ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 20/ मन्त्र 2
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - पङ्क्तिः
स्वरः - पञ्चमः
दि॒वो न तुभ्य॒मन्वि॑न्द्र स॒त्रासु॒र्यं॑ दे॒वेभि॑र्धायि॒ विश्व॑म्। अहिं॒ यद्वृ॒त्रम॒पो व॑व्रि॒वांसं॒ हन्नृ॑जीषि॒न्विष्णु॑ना सचा॒नः ॥२॥
स्वर सहित पद पाठदि॒वः । न । तुभ्य॑म् । अनु॑ । इ॒न्द्र॒ । स॒त्रा । अ॒सु॒र्य॑म् । दे॒वेभिः॑ । धा॒यि॒ । विश्व॑म् । अहि॑म् । यत् । वृ॒त्रम् । अ॒पः । व॒व्रि॒ऽवांस॑म् । हन् । ऋ॒जी॒षि॒न् । विष्णु॑ना । स॒चा॒नः ॥
स्वर रहित मन्त्र
दिवो न तुभ्यमन्विन्द्र सत्रासुर्यं देवेभिर्धायि विश्वम्। अहिं यद्वृत्रमपो वव्रिवांसं हन्नृजीषिन्विष्णुना सचानः ॥२॥
स्वर रहित पद पाठदिवः। न। तुभ्यम्। अनु। इन्द्र। सत्रा। असुर्यम्। देवेभिः। धायि। विश्वम्। अहिम्। यत्। वृत्रम्। अपः। वव्रिऽवांसम्। हन्। ऋजीषिन्। विष्णुना। सचानः ॥२॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 20; मन्त्र » 2
अष्टक » 4; अध्याय » 6; वर्ग » 9; मन्त्र » 2
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अष्टक » 4; अध्याय » 6; वर्ग » 9; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वयः
हे ऋजीषिन्निन्द्र ! यथा सूर्य्यो विष्णुना सचानो यद्यमपो वव्रिवांसं वृत्रमहिं हंस्तथा देवेभिस्तुभ्यं सत्रा दिवो न विश्वमसुर्यमनु धायि ॥२॥
पदार्थः
(दिवः) कामयमानाः (न) इव (तुभ्यम्) (अनु) (इन्द्र) राजन् (सत्रा) सत्येन (असुर्यम्) असुराणां मूढानां पापिनामिदमैश्वर्यम् (देवेभिः) (धायि) ध्रियते (विश्वम्) समग्रम् (अहिम्) मेघम् (यत्) यम् (वृत्रम्) आच्छादकम् (अपः) जलानि (वव्रिवांसम्) (हन्) हन्ति (ऋजीषिन्) ऋजुधर्मयुक्त (विष्णुना) व्यापकेन जगदीश्वरेण विद्युता वा (सचानः) समवेतः ॥२॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। हे मनुष्या ! यथा सूर्य्योऽष्टसु मासेषु जलरसाननुकर्ष्य चातुर्मास्ये वर्षयति तथैव राजाऽष्टसु मासेषु करान् गृहीत्वाऽभयवृष्टिं कृत्वा प्रजां पालयेत् ॥२॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (ऋजीषिन्) सरल धर्म से युक्त (इन्द्र) राजन् ! जैसे सूर्य (विष्णुना) व्यापक जगदीश्वर वा बिजुली से (सचानः) मिलनेवाला (यत्) जिसको (अपः) जलों के (वव्रिवांसम्) विभाग करते हुए (वृत्रम्) आच्छादन करनेवाले (अहिम्) मेघ को (हन्) नाश करता है, वैसे (देवेभिः) विद्वानों से (तुभ्यम्) आपके लिये (सत्रा) सत्य से (दिवः) कामना करते हुए (न) जैसे वैसे (विश्वम्) सम्पूर्ण (असुर्यम्) मूर्ख पापी जनों का ऐश्वर्य (अनु, धायि) पीछे धारण किया जाता है ॥२॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जैसे सूर्य आठ महीने में जल के रसों को आकर्षण के द्वारा हरण करके चातुर्मास्य में वर्षाता है, वैसे ही राजा आठ महीने करों को ग्रहण कर अभय की वृष्टि करके प्रजा का पालन करे ॥२॥
विषय
विद्युत्वत् राजा का समवाय बना कर शत्रुहनन।
भावार्थ
( न ) जिस प्रकार ( अपः वव्रिवांसं ) जलों को अपने गुप्त रूप से रखने वाले ( अहिं ) मेघ को ( विष्णुना सचानः ) व्यापक वायु वा सूर्य से मिलकर (ऋजीषीन् ) सरल रेखा में जाने वाला विद्युत् ( हन् ) व्यापता या आघात करता है । तब ( देवेभिः दिवः असुयं विश्वम् धायि ) कामनावान् मनुष्य आकाश के समस्त मेघस्थ जल को प्राप्त करते हैं, वा सूर्य के किरण ही आकाश में मेवस्थ जल को अपने में धारण करते हैं उसी प्रकार हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! शत्रुहन्त ! ( यत् ) जब ( अपः वव्रिवांसंम् ) आप्त प्रजाजनों को घेर लेने वाले, ( अहिम् ) सन्मुख आये, सर्पवत् कुटिल, व अवध्य, बलवान्, ( वृत्रम् ) समृद्ध शत्रु को तू ( विष्णुना ) व्यापक, विस्तृत सैन्य बल से ( सचानः ) समवाय बनाकर ( अहन् ) मारता है, तब हे ( ऋजीषन् ) सरल मार्ग में प्रजाओं को सञ्चालित करने हारे राजन् ! तब ( तुभ्यम् ) तेरे ही लिये (विश्वम् असुर्यम् ) समस्त असुरों को नाश करने वाले बल को, और (असुर्य) असुरों से प्राप्त ऐश्वर्य को ( देवेभिः ) मनुष्य, ( सचा अनुधायि ) सदा निरन्तर धारण और पोषण करते हैं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषि: । इन्द्रो देवता ॥ छन् १ अनुष्टुप् । २,३, ७, १२ पाक्तः। ४, ६ भुरिक पंक्तिः । १३ स्वराट् पंक्ति: । १७ निचृत्पंक्तिः॥ ५, ८, ६, ११ निचृत्रिष्टुप् ।। सप्तदशर्चं सूक्तम् ।।
