ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 71/ मन्त्र 4
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - सविता
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
उदु॒ ष्य दे॒वः स॑वि॒ता दमू॑ना॒ हिर॑ण्यपाणिः प्रतिदो॒षम॑स्थात्। अयो॑हनुर्यज॒तो म॒न्द्रजि॑ह्व॒ आ दा॒शुषे॑ सुवति॒ भूरि॑ वा॒मम् ॥४॥
स्वर सहित पद पाठउत् । ऊँ॒ इति॑ । स्यः । दे॒वः । स॒वि॒ता । दमू॑नाः । हिर॑ण्यऽपाणिः । प्र॒ति॒ऽदो॒षम् । अ॒स्था॒त् । अयः॑ऽहनुः । य॒ज॒तः । म॒न्द्रऽजि॑ह्वः । आ । दा॒शुषे॑ । सु॒व॒ति॒ । भूरि॑ । वा॒मम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
उदु ष्य देवः सविता दमूना हिरण्यपाणिः प्रतिदोषमस्थात्। अयोहनुर्यजतो मन्द्रजिह्व आ दाशुषे सुवति भूरि वामम् ॥४॥
स्वर रहित पद पाठउत्। ऊँ इति। स्यः। देवः। सविता। दमूनाः। हिरण्यऽपाणिः। प्रतिऽदोषम्। अस्थात्। अयःऽहनुः। यजतः। मन्द्रऽजिह्वः। आ। दाशुषे। सुवति। भूरि। वामम् ॥४॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 71; मन्त्र » 4
अष्टक » 5; अध्याय » 1; वर्ग » 15; मन्त्र » 4
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अष्टक » 5; अध्याय » 1; वर्ग » 15; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वयः
हे मनुष्या ! यो दमूना हिरण्यपाणिरयोहनुर्यजतो मन्द्रजिह्वः सविता देवः प्रतिदोषं सूर्य इव प्रजापालनायोदस्थाद्दाशुषे भूरि वाममा सुवति स्य उ राजा भवितुमर्हेत् ॥४॥
पदार्थः
(उत्) (उ) (स्यः) सः (देवः) सुखदाता विद्वान् (सविता) ऐश्वर्य्यप्रदः (दमूनाः) दमनशीलः (हिरण्यपाणिः) हिरण्यादिकं सुवर्णं पाणौ यस्य सः (प्रतिदोषम्) यथा रात्रिं रात्रिं प्रति सूर्यस्तथा (अस्थात्) उत्तिष्ठेत् (अयोहनुः) अयो लोहमिव दृढा हनुर्यस्य सः (यजतः) सङ्गन्ता (मन्द्रजिह्वः) मन्द्रा आनन्दप्रदा कमनीया जिह्वा वाणी यस्य सः (आ) (दाशुषे) दात्रे प्रजाजनाय (सुवति) उद्योगे प्रेरयति (भूरि) (वामम्) प्रशस्यं कर्म प्रति ॥४॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्या ! यथेश्वरेण नियुक्तः सूर्य्यलोकः प्रतिक्षणं स्वक्रियां न जहाति तथैव यो राजा न्यायेन राज्यपालनाय प्रतिक्षणमुद्युक्तो भवत्येकक्षणमपि व्यर्थं न नयति सर्वान् मनुष्यानुत्तमेषु कर्मसु स्वयं वर्त्तित्वा प्रेरयति स एव शमदमादिशुभगुणाढ्यो राजा भवितुमर्हतीति सर्वे विजानन्तु ