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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 63 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 63/ मन्त्र 9
    ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः देवता - अश्विनौ छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    उ॒त म॑ ऋ॒ज्रे पुर॑यस्य र॒घ्वी सु॑मी॒ळ्हे श॒तं पे॑रु॒के च॑ प॒क्वा। शा॒ण्डो दा॑द्धिर॒णिनः॒ स्मद्दि॑ष्टी॒न्दश॑ व॒शासो॑ अभि॒षाच॑ ऋ॒ष्वान् ॥९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒त । मे॒ । ऋ॒ज्रे इति॑ । पुर॑यस्य । र॒घ्वी इति॑ । सु॒ऽमी॒ळ्हे । श॒तम् । पे॒रु॒के । च॒ । प॒क्वा । शा॒ण्डः । दा॒त् । हि॒र॒णिनः॑ । स्मत्ऽदि॑ष्टीन् । दश॑ । व॒शासः॑ । अ॒भि॒ऽसाचः॑ । ऋ॒ष्वान् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उत म ऋज्रे पुरयस्य रघ्वी सुमीळ्हे शतं पेरुके च पक्वा। शाण्डो दाद्धिरणिनः स्मद्दिष्टीन्दश वशासो अभिषाच ऋष्वान् ॥९॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत। मे। ऋज्रे इति। पुरयस्य। रघ्वी इति। सुऽमीळ्हे। शतम्। पेरुके। च। पक्वा। शाण्डः। दात्। हिरणिनः। स्मत्ऽदिष्टीन्। दश। वशासः। अभिऽसाचः। ऋष्वान् ॥९॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 63; मन्त्र » 9
    अष्टक » 5; अध्याय » 1; वर्ग » 4; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्मनुष्यैः किं कर्त्तव्यमित्याह ॥

    अन्वयः

    येऽभिषाचो वशासः पुरयस्य म ऋज्रे सुमीळ्ह उत पेरुके रघ्वी पक्वा च शाण्डो दात् तान् हिरणिनः स्मद्दिष्टीनृष्वान् दश शतं चाऽहं प्राप्नुयाम् ॥९॥

    पदार्थः

    (उत) (मे) मम (ऋज्रे) ऋजुप्रिये (पुरयस्य) यः पुरोऽयते प्राप्नोति तस्य (रघ्वी) पक्वानि (शाण्डः) यः श्यति तनूकरोति तथाऽयम्। अत्र शो तनूकरण इत्यस्मादौणादिकोऽडच् प्रत्ययः। (दात्) ददाति (हिरणिनः) हिरणाः सन्ति येषां तान् (स्मद्दिष्टीन्) प्रशंसितदर्शनान् (दश) एतत्सङ्ख्याकानश्वान् रथादीन् वा (वशासः) ये वशं प्राप्ताः (अभिषाचः) ये आभिमुख्येन सचन्ति ते (ऋष्वान्) महतः। ऋष्व इति महन्नाम। (निघं०३.३) ॥९॥

    भावार्थः

    हे मनुष्या ! ये मम वशीभूताः प्रीतियुक्ता महान्तः सहाया भवन्ति तदधीनोऽहमपि भवेयमेवं परस्परे वशत्वे सत्युत्तमान्यसंख्यानि कार्याणि कर्तुं शक्नुयाम् ॥९॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर मनुष्यों को क्या करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    जो मनुष्य (अभिषाचः) सम्मुख सम्बन्ध करते वा (वशासः) वश को प्राप्त होते हैं तथा (पुरयस्य) जो पहिले प्राप्त होता उस (मे) मेरे (ऋज्रे) कोमलता से प्रिय (सुमीळ्हे) सुन्दर सेचने योग्य (उत) और (पेरुके) पालन करनेवाले व्यवहार में (रघ्वी) छोटी क्रिया (पक्वा, च) और पके फलों को (शाण्डः) सूक्ष्मता करनेवाला (दात्) देता है उन (हिरणिनः) हिरणवाले (स्मद्दिष्टीन्) प्रशंसित दर्शनवाले (ऋष्वान्) बड़े-बड़े (दश) दश घोड़े वा रथों को वा (शतम्) और सैकड़ों को मैं प्राप्त होऊँ ॥९॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यो ! जो मेरे वशीभूत, प्रीतियुक्त, महान् सहायक होते हैं, उनके आधीन मैं भी होऊँ, इस प्रकार परस्पर का वशभाव हुए पीछे उत्तम असङ्ख्य कार्य्य कर सकूँ ॥९॥

