ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 70/ मन्त्र 4
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - द्यावापृथिव्यौ
छन्दः - जगती
स्वरः - निषादः
घृ॒तेन॒ द्यावा॑पृथि॒वी अ॒भीवृ॑ते घृत॒श्रिया॑ घृत॒पृचा॑ घृता॒वृधा॑। उ॒र्वी पृ॒थ्वी हो॑तृ॒वूर्ये॑ पु॒रोहि॑ते॒ ते इद्विप्रा॑ ईळते सु॒म्नमि॒ष्टये॑ ॥४॥
स्वर सहित पद पाठघृ॒तेन॑ । द्यावा॑पृथि॒वी इति॑ । अ॒भीवृ॑ते॒ इत्य॒भिऽवृ॑ते । घृ॒त॒ऽश्रिया॑ । घृ॒त॒ऽपृचा॑ । घृ॒त॒ऽवृधा॑ । उ॒र्वी इति॑ । पृ॒थ्वी इति॑ । हो॒तृ॒ऽवूर्ये॑ । पु॒रोहि॑ते॒ इति॑ पु॒रःऽहि॑ते । ते इति॑ । इत् । विप्राः॑ । ई॒ळ॒ते॒ । सु॒म्नम् । इ॒ष्टये॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
घृतेन द्यावापृथिवी अभीवृते घृतश्रिया घृतपृचा घृतावृधा। उर्वी पृथ्वी होतृवूर्ये पुरोहिते ते इद्विप्रा ईळते सुम्नमिष्टये ॥४॥
स्वर रहित पद पाठघृतेन। द्यावापृथिवी इति। अभीवृते इत्यभिऽवृते। घृतऽश्रिया। घृतऽपृचा। घृतऽवृधा। उर्वी इति। पृथ्वी इति। होतृऽवूर्ये। पुरोहिते इति पुरःऽहिते। ते इति। इत्। विप्राः। ईळते। सुम्नम्। इष्टये ॥४॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 70; मन्त्र » 4
अष्टक » 5; अध्याय » 1; वर्ग » 14; मन्त्र » 4
Acknowledgment
अष्टक » 5; अध्याय » 1; वर्ग » 14; मन्त्र » 4
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्ते कीदृश्यौ किं प्रापयतश्चेत्याह ॥
अन्वयः
हे मनुष्या ! ये विप्रा घृतेन युक्ते उर्वी अभीवृते घृतश्रिया घृतपृचा घृतावृधा होतृवूर्ये पुरोहिते इष्टये पृथ्वी द्यावापृथिवी ईळते त इत्सर्वेभ्यः सुम्नं लभन्ते ॥४॥
पदार्थः
(घृतेन) उदकेन (द्यावापृथिवी) विद्युदन्तरिक्षे (अभीवृते) येऽभितो वर्त्तेते (घृतश्रिया) घृतं प्रदीपनमवकाशनञ्च श्रीर्ययोस्ते (घृतपृचा) घृतेन प्रदीपनेनोदकेन वा सम्पृक्ते (घृतावृधा) घृतेन तेजसा वर्धेते (उर्वी) बहुगुणद्रव्ययुक्ते (पृथ्वी) विस्तीर्णे (होतृवूर्य्ये) होतारो व्रियन्ते ययोस्ते (पुरोहिते) पुरस्ताद्धितं दधत्यौ (ते) (इत्) (विप्राः) मेधाविनः (ईळते) स्तुवन्ति (सुम्नम्) सुखम् (इष्टये) सङ्गतये ॥४॥
भावार्थः
हे मनुष्या ! यथा प्राज्ञा विद्युतोऽन्तरिक्षस्य च विद्यां विज्ञाय कार्येषु संप्रयुञ्जते तथैते यूयमपि सम्प्रयुङ्ध्वम् ॥४॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर वे कैसे हैं और क्या प्राप्त कराते हैं, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे मनुष्या ! जो (विप्राः) मेधावी बुद्धिमान् पुरुष (घृतेन) जल से तथा (उर्वी) बहुत गुण और पदार्थों से युक्त (अभीवृते) सब ओर से वर्त्तमान (घृतश्रिया) अत्यन्त प्रकाश वा अवकाश धन जिनका (घृतपृचा) जो प्रकाश वा जल से अच्छे प्रकार सम्बन्ध किये हुए और (घृतावृधा) तेज से बढ़ते हैं तथा (होतृवूर्ये) होता जन से स्वीकार होते और (पुरोहिते) आगे से हित को धारण करते हुए (इष्टये) सङ्ग के लिये (पृथ्वी) बहुत विस्तारयुक्त जो (द्यावापृथिवी) बिजुली और अन्तरिक्ष हैं उनकी (ईळते) प्रशंसा करते हैं (ते, इत्) वे ही सब से (सुम्नम्) सुख पाते हैं ॥४॥
भावार्थ
हे मनुष्यो ! जैसे उत्तम बुद्धिमान् जन बिजुली और अन्तरिक्ष की विद्या को जान के कार्यों में लगाते हैं, वैसे तुम भी उनका प्रयोग करो ॥४॥
विषय
दोनों का आदर्श पारस्परिक कर्त्तव्य ।
भावार्थ
( द्यावापृथिवी ) सूर्य और भूमि जिस प्रकार ( घृतेन अभीवृते ) जल और प्रकाश से युक्त उनसे शोभा धारण करते, उनकी ही वृद्धि करते, उसी प्रकार स्त्री पुरुष ( द्यावापृथिवी ) एक दूसरे की कामना करने वाले, एक दूसरे को चाहने वाले और एक दूसरे का आश्रय होकर धारण करने वाले, (घृतेन अभीवृते ) स्नेह से सबके समक्ष एक दूसरे द्वारा वरण किये जावें । वे दोनों ( घृत-श्रिया ) जल से शोभित मेघविद्युत् के समान, तेज से शोभित सूर्य विद्युत् के तुल्य, स्नेह और ज्ञान से शोभा युक्त हों, वे दोनों (घृत-पृचा ) स्नेहपूर्वक एक दूसरे से सम्बद्ध हों, ( घृता-वृधा ) स्नेह से स्वयं बढ़ने और एक दूसरे को बढ़ाने वाले हों, दोनों ही वे ( उर्वी ) बड़े आदरणीय हों ( पृथ्वी ) विस्तृत भूमि के समान परस्पर आश्रय रूप ( होतृ-चूर्ये ) दोनों ही ज्ञानादि के देने वाले विद्वानों का यज्ञों में वरण करने वाले वा, एक दूसरे को आप ही देने और स्वीकार करने वाले, दाता प्रतिगृहीता रूप से वरण करने वाले, ( पुरोहिते ) दोनों एक दूसरे के कार्यों के ऊपर विद्वान् पुरोहित के समान साक्षी, एवं हित को सदा अपने आगे रखने वाले, वा गृहस्थ में प्रविष्ट होने के पूर्व सबके समक्ष परस्पर प्रेम ग्रन्थि से वद्ध हों। (विप्राः) विद्वान् पुरुष ( इष्टये ) इष्ट एवं परस्पर की सत्संगति लाभ के लिए, ( ते इत् ) उन दोनों को ही ( सुम्नम् ईडते ) सुखपूर्वक चाहा करते हैं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ।। द्यावापृथिव्यौ देवते ॥ छन्दः–१, ५ निचृज्जगती । २, ३, ६ जगती ॥ षडृचं सूक्तम् ॥
विषय
'घृतश्रिया घृतपृचा' द्यावापृथिवी
पदार्थ
[१] (द्यावापृथिवी) = ये द्युलोक व पृथिवीलोक (घृतेन) = उदक से व दीप्ति से (अभीवृते) = आवृत हैं। (घृतश्रिया) = उदक व दीप्ति से आश्रयणीय हैं। (घृतपृचः) = उदक व दीप्ति के सम्पर्कवाले हैं। (घृतावृधा) = हमारे जीवनों में भी रेतः कणरूप जलों को व दीप्ति को बढ़ानेवाले हैं। [२] (उर्वी) = विस्तृत हैं, (पृथ्वी) = प्रथित हैं, अपने कर्मों से सर्वत्र प्रसिद्ध हैं। (होतृवूर्ये) = होताओं का जिनमें वरण होता है, उन यज्ञों में पुरोहिते ये द्यावापृथिवी पुरस्कृत होते हैं, 'द्यौरिव भूम्ना पृथिवीव वरिम्णा' इन शब्दों से ये यज्ञों को प्रारम्भ करते हैं। (विप्राः) = ज्ञानी पुरुष (ते इत्) = इन द्यावापृथिवी से ही (इष्टये) = यज्ञों के लिये (सुम्नम्) = सुख को (ईडते) = याचित करते हैं। वस्तुतः मस्तिष्क [द्यावा] व शरीर [पृथिवी] का सुख होने पर ही यज्ञ प्रवृत्त होते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ- ये द्यावापृथिवी उदक व दीप्ति से आवृत हैं। ये ही हमारे जीवनों में रेत:कण रूप उदक के द्वारा शरीर को स्वस्थ बनाते हैं और ज्ञानदीप्ति से मस्तिष्क को उज्ज्वल करते हैं। ये हमें सुखी करके यज्ञों में समर्थ करते हैं।
मराठी (1)
भावार्थ
हे माणसांनो ! जसे उत्तम बुद्धिमान लोक विद्युत व अंतरिक्षाची विद्या जाणून त्यांना कार्यात संयुक्त करतात तसा प्रयोग तुम्हीही करा. ॥ ४ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Heaven and earth are surrounded by cosmic waters, they are brilliant in beauty by waters, they are joined and grow in and by waters. O vast earth and heaven, wise sages serve and pray to you for the fulfilment of their desire and attainment of happiness, you being foremost in their selection of the highpriest who would lead them to honour and success.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How are they and what do they lead us to -is further told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men ! those wise persons attain happiness from all things, who praise the electricity and firmament which are surrounded by water, whose wealth or beauty is in the luster, who are united with radiance or water, which grow with splendor, are endowed with many articles and attributes, spacious in which the performers of the Yajnas or scientists are chosen and who being existent from a very long time are beneficent to all.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O men ! as wise persons know the science of electricity and firmament and apply it for the accomplishment of various purposes, so you should also do.
Foot Notes
(द्यावापृथिवौ) विद्युदन्तरिक्षे । पृथिवीव्यन्तिरक्षनाम (NG 1, 3 ) = Electricity and firmament or middle region. (घुतावृधा) धृतेन तेजसा वर्धते । धृ-क्षरणदीप्त्योः (जुहो.) अत्र दीप्त्यर्थंमदाय-तेजसेतिव्याख्या। = Which go with or on account of splendor, (इष्टये) सङ्गतये । इष्टिरिति यज धातो निष्पन्नः । यज-देवपूजा सङ्गतिकरण दानेषु (भ्वा.) अत्र सङ्गतिकरणार्थ: = For unifying.
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal