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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 53 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 53/ मन्त्र 10
    ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः देवता - पूषा छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    उ॒त नो॑ गो॒षणिं॒ धिय॑मश्व॒सां वा॑ज॒सामु॒त। नृ॒वत्कृ॑णुहि वी॒तये॑ ॥१०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒त । नः॒ । गो॒ऽसनि॑म् । धिय॑म् । अ॒श्व॒साम् । वा॒ज॒साम् । उ॒त । नृ॒ऽवत् । कृ॒णु॒हि॒ । वी॒तये॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उत नो गोषणिं धियमश्वसां वाजसामुत। नृवत्कृणुहि वीतये ॥१०॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत। नः। गोऽसनिम्। धियम्। अश्वसाम्। वाजसाम्। उत। नृऽवत्। कृणुहि। वीतये ॥१०॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 53; मन्त्र » 10
    अष्टक » 4; अध्याय » 8; वर्ग » 18; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्मनुष्यैः किं कर्त्तव्यमित्याह ॥

    अन्वयः

    हे पशुपाल विद्वंस्त्वं नो वीतये गोषणिमुताऽश्वसामुत वाजसां धियं नृवत्कृणुहि ॥१०॥

    पदार्थः

    (उत) अपि (नः) अस्मभ्यम् (गोषणिम्) गवां विभाजिकाम् (धियम्) प्रज्ञाम् (अश्वसाम्) अश्वानां संविभाजिकाम् (वाजसाम्) वाजस्याऽन्नादेर्विभाजिकाम् (उत) अपि (नृवत्) मनुष्यवत् (कृणुहि) (वीतये) प्राप्तये ॥१०॥

    भावार्थः

    मनुष्यैर्गवाश्वधनधान्यवृद्धये पुरुषार्थिवन्महान् पुरुषार्थः कर्त्तव्यः ॥१०॥ अत्र राजमार्गदस्युनिवारणोत्तमदक्षिणादानप्रेरणा दुष्टहिंसनं श्रेष्ठपालनं पशुवर्धनं चोक्तमत एतत्सूक्तार्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इति त्रिपञ्चाशत्तमं सूक्तमष्टादशो वर्गश्च समाप्तः ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर मनुष्यों को क्या करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे पशु पालनेवाले विद्वन् ! आप (नः) हम लोगों के (वीतये) प्राप्ति के अर्थ (गोषणिम्) गौओं को अलग-अलग करनेवाली (उत) और (अश्वसाम्) घोड़ों का विभाग करनेवाली (उत) और (वाजसाम्) अन्नादि पदार्थों का विभाग करनेवाली (धियम्) उत्तम बुद्धि को (नृवत्) मनुष्यों के तुल्य (कृणुहि) करो ॥१०॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को गौ, अश्व और धन-धान्य की वृद्धि के लिये पुरुषार्थी जनों के समान महान् पुरुषार्थ करना योग्य है ॥१०॥ इस सूक्त में राजमार्ग, डाकुओं का निवारण, उत्तम दक्षिणा देनेवालों को प्रेरणा, दुष्टों को मारना, श्रेष्ठों की पालना और पशुओं का बढ़ाना कहा है, इस कारण इस सूक्त के अर्थ की इससे पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी योग्य है ॥ यह त्रेपनवाँ सूक्त और अठारहवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥

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    विषय

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    भावार्थ

    हे (पूषन् ) पशुपाल के तुल्य प्रजापोषक राजन् ! (उत ) और तू ( गो-सणिम् ) गौ देने वाली, (अश्व-साम्) अश्व देने वाली, और ( वाज-साम् ) अन्न, बल, ज्ञान ऐश्वयं देने वाली, (उत ) और नृवत् उत्तम नायकों से युक्त ( धियं ) बुद्धि वा कर्म को ( नः वीतये ) हमारे सुखोपभोग और हमें ज्ञान प्रकाशित करने के लिये ( कृणुहि ) कर । इत्यष्टादशो वर्गः ॥

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ॥ पूषा देवता ॥ छन्दः १, ३, ४, ६, ७, १० गायत्री । २, ५, ९ निचृद्गायत्री । ८ निचृदनुष्टुप् ।। दशर्चं सूक्तम् ।।

