ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 70/ मन्त्र 3
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - द्यावापृथिव्यौ
छन्दः - जगती
स्वरः - निषादः
यो वा॑मृ॒जवे॒ क्रम॑णाय रोदसी॒ मर्तो॑ द॒दाश॑ धिषणे॒ स सा॑धति। प्र प्र॒जाभि॑र्जायते॒ धर्म॑ण॒स्परि॑ यु॒वोः सि॒क्ता विषु॑रूपाणि॒ सव्र॑ता ॥३॥
स्वर सहित पद पाठयः । वा॒म् । ऋ॒जवे॑ । क्रम॑णाय । रो॒द॒सी॒ इति॑ । मर्तः॑ । द॒दाश॑ । धि॒ष॒णे॒ इति॑ । सः । सा॒ध॒ति॒ । प्र । प्र॒ऽजाभिः॑ । जा॒य॒ते॒ । धर्म॑णः । परि॑ । यु॒वोः । सि॒क्ता । विषु॑ऽरूपाणि । सऽव्र॑ता ॥
स्वर रहित मन्त्र
यो वामृजवे क्रमणाय रोदसी मर्तो ददाश धिषणे स साधति। प्र प्रजाभिर्जायते धर्मणस्परि युवोः सिक्ता विषुरूपाणि सव्रता ॥३॥
स्वर रहित पद पाठयः। वाम्। ऋजवे। क्रमणाय। रोदसी इति। मर्तः। ददाश। धिषणे इति। सः। साधति। प्र। प्रऽजाभिः। जायते। धर्मणः। परि। युवोः। सिक्ता। विषुऽरूपाणि। सऽव्रता ॥३॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 70; मन्त्र » 3
अष्टक » 5; अध्याय » 1; वर्ग » 14; मन्त्र » 3
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अष्टक » 5; अध्याय » 1; वर्ग » 14; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनरेते विज्ञाय कः कीदृशो भवतीत्याह ॥
अन्वयः
हे राजप्रजे ! ये धिषणे रोदसी वामृजवे क्रमणाय भवतस्ते यो मर्त्तो ददाश स कार्याणि प्र साधति प्रजाभिः प्रजायते युवोर्धर्मणो विषुरूपाणि सव्रता सिक्ता कुरुतस्ते परिसाधनीये ॥३॥
पदार्थः
(यः) (वाम्) युवयो राजप्रजाजनयोः (ऋजवे) सरलाय (क्रमणाय) गमनागमनाय (रोदसी) द्यावापृथिव्यौ (मर्त्तः) मनुष्यः (ददाश) ददाति (धिषणे) प्रज्ञाप्रगल्भतयोः कारणे (सः) (साधति) (प्र) (प्रजाभिः) प्रजातैस्सह (जायते) (धर्मणः) धर्मात् (परि) सर्वतः (युवोः) युवयोः (सिक्ता) सिक्तानि वीर्याण्युदकानि वा (विषुरूपाणि) व्याप्तरूपाणि (सव्रता) समानकर्माणि ॥३॥
भावार्थः
हे मनुष्या ! ये भूगर्भविद्युद्विद्यां द्यावापृथिव्योश्च कर्माणि जानन्ति ते प्रजया पशुभिर्विद्यया राज्येन च युक्ता जायन्ते ॥३॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर इन को जान के कौन कैसा होता है, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे राजप्रजाजनो ! जो (धिषणे) प्रजा और प्रगल्भता के कारण (रोदसी) आकाश और पृथिवी (वाम्) तुम लोगों को (ऋजवे) सरलपन के लिये और (क्रमणाय) गमन वा आगमन के लिये होते हैं, उनको (यः) जो (मर्त्तः) मनुष्य (ददाश) देता है (सः) वह कार्यों को (प्र, साधति) प्रसिद्ध करता है और (प्रजाभिः) उत्पन्न हुए पदार्थों के साथ (जायते) प्रसिद्ध होता है और (युवोः) तुम्हारे (धर्मणः) धर्म से (विषुरूपाणि) व्याप्तरूप (सव्रता) समान कर्मों को तथा (सिक्ता) वीर्य्य वा उदकों को सींचे हुए करते हैं, वे (परि) सब ओर से सिद्ध करने योग्य हैं ॥३॥
भावार्थ
हे मनुष्यो ! जो भूगर्भविद्या और द्यावापृथिवी के कर्मों को जानते हैं वे प्रजा, पशु, विद्या और राज्य से युक्त होते हैं ॥३॥
विषय
दोनों में आदर्श पुरुष का वर्णन ।
भावार्थ
हे ( धिषणे ) एक दूसरे को धारण करने वाले, बुद्धिमान, ( रोदसी ) सूर्य भूमि के समान तेजस्वी और दृढ़ स्त्री पुरुषो ! ( वां ) आप दोनों में से ( यः मत्तः ) जो मनुष्य ( ऋजवे क्रमणाय ) धर्म मार्ग पर चलने के लिये ( ददाश ) अपने को समर्पित करता है (सः साधति) वही वस्तुतः सन्मार्ग पर जाता और वही उद्देश्य साधता है। वही ( युवोः ) आप दोनों के बीच ( धर्मणः परि ) धर्मानुसार ( प्रजाभिः प्र जायते ) उत्तम प्रजा और सन्तानों द्वारा उत्पन्न होता है । ( युवोः ) आप दोनों के ( सिक्ता ) वीर्यों से उत्पन्नसन्तान ( विषु-रूपाणि ) नाना प्रकार के ( सव्रता ) समान शुभचारण युक्त उत्पन्न होते हैं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ।। द्यावापृथिव्यौ देवते ॥ छन्दः–१, ५ निचृज्जगती । २, ३, ६ जगती ॥ षडृचं सूक्तम् ॥
विषय
ऋजुक्रमण व सत् सन्तान
पदार्थ
[१] हे (धिषणे) = धारण करनेवाले (रोदसी) = द्यावापृथिवी (यः) = जो (मर्तः) = मनुष्य (ऋजवे क्रमणाय) = ऋजु [सरल] मार्ग से गति के लिये (वां ददाश) - आपके प्रति अपना अर्पण करता है, (स साधति) = वह अपनी कामनाओं को सिद्ध कर पाता है। द्यावापृथिवी के प्रति अपने को दे डालने का भाव यही है कि मस्तिष्क [द्यावा] व शरीर [पृथिवी] का पूरा ध्यान करना । सरल मार्ग से चलता हुआ पुरुष मस्तिष्क व शरीर दोनों को स्वस्थ रख पाता है। इनका स्वास्थ्य उसकी सब कामनाओं को पूर्ण करता है। [२] यह व्यक्ति (धर्मणः परि) = धर्मपूर्वक (प्रजाभिः प्रजायते) = पुत्र-पौत्र आदि से फलता-फूलता है । हे द्यावापृथिवी! (युवोः) = तुम्हारे द्वारा (विषुरूपाणि) = विशिष्ट उत्तम रूपवाले (सव्रता) = आपके समान व्रतोंवाले सन्तान सिक्ता-सिक्त होते हैं। 'द्यौरहं पृथिवी त्वं' इस वर से उच्चारण किये जानेवाले वाक्य में 'द्यौः' पिता है, 'पृथिवी' माता है। ये विशिष्ट उत्तम रूपवाले, उत्तम व्रती सन्तान को जन्म देते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ– द्यावापृथिवी के प्रति अपने को दे डालने का भाव यह है कि हम मस्तिष्क व शरीर का पूरा ध्यान करें। ऐसा होने पर हम सदा ऋजुमार्ग से चलते हैं और पुत्र-पौत्रों से फलते हुए सदा सव्रत सन्तानों को ही प्राप्त करते हैं ।
मराठी (1)
भावार्थ
हे माणसांनो ! जे भूगर्भविद्या व द्यावापृथ्वीचे कार्य जाणतात ते प्रजा, पशू , विद्या व राज्य यांनी युक्त असतात. ॥ ३ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
O heaven and earth, sustainers of life and illuminators of mind and intelligence, whoever the mortal that dedicates himself to you and abides by the laws you manifest for the sake of simple, straight guidance in the natural course of his life, wins success and honour and advances in life with his progeny higher and higher in the observance of Dharma, since it is from you that the diverse forms of life proceed alongwith the laws and manners of their species.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How does a man become by knowing them-is told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O kings and their subjects ! that man who gives himself up to the knowledge and proper application of the earth and heaven, which are the causes of intellect and cleverness, which enable you to go and come on a straight path, can accomplish many deeds. He in his seed is born again (begets progeny) and spreads by righteousness. From you flow things diverse in form, but ruled alike.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those men who know Geology and the science of electricity and the function of the heaven and earth, become endowed with good progeny, with animals, knowledge and kingdom.
Foot Notes
(क्रमणाय) गमनागमनाय । क्रमु-पादविक्षणे (भ्वा.) बिलु व्याप्तौ (जुहो.) = For going and coming. (विषुरूपाणि) व्याप्तरूपाणि। = of pervasive forms.
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