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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 34 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 34/ मन्त्र 2
    ऋषिः - शुनहोत्रः देवता - इन्द्र: छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    पु॒रु॒हू॒तो यः पु॑रुगू॒र्त ऋभ्वाँ॒ एकः॑ पुरुप्रश॒स्तो अस्ति॑ य॒ज्ञैः। रथो॒ न म॒हे शव॑से युजा॒नो॒३॒॑स्माभि॒रिन्द्रो॑ अनु॒माद्यो॑ भूत् ॥२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पु॒रु॒ऽहू॒तः । यः । पु॒रु॒ऽगू॒र्तः । ऋभ्वा॑ । एकः॑ । पु॒रु॒ऽप्र॒श॒स्तः । अस्ति॑ । य॒ज्ञैः । रथः॑ । न । म॒हे । शव॑से । यु॒जा॒नः । अ॒स्माभिः॑ । इन्द्रः॑ । अ॒नु॒ऽमाद्यः॑ । भू॒त् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पुरुहूतो यः पुरुगूर्त ऋभ्वाँ एकः पुरुप्रशस्तो अस्ति यज्ञैः। रथो न महे शवसे युजानो३स्माभिरिन्द्रो अनुमाद्यो भूत् ॥२॥

    स्वर रहित पद पाठ

    पुरुऽहूतः। यः। पुरुऽगूर्तः। ऋभ्वा। एकः। पुरुऽप्रशस्तः। अस्ति। यज्ञैः। रथः। न। महे। शवसे। युजानः। अस्माभिः। इन्द्रः। अनुऽमाद्यः। भूत् ॥२॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 34; मन्त्र » 2
    अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 6; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स राजा कीदृशो भवेदित्याह ॥

    अन्वयः

    हे विद्वांसो ! यः पुरुहूतः पुरुगूर्त्तः पुरुप्रशस्त एको रथो न महे शवसे यज्ञैर्ऋभ्वा युजान इन्द्रोऽस्माभिस्सहाऽनुमाद्यो भूत् सोऽस्माकं हर्षकोऽस्ति तं राजानं यूयमपि मन्यध्वम् ॥२॥

    पदार्थः

    (पुरुहूतः) बहुभिः सत्कृतः (यः) (पुरुगूर्त्तः) बहुभिरुद्यमितः कृतपुरुषार्थकः (ऋभ्वा) महता मेधाविना (एकः) असहायः (पुरुप्रशस्तः) बहुषूत्तमः (अस्ति) (यज्ञैः) विद्वत्सत्कारसङ्गदानैः (रथः) विमानादियानम् (न) इव (महे) महते (शवसे) बलाय (युजानः) (अस्माभिः) (इन्द्रः) परमैश्वर्यदाता (अनुमाद्यः) अनुहर्षितुं योग्यः (भूत्) भवेत् ॥२॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः । हे मनुष्या ! यथाश्वैरग्न्यादिभिश्च युक्तो रथोऽभीष्टानि कार्याणि करोति, तथैव सुसहायो राजा राज्यकार्याण्यलङ्कर्त्तुं शक्नोति ॥२॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर वह राजा कैसा होवे, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे विद्वज्जनो ! (यः) जो (पुरुहूतः) बहुतों से सत्कार किया गया (पुरुगूर्त्तः) बहुतों से उत्तम कराया गया (पुरुप्रशस्तः) बहुतों में उत्तम (एकः) सहायरहित (रथः) विमान आदि वाहन (न) जैसे वैसे (महे) बड़े (शवसे) बल के लिये (यज्ञैः) विद्वानों के सत्कार और सङ्ग तथा दोनों से और (ऋभ्वा) बड़े बुद्धिमान् से (युजानः) युक्त हुआ (इन्द्रः) अत्यन्त ऐश्वर्य्य का देनेवाला (अस्माभिः) हम लोगों के साथ (अनुमाद्यः) पीछे से प्रसन्न होने योग्य (भूत्) होवे, वह हम लोगों का आनन्दकारक (अस्ति) है, उस राजा को आप लोग भी मानिये ॥२॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जैसे घोड़ों और अग्नि आदिकों से युक्त रथ अभीष्ट कार्य्यों को करता है, वैसे ही उत्तम सहायों के सहित राजा राज्य के कार्य्यों को पूर्ण करने को समर्थ होता है ॥२॥

