ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 30/ मन्त्र 4
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - पङ्क्तिः
स्वरः - पञ्चमः
स॒त्यमित्तन्न त्वावाँ॑ अ॒न्यो अ॒स्तीन्द्र॑ दे॒वो न मर्त्यो॒ ज्याया॑न्। अह॒न्नहिं॑ परि॒शया॑न॒मर्णोऽवा॑सृजो अ॒पो अच्छा॑ समु॒द्रम् ॥४॥
स्वर सहित पद पाठस॒त्यम् । इत् । तत् । न । त्वाऽवा॑न् । अ॒न्यः । अ॒स्ति॒ । इन्द्र॑ । दे॒वः । न । मर्त्यः॑ । ज्याया॑न् । अह॑न् । अहि॑म् । प॒रि॒ऽशया॑नम् । अर्णः॑ । अव॑ । अ॒सृ॒जः॒ । अ॒पः । अच्छ॑ । स॒मु॒द्रम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
सत्यमित्तन्न त्वावाँ अन्यो अस्तीन्द्र देवो न मर्त्यो ज्यायान्। अहन्नहिं परिशयानमर्णोऽवासृजो अपो अच्छा समुद्रम् ॥४॥
स्वर रहित पद पाठसत्यम्। इत्। तत्। न। त्वाऽवान्। अन्यः। अस्ति। इन्द्र। देवः। न। मर्त्यः। ज्यायान्। अहन्। अहिम्। परिऽशयानम्। अर्णः। अव। असृजः। अपः। अच्छ। समुद्रम् ॥४॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 30; मन्त्र » 4
अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 2; मन्त्र » 4
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अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 2; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनरीश्वरः कीदृशोऽस्तीत्याह ॥
अन्वयः
हे इन्द्र ! यतस्त्वया निर्मितस्सविता परिशयानमहिमहन्नर्णोऽपः समुद्रमच्छाऽवाऽसृजस्तस्मादन्यस्त्वावान् कोऽप्यन्यो ज्यायान्नास्ति न देवो न मर्त्त्यश्चास्तीति तत्सत्यमिदेवास्ति ॥४॥
पदार्थः
(सत्यम्) सत्सु साधु (इत्) एव (तत्) (न) निषेधे (त्वावान्) त्वया सदृशः (अन्यः) भिन्नः (अस्ति) (इन्द्र) सूर्य्य इव स्वप्रकाशमान जगदीश्वर (देवः) विद्वान् प्रकाशमानो लोको वा (न) (मर्त्यः) (ज्यायान्) महान् (अहन्) हन्ति (अहिम्) व्याप्नुवन्तं मेघम् (परिशयानम्) सर्वतः शयानमिव (अर्णः) उदकम् (अव) (असृजः) सृजति (अपः) जलानि (अच्छा) सम्यक्। अत्र संहितायामिति दीर्घः। (समुद्रम्) सागरमन्तरिक्षं वा ॥४॥
भावार्थः
हे मनुष्या ! येन जगत्पालनायाकर्षको वृष्टिप्रकाशकरः सूर्यो निर्मितो मेघश्च तस्माज्जगदीश्वरेण तुल्यः कोऽपि नास्ति कुतोऽधिक इति तथ्यं विजानीत ॥४॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर ईश्वर कैसा है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (इन्द्र) सूर्य्य के सदृश अपने से प्रकाशमान जगदीश्वर ! जिससे आपसे बनाया गया सूर्य्य (परिशयानम्) चारों ओर से सोते हुए से (अहिम्) व्याप्त होनेवाले मेघ का (अहन्) नाश करता है और (अर्णः) भ्रमर पड़ते जल वा अन्य (अपः) जलों और (समुद्रम्) सागर वा अन्तरिक्ष को (अच्छा) उत्तम प्रकार (अव, असृजः) उत्पन्न करता है, इससे (अन्यः) और (त्वावान्) आपके सदृश कोई भी दूसरा (ज्यायान्) बड़ा नहीं है (न) न (देवः) विद्वान् वा प्रकाशमान और (न) न (मर्त्यः) साधारण मनुष्य (अस्ति) है (तत्) वह (सत्यम्) श्रेष्ठों में श्रेष्ठ (इत्) ही है ॥४॥
भावार्थ
हे मनुष्यो ! जिस जगदीश्वर ने जगत् के पालन के लिये आकर्षण करने और वृष्टि तथा प्रकाश करनेवाला सूर्य्य और मेघ बनाया, इस कारण से जगदीश्वर के तुल्य कोई भी नहीं है, फिर अधिक कहाँ से हो, यह सत्य जानिये ॥४॥
विषय
सूर्यवत् अनुपम प्रभु । राजा के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