विषय
ज्ञान-दिव्यागुण-बल
पदार्थ
[१] हे (इन्द्र) = जितेन्द्रिय पुरुष ! (तुभ्यम्) = तेरे लिए (दिवः न) = ज्ञान की तरह (सत्रा) = सचमुच (देवेभिः) = दिव्य गुणों के साथ (विश्वं असुर्यम्) = सब बल (अनुधायि) = ज्ञान धारण किया जाता है। प्रभु के उपासन के होने पर 'ज्ञान, बल व दिव्यगुणों' की प्राप्ति होती है। उत्तरोत्तर इनकी वृद्धि होती चलती है। [२] (यत्) = जब कि हे (ऋजीषिन्) = ऋजु [सरल] मार्ग से गति करनेवाले जीव ! (विष्णुना सचान:) = उस व्यापक परमात्मा से मेलवाला होता हुआ तू (अपः वव्रिवांसम्) = सब कर्मों पर परदा डाल देनेवाले, कर्त्तव्य मार्ग से भ्रष्ट कर देनेवाले, (अहिम्) = [आहन्तारं] सब दृष्टिकोणों से विनाशक (वृत्रम्) = वासनारूप शत्रु को (हन्) = तू विनष्ट करता है। इस वासनारूप शत्रु के विनाश से वह बल प्राप्त होता है, वह ज्ञान व दिव्यगुण प्राप्त होते हैं जिनसे कि हम उत्तरोत्तर आगे बढ़ते चलते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु की उपासना से 'ज्ञान, दिव्यगुणों व बल' की प्राप्ति होती है, प्रभु से मिलकर हम वासनारूप विनाशक शत्रु का विनाश कर पाते हैं।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपामालंकार आहे. हे माणसांनो ! जसा सूर्य आठ महिन्यांत जलाच्या रसांना आकर्षणाद्वारे ओढून घेतो व चार महिने वृष्टी करवितो तसेच राजाने आठ महिने कर घेऊन अभयाची वृष्टी करून प्रजेचे पालन करावे. ॥ २ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Indra, ruler of the world, observer of the original law and keeper of the honest simplicity of natural conduct, when in union with omnipresent Vishnu, omnipotent cosmic energy, you break the cloud of serpentine motion holding showers of the waters of life in hiding, then, together with the showers, universal life breath of vital energies is received, like light of the sun from heaven, by the brilliancies of humanity and of nature such as earth to bless you and your people.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The object of man's desire is described.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O king of upright nature ! as the sun united with the power of all-pervading God or electricity smites down the cloud enclosing water and covering the sky, so the enlightened persons desiring the welfare of all, entrust you with all wealth belonging to the ignorant sinners with truth.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O men! as the sun draws the sap of water for eight months and rains it down in four months, in the same manner a king should collect the revenue for eight months and should safeguard the people by showering fearlessness on them.
Foot Notes
(ऋजीषिन्) ऋजुधर्मयुक्त | Endowed with upright nature. (सन्ना) सत्येन । सत्ता इति सत्यनाम (NG 3,10)। = With truth. (विष्णुना) व्यापकेन जगदीश्वरेण विद्यता वा । विष्लृ व्याप्तो व्यापकत्वात् जगदीश्वरो विष्णु विद्य ुच्च । = With all-pervading God or electricity. (असुर्यम्) असुराणां मूढानां पापिनामिदमैश्वर्यम् । असुषु प्राणेषु रमन्ते इति असुराः पापिनौ मूढ़ाः । = Wealth belonging to the ignorant sinners.
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