ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 37/ मन्त्र 3
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृत्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
आ॒स॒स्रा॒णासः॑ शवसा॒नमच्छेन्द्रं॑ सुच॒क्रे र॒थ्या॑सो॒ अश्वाः॑। अ॒भि श्रव॒ ऋज्य॑न्तो वहेयु॒र्नू चि॒न्नु वा॒योर॒मृतं॒ वि द॑स्येत् ॥३॥
स्वर सहित पद पाठआ॒स॒स्रा॒णासः॑ । श॒व॒सा॒नम् । अच्छ॑ । इन्द्र॑म् । सु॒ऽच॒क्रे । र॒थ्या॑सः । अश्वाः॑ । अ॒भि । श्रवः॑ । ऋज्य॑न्तः । व॒हे॒युः॒ । नु । चि॒त् । नु । वा॒योः । अ॒मृत॑म् । वि । द॒स्ये॒त् ॥
स्वर रहित मन्त्र
आसस्राणासः शवसानमच्छेन्द्रं सुचक्रे रथ्यासो अश्वाः। अभि श्रव ऋज्यन्तो वहेयुर्नू चिन्नु वायोरमृतं वि दस्येत् ॥३॥
स्वर रहित पद पाठआसस्राणासः। शवसानम्। अच्छ। इन्द्रम्। सुऽचक्रे। रथ्यासः। अश्वाः। अभि। श्रवः। ऋज्यन्तः। वहेयुः। नु। चित्। नु। वायोः। अमृतम्। वि। दस्येत् ॥३॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 37; मन्त्र » 3
अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 9; मन्त्र » 3
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अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 9; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्मनुष्याः किं कुर्युरित्याह ॥
अन्वयः
य आसस्राणासः रथ्यासोऽश्वा इवाऽभि श्रव ऋज्यन्तो विद्वांसः शवसानमिन्द्रन्नू वहेयुर्यश्चिदेतानच्छ सुचक्रे स वायोरमृतं प्राप्य दुःखानि नु वि दस्येत् ॥३॥
पदार्थः
(आसस्राणासः) समन्ताद्गतिमन्तः (शवसानम्) बलवन्तम् (अच्छ) (इन्द्रम्) राजानम् (सुचक्रे) शोभनं करोति (रथ्यासः) रथेषु साधवः (अश्वाः) तुरङ्गाः (अभि) सर्वतः (श्रवः) ये शृण्वन्ति ते (ऋज्यन्तः) ऋजुरिवाचरन्तः (वहेयुः) प्राप्नुवन्तु (नू) सद्यः। अत्र ऋचि तुनुघेति दीर्घः। (चित्) अपि (नु) क्षिप्रम् (वायोः) पवनस्य (अमृतस्य) नाशरहितं स्वरूपम् (वि) (दस्येत्) उपक्षाययेत् ॥३॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे प्रजाजना ! यथा राजा युष्मान् वर्धयेत्तथा यूयमप्येनं वर्धयत, सर्वे योगाभ्यासं कृत्वा प्राणस्थं परमात्मानं विदित्वा दुःखानि दहन्तु ॥३॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर मनुष्या क्या करें, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
जो (आसस्राणासः) चारों ओर से गमन करनेवाले (रथ्यासः) वाहनों में श्रेष्ठ (अश्वाः) घोड़े जैसे वैसे (अभि, श्रवः) चारों ओर से सुननेवाले (ऋज्यन्तः) सरल के समान आचरण करते हुए विद्वान् जन (शवसानम्) बलयुक्त (इन्द्रम्) राजा को (नू) शीघ्र (वहेयुः) प्राप्त होवें और जो (चित्) भी इन को (अच्छ) अच्छे प्रकार (सुचक्रे) सुन्दर करता है वह (वायोः) पवन के (अमृतम्) नाशरहित स्वरूप को प्राप्त होकर दुखों की (नु) शीघ्र ही (वि, दस्येत्) उपेक्षा करे ॥३॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे प्रजाजनो ! जैसे राजा आप लोगों की वृद्धि करे, वैसे आप लोग भी इसकी वृद्धि करिये और सब योगाभ्यास करके प्राणों में वर्त्तमान परमात्मा को जान कर दुःखों का नाश करो ॥३॥
विषय
रथ में लगे अश्वों से उनकी तुलना ।
भावार्थ
