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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 37 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 37/ मन्त्र 5
    ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः देवता - इन्द्र: छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    इन्द्रो॒ वाज॑स्य॒ स्थवि॑रस्य दा॒तेन्द्रो॑ गी॒र्भिर्व॑र्धतां वृ॒द्धम॑हाः। इन्द्रो॑ वृ॒त्रं हनि॑ष्ठो अस्तु॒ सत्वा ता सू॒रिः पृ॑णति॒ तूतु॑जानः ॥५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्रः॑ । वाज॑स्य । स्थवि॑रस्य । दा॒ता । इन्द्रः॑ । गीः॒ऽभिः । व॒र्ध॒ता॒म् । वृ॒द्धऽम॑हाः । इन्द्रः॑ । वृ॒त्रम् । हनि॑ष्ठः । अ॒स्तु॒ । सत्वा॑ । आ । ता । सू॒रिः । पृ॒ण॒ति॒ । तूतु॑जानः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्रो वाजस्य स्थविरस्य दातेन्द्रो गीर्भिर्वर्धतां वृद्धमहाः। इन्द्रो वृत्रं हनिष्ठो अस्तु सत्वा ता सूरिः पृणति तूतुजानः ॥५॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्रः। वाजस्य। स्थविरस्य। दाता। इन्द्रः। गीःऽभिः। वर्धताम्। वृद्धऽमहाः। इन्द्रः। वृत्रम्। हनिष्ठः। अस्तु। सत्वा। आ। ता। सूरिः। पृणति। तूतुजानः ॥५॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 37; मन्त्र » 5
    अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 9; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे मनुष्या ! य इन्द्रः स्थविरस्य वाजस्य दाता य इन्द्रो गीर्भिर्वर्धतां वृद्धमहा इन्द्रो वृत्रमिव शत्रूणां हनिष्ठोऽस्तु यस्तूतुजानः सत्वा सूरिस्ताऽऽपृणति तं सर्वे यूयं सत्कुरुत ॥५॥

    पदार्थः

    (इन्द्रः) राजा (वाजस्य) अन्नादेः (स्थविरस्य) स्थूलस्य (दाता) (इन्द्रः) विद्यैश्वर्य्ययुक्तः (गीर्भिः) वाग्भिः (वर्धताम्) (वृद्धमहाः) वृद्धैः पूजितः (इन्द्रः) सूर्य्यः (वृत्रम्) मेघमिव (हनिष्ठः) अतिशयेन हन्ता (अस्तु) (सत्वा) सत्वगुणोपेतः (आ) (ता) तानि धनानि (सूरिः) विद्वान् (पृणति) सुखयति (तूतुजानः) सद्यः कर्त्ता ॥५॥

    भावार्थः

    हे मनुष्या ! योऽभयस्य दाता विद्यावृद्धाप्तानां सेवको दुष्टानां हन्ता क्षिप्रकारी विद्वान् मनुष्यो भवेत्तमेव यूयं राजानं मन्यध्वमिति ॥५॥ अत्रेन्द्रराजप्रजाकर्मवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इति सप्तत्रिंशत्तमं सूक्तं नवमो वर्गश्च समाप्तः ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! जो (इन्द्रः) विद्या और ऐश्वर्य्य से युक्त और (स्थविरस्य) स्थूल (वाजस्य) अन्न आदि का (दाता) देनेवाला और जो (इन्द्रः) विद्या और ऐश्वर्य्य से युक्त राजा (गीर्भिः) वाणियों से (वर्धताम्) बढ़े और (वृद्धमहाः) वृद्धों से सत्कार किया (इन्द्रः) सूर्य्य (वृत्रम्) मेघ का जैसे वैसे शत्रुओं का (हनिष्ठः) अत्यन्त मारनेवाला (अस्तु) हो और जो (तूतुजानः) शीघ्र करनेवाला (सत्वा) सतोगुण से युक्त (सूरिः) विद्वान् (ता) उन धनों को (आ, पृणति) अच्छे प्रकार सुखयुक्त करता है, उसका तुम सब लोग सत्कार करो ॥५॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यो ! जो अभय का देनेवाला, विद्या में वृद्धों और आप्तों का सेवक, दुष्टों का मारनेवाला, शीघ्रकर्त्ता, विद्वान् मनुष्य हो, उसी को तुम लोग राजा मानो ॥५॥ इस सूक्त में इन्द्र, राजा और प्रजा के कर्म्मों का वर्णन करने से इस सूक्त के अर्थ की इससे पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह सैंतीसवाँ सूक्त और नवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥

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    विषय

    उसका कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    ( इन्द्रः ) ऐश्वर्यवान् पुरुष ही ( स्थविरस्य ) स्थिर और बड़े ( वाजस्य ) अन्न, धन, बल का ( दाता ) देने वाला हो । वही ( इन्द्रः ) विद्या आदि का दाता, आचार्य ( वृद्ध-महाः ) वृद्धों द्वारा भी सत्कार करने योग्य होकर ( गीर्भिः ) उत्तम उपदेश योग्य वाणियों से ( वर्धताम् ) राष्ट्र की वृद्धि करे । ( इन्द्रः ) शत्रुहन्ता पुरुष ( वृत्रं ) बढ़ते शत्रु को ( हनिष्ठ: ) खूब दण्ड देने वाला ( अस्तु ) हो । वह ( सूरिः ) विद्वान् पुरुष ( तूतुजानः ) दुष्टों का निरन्तर नाश करता, और सज्जनों को दान देता हुआ ( सत्वा ) बलवान् सात्विक पुरुष ( ता ) उन नाना धनों को पूर्ण करे और दे । इति नवमो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः – १, ४, ५ विराट् त्रिष्टुप् । २, ३ निचृत् पंक्ति: ॥ पञ्चर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    वाजस्य स्थविरस्य दाता

    पदार्थ

    [१] (इन्द्रः) = वह शत्रु-विद्रावक प्रभु (स्थविरस्य) = अत्यन्त वृद्ध [=बढ़े हुए] (वाजस्य दाता) = शक्ति के देनेवाले हैं (वृद्धमहाः) = वे प्रवृद्ध तेजवाले (इन्द्रः) = सर्वशक्तिमान् प्रभु (गीर्भिः) = ज्ञानपूर्वक उच्चारित इन स्तुतिवाणियों से (वर्धताम्) = वृद्धि को प्राप्त हों। हमारे में प्रभु की भावना उत्तरोत्तर बढ़े। [२] (इन्द्रः) = वे परमैश्वर्यशाली, शत्रुविद्रावक प्रभु (वृत्रम्) = ज्ञान की आवरणभूत कामवासना को (हनिष्ठः अस्तु) अधिक-से-अधिक समाप्त करनेवाले हों। (सत्वा) = शत्रुओं का विनाश करनेवाले (तूतुजान:) = आसुरभावों को निरन्तर नष्ट करते हुए (सूरिः) = प्रेरक प्रभु (ता पृणति) = उन यज्ञों व ज्ञानों को हमारे लिये प्राप्त कराते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ– प्रभु शक्ति को देते हैं। वासना को विनष्ट करते हैं और हमारे अन्दर उत्तम कर्मों व ज्ञानों का पूरण करते हैं । अगले सूक्त में भी 'भरद्वाज बार्हस्पत्य' इन्द्र का स्तवन करते हैं -

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे माणसांनो ! जो अभय देणारा, विद्येने वृद्ध व आप्तांचा सेवक, दुष्टांना मारणारा, शीघ्रकारक विद्वान असतो त्यालाच तुम्ही राजा माना. ॥ ५ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Indra is the giver of solid strength and stable progress. May Indra, celebrated by the great and exalted by our words of adoration, rise in glory. Indra is the destroyer of darkness in the extreme, brilliant and brave in the essence, and, instant performer as he is, learned, he is, and the giver of complete fulfilment.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The same subject of duties of man-is continued.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men ! all honor that king, who is endowed with knowledge and wealth and who is the giver of the gross food-grains and other things. May the king grow, with the encouraging words uttered by the enlightened persons. May that king be the slayer of the foes as the sun is of the clouds. That king is worthy of respect, who being active and prompt, enlightened and endowed with the pure (sattvic) virtues, making all happy by utilizing the wealth for the welfare of others.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O men ! you should regard him only as your king, who is giver of fearlessness, servant of the old and enlightened persons, destroyer of the wicked and prompt in doing good deeds.

    Foot Notes

    (वाजस्य) अन्नादे । वाज-इत्यन्ननाम । ( NG 2, 7) । = Of the food grains and other things. (पुणाति ) सुखयति । पूण-प्रीणने (तुदा० ) प्रीणनं नृप्तकारणसुखप्रदानद्वारा। = Makes happy. (तूतुजान:) सद्य: कर्त्ता । तूतुजानः इति क्षिप्रनाम (NG 2, 15 ) । = Prompt.

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