( तत् सत्यम् इत् ) यह बात सर्वथा सत्य है, कि (त्वावान् अन्यः न अस्ति) तेरे जैसा जैसा दूसरा और नहीं है । हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! तेरे जैसा (न देवः न मर्त्यः ज्यायान्) न देव और मर्त्य ही तुझ से बड़ा है । (परि-शयानम् ) सब ओर फैले ( अहिं ) मेघ को जिस प्रकार विद्युत्, सूर्य ( अहन् ) छिन्न भिन्न करता है, और ( अर्ण: अव असृजः ) जल को नीचे गिराता है और (अपः समुद्रम् अच्छ अवासृज) जलों को समुद्र या अन्तरिक्ष की ओर बहा देता या मेघ रूप से उठादेता है उसी प्रकार हे राजन् ! तू भी ( परि-शयानम् ) शान्त रूप से फैले ( अहिं ) आगे आये शत्रु को ( अहन्) नाश करे । ( अर्णः ) धन को उत्पन्न करे और ( अपः अच्छ समुद्रम् ) आत प्रजाओं को समुद्र के समान गंभीर पुरुष के प्रति सौंप दे।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषि: । इन्द्रो देवता ।। छन्दः – १, २, ३ निचृत्त्रिष्टुप् ४ पंक्ति: । ५ ब्राह्मो उष्णिक् ।। पञ्चर्चं सूक्तम् ॥
विषय
मेघविदारण व जलवर्षण
पदार्थ
[१] हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! (तत् सत्यं इत्) = वह बात सत्य ही है कि त्वावान् अन्यः न अस्ति= आप जैसा और कोई नहीं है। हे प्रभो ! (न देवः) = न कोई देव, (न मर्त्यः) = नां ही कोई मनुष्य (ज्यायान्) = आपसे बड़ा नहीं है । [२] आप ही (परिशयानम्) = अन्तरिक्ष में चारों ओर शयन करते हुए (अहिम्) = मेघ को (अहन्) = नष्ट करते हैं, विदीर्ण करते हैं। (अर्णः) = जल को (अव असृजः) = नीचे पृथ्वी पर भेजते हैं। और (अपः) = इन जलों को (समुद्रं अच्छा) = समुद्र की ओर प्रवाहित करते हैं। समुद्र से सूर्य-किरणों द्वारा ये वाष्पीभूत होकर फिर अन्तरिक्ष में मेघ का रूप धारण करते हैं। इस प्रकार फिर वही चक्र चल पड़ता है।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु के समान व अधिक कोई और नहीं है। प्रभु ही बादलों को विदीर्ण करके जलों को बरसाते हैं और समुद्र की ओर प्रवाहित करते हैं।
मराठी (1)
भावार्थ
हे माणसांनो ! ज्या जगदीश्वराने जगाचे पालन करण्यासाठी वृष्टी करणारा मेघ व प्रकाश देणारा आकर्षणयुक्त सूर्य उत्पन्न केलेले आहेत, त्यामुळे जगदीश्वरासारखे कोणीही नाही तर त्याच्यापेक्षा अधिक कोणी कसा असू शकेल? हे सत्य जाणा. ॥ ४ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Indra, refulgent lord eternal, true it is there is no one else divine or human as great as you who break the dark and dormant cloud, release the showers of rain and let the whirling streams flow and join the rolling ocean. Similarly, O lord omnipotent, you break the dark silence of sleeping nature from the state of inertness and set the processes of creative evolution aflow and let them ultimately recede into the fathomless ocean of silence again.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How is God ?--is told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O God! lord of the world Self-effulgent like the sun, as the sun created by you leaves asunder the cloud that besieges the water and lets loose the streams to hurry sea-ward or towards the firmament, it is indeed true that there is none like you; no enlightened person or refulgent world nor any ordinary mortal is superior to you.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O men! you should know well this fact that there is none equal to that lord of the world, who has made the sun for sustaining the universe which attracts and causes rain and light, what to say of superior to Him.
Foot Notes
(देव) विद्वान्प्रकाशमानो लोको वा । देवो दानादवा दीपनाद् वायुस्थानो भवतीतिक (NKT) = Enlightened person or refulgent world. (अहिम) व्याप्नुवन्तं मेघम् | अहिरिति मेघस्य (NG 1, 10 ) अह-व्याप्तौ (स्वा०) । = The pervading cloud. (अर्णा) उदकम् । = Water.
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