( रथ्यासः अश्वाः ) रथ में लगने योग्य अश्वों के समान उत्तम धुरन्धर विद्वान् जन ( शवसानम् इन्द्रम् ) बलवान्, ऐश्वर्यवान् राजा को ( अच्छ आ-सस्त्राणासः ) अच्छी प्रकार प्राप्त होते हुए, ( ऋज्यन्तः ) ऋजु, सरल सीधे, धार्मिक मार्ग पर गमन करते हुए (श्रवः अभि वहेयुः) ऐश्वर्य, उत्तम कीर्त्ति प्राप्त करावें और वह (नू चित् ) अति शीघ्र ही ( सु-चक्रे ) उत्तम चक्र युक्त रथ के समान उत्तम राज्य चक्र में ( वायोः ) वायु के समान बलवान्, सबके प्राणप्रद ( अमृतं ) अविनाशी दीर्घायु, पद को प्राप्त कर ( नु ) दुःखों को (वि दस्येत्) नष्ट करे । अथवा (नूचित् इति निषेधे) वह उस अविनाशी पद का नाश न करे । अध्याममें – आत्मा के ‘अश्व’ प्राणगण हैं देह सुचक्र है । इसको अन्न, बल और ज्ञान प्राप्त करावें । जिससे वह आत्मा ‘वायुवत्’ जीवनप्रद, ज्ञानमय प्रभु के अमृतपद को प्राप्त कर दुःखों का नाश करे ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः – १, ४, ५ विराट् त्रिष्टुप् । २, ३ निचृत् पंक्ति: ॥ पञ्चर्चं सूक्तम् ॥
विषय
प्राणसाधना द्वारा सोम का रक्षण
पदार्थ
[१] (सुचक्रे) = शोभन चक्रोंवाले इस शरीर-रथ में (आसस्त्राणासः) = समन्तात् गति करते हुए (रथ्यासः अश्वाः) = रथवहन में उत्तम ये इन्द्रियाश्व (शवसानम्) = बल की तह आचरण करते हुए, अर्थात् शक्ति के पुञ्ज (इन्द्रम्) = शत्रु-विद्रावक प्रभु की (अच्छ) = ओर (वहेयुः) = हमें ले जाते हैं । [२] (ऋज्यन्तः) = ऋजुगमनवाले इन्द्रियाश्व (श्रवः अभि) = [वहेयुः ] ज्ञान की ओर हमें ले चलें। ऐसा होने पर (नु) = अब (वायो:) = वायु के द्वारा, अर्थात् प्राणसाधना के द्वारा (अमृतम्) = मृत्यु से बचानेवाला यह सोम (नू चित्) = नहीं (विदस्येत्) = नष्ट हो ।
भावार्थ
भावार्थ- हम कर्मों में लगे रहकर कर्मों द्वारा प्रभु की उपासना करें। हमारी इन्द्रियाँ ज्ञान प्राप्ति में लगी रहें। ऐसा होने पर प्राणसाधना में प्रवृत्त हुए हुए हम सोम का रक्षण कर पायेंगे यह सोम अमृत है।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे प्रजाजनांनो ! जसा राजा तुमची वृद्धी करतो तशी तुम्हीही त्याची वृद्धी करा. सर्वांनी योगाभ्यास करून प्राणांमध्ये असलेल्या परमात्म्याला जाणून दुःखांचा नाश करा. ॥ ३ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
May the motive powers of the chariot of mighty Indra, ever on the move in the divine orbit in a simple and natural manner, gracefully bear the lord to the chant of our yajnic programmes of humanity. Let the immortal breath of life never be exhausted, let no one waste away the nectar vitality of immortality.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What should men do-is again told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
He who trains well, those highly learned and upright persons, who like the active horses harnessed in the chariots and hearing other's requests and complaints, carry or help this mighty king, destroys all miseries knowing the imperishable nature of the air (by the nature of the matter) as cause and practicing Pranayama and other parts of the Yoga.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O people of the State ! as a king makes you grow in every way, so you should also increase his power by co-operating with him. All should burn or destroy their miseries by precising Yoga and knowing who is also with in the Pranas.
Foot Notes
(आसस्त्राणास:) समन्ताद्भतियन्तः।सृ-गतौ (भ्वा०)। = Active from all sides. (दस्येत् ) उपक्षाययेत् । दसु उपक्षये (दिवा० ) । = Makes or helps to destroy.
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