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    विषय

    missing

    भावार्थ

    ( पुरयस्य ) अग्रणी वा पुर अर्थात् नगर के नियन्ता नगराध्यक्ष ( मे ) मुझ पुरुष के अधीन मेरे (ऋज्रे ) धर्मयुक्त, सरल नीति से युक्त सर्वप्रिय (सुमीढे) धन धान्य से समृद्ध, मेघादि से सुसेचित, (पेरुके च) उत्तम प्रजा पालक, राष्ट्र में ( रध्वी ) सदा कर्म करने में कुशल प्रजा वेगवती नदी के समान सुखप्रद हो, और ( शतं पक्वा ) नाना पके अन्न, खेत आदि हों। और ( शांड: ) प्रजा को शान्तिदायक, और शत्रुओं का अन्त करने में समर्थ वीर पुरुष, ( हिरणिनः ) सुवर्ण आदि का स्वामी ( स्मद्-दिष्टीन् ) उत्तम, शुभ दर्शन, वा ज्ञान वाले (ऋष्वान्) बड़े २ ( दश ) दस ( अभि-साचः ) सहयोगी ऐसे पुरुषों को ( दात् ) स्थापित करे जो ( वशासः ) उसके अधीन होकर कार्य करें उत्तम राष्ट्र में राजा दश विद्वान् पुरुषों की दशावरा राज्यपरिषत् बनाकर उत्तम राज्य का पालन करे ।

    टिप्पणी

    ( शांडः ) शं ददाति इति शांडः । स्यति अन्तं करोति वा शत्रूणां । स्यतेरडजौणादिकः ॥ दात्-धात् । वर्णविकारः ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः॥ अश्विनौ देवते ॥ छन्दः – १ स्वराड्बृहती । २, ४, ६, ७ पंक्ति:॥ ३, १० भुरिक पंक्ति ८ स्वराट् पंक्तिः। ११ आसुरी पंक्तिः॥ ५, ९ निचृत्त्रिष्टुप् ॥ एकादशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    'सुमीढ व पेरुक' की उत्तम इन्द्रियाँ व बुद्धि

    पदार्थ

    [१] (उत) = और (पुरयस्य) = [पुर यम्] शरीर पुरी का संयम करनेवाले (मे) = मेरे लिये (ऋ) = ऋजुगमनवाली (रघ्वी) = खूब गतिशील इन्द्रियरूप वडवायें [अश्वा] होती हैं। संयमी पुरुष की = इन्द्रियाँ सरल मार्ग से शीघ्र गतिवाली होती हैं। (सुमीढे) = अच्छी प्रकार शक्ति का सेचन करनेवाले में, सोम को शरीर में ही सिक्त करनेवाले में (शतम्) = सौ वर्ष पर्यन्त ये वडवायें निवास करती हैं। सोमरक्षण के होने पर इन्द्रियों की शक्ति अन्त तक ठीक बनी रहती है। (च) = और पेरुके अपना पालन व पूरण करनेवाले में (पक्का) = बुद्धि पूर्ण परिपाकवाली होती है। [२] (शाण्ड:) = [शं ददाति] शान्ति को देनेवाला का प्रभु (दश) = दस इन्द्रियाश्वों को (दात्) = देता है। जो इन्द्रियाश्व (हिरणिनः) = [हिरण्यवतः] ज्योतिवाले हैं, (स्मद् दिष्टीन्) = प्रशस्त दर्शनवाले हैं, (वशास:) = वश में हैं, अनुगुण हैं, (अभिषाचः) = शत्रुओं का अभिभव करनेवाले हैं, (ऋष्वान्) = दर्शनीय व महान् हैं। प्राणसाधना के होने पर इन्द्रियाश्व उत्तम बनते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्राणसाधना के द्वारा संयम के होने पर इन्द्रियाश्व सरल गतिवाले व सौ वर्ष तक चलनेवाले होते हैं। बुद्धि परिपक्व होती है। दसों की दसों इन्द्रियाँ उत्तम बनती हैं। -

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे माणसांनो ! जे मला वश असून अत्यंत प्रिय सहायक असतात, मीही त्यांच्या अधीन होऊन परस्पर वशीभूत होऊन असंख्य उत्तम कार्य करू शकेन. ॥ ९ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    In the simple, straight and bountiful social order of the pioneer ruler, let all the small and sophisticated rights and duties toward all simple and sophisticated projects be mine in a hundred ways, and let the giver of peace, freedom and refinement give me great, focussed, obedient and efficient assistants and co-workers directly responsible to me, in tens and hundreds of strength.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What should men do-is further told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    To those, who come in direct contact with me, who are under my control, who comes first in my dealing, that is dear to the upright person, which is to be well-sprinkled (developed), which is nourisher or protector, something small or mature or big or subtle, let me also be able to do such that they have beautiful appearance and possess, ten or even hundred beautiful horses or chariots.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O men ! those who are under my control, but who love me and are my great helpers, let me also be under their obligation. In this way, when there is mutual love, we may be able to do innumerable good acts.

    Foot Notes

    (स्मद्दिष्टीन्) प्रशंसित दर्शनान् । = whose sight is admired or is pleasing. (शाणङ:) यःश्यति तनूकरोति तथाऽयम । अत्र शोतनूकरण इत्यस्यादौणादिडकोचू प्रत्यय: = To be sprinkled.

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