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    विषय

    वह रथवत् सर्वाश्रय, उपास्य है ।

    भावार्थ

    ( यः ) जो ( पुरुहूतः ) बहुतों से स्तुति किया गया, ( पुरुगूर्त्तः ) बहुतों से उद्यम किया गया, अर्थात् जिसके निमित्त बहुत से उद्यम करते हैं, ( यः ) जो ( ऋभ्वा ) सत्य के बल पर महान् ( यज्ञैः ) यज्ञों और ईश्वरपूजा अर्चनादि द्वारा ( पुरु-प्रशस्तः ) बहुतों से अच्छी प्रकार स्तुति किया जाता है, वह ( महे ) बड़े (शवसे ) बल की वृद्धि के लिये ( अस्माभिः युजानः ) हम लोगों से योग द्वारा, उपासित ( इन्द्रः ) वह ऐश्वर्यवान्, ( रथः न ) महान् रथ के समान ( अनुमाद्यः भूत् ) प्रति दिन स्तुति योग्य और हर्ष अनुभव कराने हारा हो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    शुनहोत्र ऋषिः ।। इन्द्रो देवता । त्रिष्टुप् छन्दः ॥ पञ्चर्चं सूक्कम् ।।

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    विषय

    महे शवसे

    पदार्थ

    [१] (पुरुहूतः) = [पुरु हूतं यस्य] पालक व पूरक है पुकार जिसकी, (यः) = जो (पुरुगूर्तः) = पालक व पूरक उद्यमोंवाला है, जिसका बनाया एक-एक पदार्थ पालन व पूरण का साधन बनता है, (ऋभ्वा) = जो खूब ही दीप्त व महान् है, (एकः) = वह अद्वितीय प्रभु (यज्ञैः) = यज्ञों से (पुरु प्रशस्त:) = खूब स्तुत होता है, वस्तुतः यज्ञों के द्वारा ही प्रभु का पूजन होता है। [२] (रथः न) = वे प्रभु इस जीवनयात्रा की पूर्ति के लिये रथ के समान हैं। (युजानः) = योग द्वारा मेल किये जाते हुए वे प्रभु (महे शवसे) = महान् बल के लिये होते हैं। जो जितना प्रभु से अपना मेल कर पाता है, उतना ही शक्तिसम्पन्न बनता है । सो वे (इन्द्रः) = परमैश्वर्यशाली प्रभु (अस्माभिः) = हमारे से (नुमाद्यः भूत्) = स्तुति के योग्य हों ।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु का उपासन यज्ञों द्वारा होता है। उपासित प्रभु हमारे महान् बल के लिये होते हैं।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! जसे घोडे व अग्नी इत्यादींनी युक्त रथ इच्छित कार्य करतो तसेच उत्तम साह्य असेल तर राजा राज्याचे कार्य करण्यास समर्थ होतो. ॥ २ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Indra who is invoked by many, admired by many, sole lord adored by many, is sought after by the wise through creative and reflective yajnic endeavours for the pursuit of great vision and power with concentrated mind in meditation. May he be like a chariot for us across the world of life and consequently give us ultimate freedom and joy.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How should that king be—is further told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O highly learned persons! Indra- a king giver of great wealth and prosperity, is giver of delight to us. He is honored by many, is made industrious by many and is very good. He even single handed, being united with a great genius, with Yajnas i.e. honor shown to the enlightened persons, association with them and charity for great might like a charming vehicle (aircraft etc.) is worthy being pleased with us. You should also regard him as such and honor him.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O men! as a vehicle when harnessed with horses and with fire, electricity etc. accomplishes desirable works, so a ruler, who has good helpers can adorn or discharge well the duties of an administrator.

    Foot Notes

    (यज्ञै:) विद्वत्सत्कारसङ्गदानैः । यज-देवपूजा सङ्गति-करण दानेषु (भ्वा०)। = Honor shown to the enlightened persons, association with them and donation. ( पुरुगूत्तै:) बहुभिरुद्यमितः कृतपुरुषार्थकः । गुरी-उद्यमने (तुदा० ) पुरुइति बहुनाम (NG 3, 1 ) । = Made industrious by many. (ऋभुवा) सहता मेधाविना । = By a great genius.

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