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    विषय

    उत्तम ज्ञानेन्द्रियाँ-कर्मेन्द्रियाँ- बुद्धि व शक्ति

    पदार्थ

    [१] हे प्रभो ! (नः धियम्) = हमारी बुद्धि को (गोषणिम्) = उत्कृष्ट ज्ञानेन्द्रियों का सेवन करनेवाली (उत) = तथा (अश्वसाम्) = उत्कृष्ट कर्मेन्द्रियों का सेवन करनेवाली (कृणुहि) = करिये। साथ ही हमारी बुद्धि को (वाजसाम्) = शक्ति का सेवन करनेवाली करिये । हमारी बुद्धि शक्ति से युक्त हो । [२] हे प्रभो ! (नृवत्) = एक पथ-प्रदर्शक की तरह [नृ=नेता] हमारे लिये वीतये सब अन्धकारों के विनाश के लिये [असन] (कृणुहि) = व्यवस्था को करिये। आपसे प्रदर्शित मार्ग पर चलते हुए हम लक्ष्य पर पहुँचनेवाले हों।

    भावार्थ

    भावार्थ- हमें प्रभु उत्तम ज्ञानेन्द्रियाँ, उत्तम कर्मेन्द्रियाँ, बुद्धि व शक्ति को प्राप्त करायें । अगले सूक्त के ऋषि भी 'भरद्वाज बार्हस्पत्य' ही हैं। वे 'पूषा' नाम से ही प्रभु की आराधना करते हैं -

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    मन्त्रार्थ

    (अस्मे) हमारे लिए (इन्द्रः) विद्युदस्त्र प्रयोक्ता (वरुणः) जल - वारणसाधन वरुणास्त्र प्रयोक्ता (मित्रः) अग्नि-आग्नेय अस्त्र प्रयोक्ता (अर्यमा) सूर्य-सौरास्त्र प्रयोक्ता (महि द्यन्नं सप्रथः शर्म यच्छन्तु) महत् धन विस्तृत सुख-शरण देकर (अदितेः-अवध ज्योतिः) उषा की अखण्डनीया विद्या की अवध्य ज्योति को या ज्ञात ज्योति को (ऋतावृधः-देवस्य सवितुः श्लोकं मनामहे) सत्यज्ञान के वर्धक सविता-परमात्मदेव के वेदवचन को मानते हैं-मानें-जानें ॥१०॥

    टिप्पणी

    'हन् धातोरात्मनेपदं च्छान्दसं श्लु श्चापि च्छान्दस: "बहुलं छन्दसि " (अष्टा० २।४।७६) ङित्वादुपधालोपः "गमहनजनखनघसां लोपः ङ्कित्यनङि" (अष्टा० ६।४।६८)

    विशेष

    ऋषि:- भरद्वाजः (अन्नादि का धारणकर्त्ता व्यापारी कृषक) देवता- पूषा (आधिदैविक क्षेत्र) में सूर्य- 'अथ यद् रश्मिपोषं पुष्यति तत् पूषा भवति' (निरु० १२।१६) आधिभौतिक क्षेत्र में पशुखाद्ययातायातमन्त्री "पूषा वै पशूनामीष्टे” (शत० १३|३|८|२), "पूषा वै पथीनामधिपतिः” (शत० १३।४।१।४४)

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    माणसांनी गाई, घोडे, धन, धान्य इत्यादींच्या वृद्धीसाठी पुरुषार्थी लोकांप्रमाणे महान पुरुषार्थ करणे योग्य आहे. ॥ १० ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Lord of light and life’s development, give us the gift of that knowledge and intelligence which may develop the wealth of cows and horses and create modes and means of success and prosperity. Give us that intelligence inspired with love for people so that we may live in peace and joy.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What should men do-is further told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O highly learned person, and nourisher of the animals! for our attainment create a intellect (understanding) which divides the cows, the horses and food like men in general.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Men should exert themselves well for the increase of the cattle wealth and grains like industrious persons.

    Foot Notes

    (गोषणिम्) गवां विभाजिकाम् । षण-संभक्तौ (भ्वा.) । = Divider of the cows. (वीतये) प्राप्तये। = For attainment.

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