ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 33/ मन्त्र 5
नू॒नं न॑ इन्द्राप॒राय॑ च स्या॒ भवा॑ मृळी॒क उ॒त नो॑ अ॒भिष्टौ॑। इ॒त्था गृ॒णन्तो॑ म॒हिन॑स्य॒ शर्म॑न्दि॒वि ष्या॑म॒ पार्ये॑ गो॒षत॑माः ॥५॥
स्वर सहित पद पाठनू॒नम् । नः॒ । इ॒न्द्र॒ । अ॒प॒राय॑ । च॒ । स्याः॒ । भव॑ । मृ॒ळी॒कः । उ॒त । नः॒ । अ॒भिष्टौ॑ । इ॒त्था । गृ॒णन्तः॑ । म॒हिन॑स्य । शर्म॑न् । दि॒वि । स्या॒म॒ । पार्ये॑ । गो॒सऽत॑माः ॥
स्वर रहित मन्त्र
नूनं न इन्द्रापराय च स्या भवा मृळीक उत नो अभिष्टौ। इत्था गृणन्तो महिनस्य शर्मन्दिवि ष्याम पार्ये गोषतमाः ॥५॥
स्वर रहित पद पाठनूनम्। नः। इन्द्र। अपराय। च। स्याः। भव। मृळीकः। उत। नः। अभिष्टौ। इत्था। गृणन्तः। महिनस्य। शर्मन्। दिवि। स्याम। पार्ये। गोसऽतमाः ॥५॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 33; मन्त्र » 5
अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 5; मन्त्र » 5
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अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 5; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः स राजा कथं वर्तेत इत्याह ॥
अन्वयः
हे इन्द्र ! त्वां नो मृळीको भवा, उतापराय नूनं मृळीकः स्या नोऽभिष्टौ च प्रवृत्तो भवेत्था गृणन्तो गोषतमा वयं महिनस्य ते पार्ये दिवि शर्मन्त्स्याम ॥५॥
पदार्थः
(नूनम्) निश्चितम् (नः) अस्माकम् (इन्द्र) दुःखविदारक (अपराय) अन्यस्मै (च) (स्याः) भूयाः (भवा) अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (मृळीकः) सुखकर्त्ता (उत) अपि (नः) अस्माकम् (अभिष्टौ) इच्छितसुखे (इत्था) अस्मात्कारणात् (गृणन्तः) स्तुवन्तः (महिनस्य) महतः (शर्मन्) शर्मणि गृहे (दिवि) कमनीये (स्याम) भवेम (पार्ये) पूरयितव्ये (गोषतमाः) ये गा वाचः सनन्ति सेवन्ते ततोऽतिशयिताः ॥५॥
भावार्थः
यदि राजा स्वस्य परस्य वा पक्षपात्यभूत्वा प्रजारक्षणे यत्नवान् भवेत्तर्हि सर्वाः प्रजाः प्रेमास्पदबद्धाः सत्यो राजानमहर्निशं स्तूयुरिति ॥५॥ अत्रेन्द्रराजप्रजागुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इति त्रयस्त्रिंशत्तमं सूक्तं पञ्चमो वर्गश्च समाप्तः ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर वह राजा कैसा वर्त्ताव करे, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (इन्द्र) दुःखों के नाश करनेवाले ! आप (नः) हम लोगों के (मृळीकः) सुखकारक (भवा) हूजिये और (उत) भी (अपराय) अन्य के लिये (नूनम्) निश्चय कर सुखकारक (स्याः) हूजिये और (नः) हम लोगों के (अभिष्टौ) अपेक्षित सुख में (च) भी प्रवृत्त हूजिये (इत्था) इस कारण से (गृणन्तः) स्तुति करते हुए (गोषतमाः) वाणियों को अत्यन्त सेवनेवाले हम लोग (महिनस्य) बड़े आप के (पार्ये) पूर्ण करने और (दिवि) कामना करने योग्य (शर्मन्) गृह में (स्याम) होवें ॥५॥
भावार्थ
जो राजा अपने और दूसरे का पक्षपाती न होकर प्रजा के रक्षण में यत्न करनेवाला होवे तो सम्पूर्ण प्रजा प्रेम के स्थान में बँधी हुई होकर राजा की दिन-रात स्तुति करे ॥५॥ इस सूक्त में इन्द्र, राजा और प्रजा के गुणवर्णन करने से इस सूक्त के अर्थ की इससे पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह तेंतीसवाँ सूक्त और पाँचवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
विषय
उसका प्रजा के प्रति उचित भाव।
भावार्थ
हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! दुःखविदारक ! तू ( नूनं ) निश्चय से ( अपराय ) दूसरे के लिये भी ( मुळीकः ) दयार्द्र, सुख कर ( स्या: ) हो । ( उत ) और ( नः ) हमें ( अभिष्टौ ) प्राप्त होने पर भी (मृडीकः भव ) सुखकारी हो । ( इत्था ) इस प्रकार ( गृणन्तः ) स्तुति करते हम ( महिनस्य ) महान् सामर्थ्यवान् तेरे ( दिवि ) कान्तियुक्त, कमनीय, सुन्दर, ( पायें ) सब को पूर्ण करनेवाले और पालक ( शर्मन् ) सुखमय शरण में ( गोस-तमाः ) उत्तम ज्ञानवाणी, गवादि पशुओं और भूमियों का सुख सेवन करने वाले ( स्याम ) हों । इति पञ्चमो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
शुनहोत्र ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता । छन्दः - १, २, ३ निचृत्पंक्ति: । ४ भुरिक्पंक्ति: । ५ स्वराट् पंक्तिः ॥ पञ्चर्चं सूक्तम् ॥
विषय
'दिवि पार्ये शर्मन्' [स्याम]
पदार्थ
[१] हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! (नूनम्) = निश्चय से आज आप (नः) = हमारे (स्याः) = होइये, (च) = और (अपराय) = अगले समय के लिये भी आप हमारे होइये। (उत) = और (नः) = हमारे (अभिष्टौ) = शत्रुओं पर आक्रमण के निमित्त (मृळीकः भव) = सुख को देनेवाले होइये । हम सदा आपके हों, और शत्रुओं को शीर्ण करके सुखी हो सकें। [२] (इत्था) = इस प्रकार (गृणन्तः) = स्तुति करते हुए हम (गोषतमाः) = अधिक से अधिक ज्ञान की वाणियों का सेवन करनेवाले होते हुए (महिनस्य) = महान् पूजनीय आपके (दिवि) = देदीप्यमान पाये दुःखों से पार ले जानेवाले (शर्मन्) = सुख में व शरण में (स्याम) = हों। [शर्मन्- protection house]।
भावार्थ
भावार्थ- हम सदा प्रभु के हों। प्रभु से सुख को प्राप्त करें। प्रभु की शरण देदीप्यमान व दुःखों से पार करनेवाली है । अगले सूक्त में भी शुनहोत्र इन्द्र का स्तवन करते हैं
मराठी (1)
भावार्थ
जो राजा भेदभाव न करता प्रजेच्या रक्षणासाठी प्रयत्न करतो तेथे सर्व प्रजा प्रेमाने राजाची रात्रंदिवस स्तुती करते. ॥ ५ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Indra, lord of life, for sure be our friend and protector, and saviour of others too, for now and for ever, and for the attainment of our cherished goal be kind and gracious. Singing, celebrating and glorifying the splendour of the great lord, we pray, may we abide in the high heaven of divine felicity and, blest with the sacred Word of Divinity, swim across the seas of suffering to freedom.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How should the king deal-- is told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O Indra ! you are destroyer or piercer of miseries, be giver of good happiness to us, be engaged in conferring desired happiness on us. Thus glorifying God and being utterers of good words, may we remain in your great house, which is to be completed.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
If a king be engaged in the work of safeguarding his subjects, having given up all partiality for this own kith and kin and others, then all subjects may praise him lovingly and constantly.
Foot Notes
(अभिष्टौ) इच्छित सुखे । अभि + इष इच्छायाम् ( दिवा० ) । = For the desirable happiness. (गोषतमाः) ये गाव वाच: समन्ति सेवन्ते ततोऽतिशयिताः । गौरिति वाङ्गनाम (NG, 1,11 ) षेणा संभक्तौ |= Those persons who serve or use good speech.
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