ते) धारण करता और (पत्यते) स्वामी के सदृश आचरण करता है (सः) वह आप से मेल करने योग्य है ॥४॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यो ! पूर्ण ब्रह्मचर्य्य से शरीर और आत्मा के बल को पूर्ण करके सन्तानों की उत्पत्ति करो ॥४॥

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    विषय

    उसकी तीक्ष्ण तेजस्विता और स्वामित्व ।

    भावार्थ

    हे (सहसः सूनो ) बलवान् पुरुष के पुत्र ! हे बलशाली सैन्य के सञ्चालक ! ( यः ) जो ( ते ) तेरी ( गीर्भिः ) वाणियों से ( उक्थैः ) उत्तम वचनों से, ( यज्ञैः ) उत्तम सत्संगों और सत्कारों से (वेद्या) वेदिवत् पृथिवी से (निशितिम्) अग्नि के समान तेरी तीक्ष्णता को ( आनट् ) प्राप्त करता वा तुझे कराता है ( वः ) वह हे ( देव ) दातः, तेजस्विन् ! हे ( अग्ने ) अग्रणी ! नायक ! ( सः ) वह ( विश्वं वारम् प्रति धत्ते) समस्त वरण योग्य धन को धारण करता, और (विश्वं वारं प्रतिधत्ते ) सब निवारणीय शत्रु सैन्य का मुकाबला करता और ( वारं प्रतिधत्ते ) शत्रु वारक सैन्य बल को प्रतिक्षण धारण करता है। और वह ( वसव्यैः ) ऐश्वर्यों से ( पत्यते ) बलधारी स्वामी हो जाता है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ।। अग्निर्देवता ॥ छन्दः - १ पंक्तिः । २ स्वराट् पंक्तिः। ३, ४ विराट् त्रिष्टुप्। ५, ६ निचृत्त्रिष्टुप् ॥ षडृचं सूक्तम् ।।

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    विषय

    गीर्भिः उक्थैः यज्ञैः

    पदार्थ

    [१] हे (सहसः सूनो) = बल के पुत्र, बल के पुञ्ज [पुतले] प्रभो ! (यः) = जो (मर्तः) = मनुष्य (गीर्भिः) = ज्ञान की वाणियों से (उक्थैः) = स्तोत्रों से (वेद्या यज्ञैः) = यज्ञभूमि में यज्ञों के द्वारा (ते) = आपकी प्राप्ति की (निशितिम्) = [excitement agitation] प्रबल कामना को, आतुरता को (आनट्) = प्राप्त करता है। हे (देव) = प्रकाशमय, सर्वप्रद प्रभो ! वह (वसव्यैः) = सब वसुओं के साथ (धान्यम्) = जीवन के लिये आवश्यक धान्यों को पत्यते प्राप्त होता है। प्रभु के उपासक को जीवन के लिये आवश्यक धन-धान्य की कमी नहीं रहती।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु की प्राप्ति की प्रबल कामना 'ज्ञानवाणियों में स्तोत्रों' में व यज्ञों में व्यक्त होती है। यह उपासक सब वरणीय वस्तुओं, वसुओं व धान्यों को प्राप्त करता है ।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे माणसांनो ! पूर्ण ब्रह्मचर्यपूर्वक शरीर, आत्मा याचे बल वाढवून संतान उत्पन्न करा. ॥ ४ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Agni, O child of omnipotence and maker of the brave, generous and brilliant ruler of the world, whoever is the mortal who with songs of praise and prayer and noble yajnic deeds receives by the vedi, seat of yajna, his focus and favour for action, he abounds in cherished gifts of life and commands the wealth and power of the world with all treasure sources of prosperity.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What should men do is told further.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O son of the mighty father! O enlightened person purifying like the fire, the mortal who approaches and honors you with the most admirable Vedic mantras within the Yajnas, consisting of the honor shown to the scholars, association and charity and with the construction of an altar, gives profound delight. He enjoys all precious things with the Yajnas performed with good wealth, gains wealth of corn and becomes the lord (owner. Ed.) of the treasures. You should associate with such a noble person.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O men ! you should develop your physical and spiritual power with perfect Brahmacharya (continence) and then should (procreate and bring up Ed.) good children.

    Foot Notes

    (यज्ञै:) विद्वत्सत्कारादिभिः । (यज्ञैः ) यज-देवपूजासंगतिकरणदानेषु। = By the Yajnas consisting of the honour shown to the enlightened persons, association with them and charity. (उक्थैः) वक्तुमर्हेवेंदितव्यैवदवचनैः उक्थेः । वच-परिभाषणे (अदा.) पात सु दिवि रिचिसिचिभ्यः स्थक् (उणादिकोषे 2, 7)। = With the admirable and worth knowing Vedic mantras. (वेधा ) सुखप्रापिकया । (वेधा) विद्लु-लाभे । लाभः प्राप्तिः । सुखं प्रापयतीति वेदिः । = With an altar that leads to happiness.

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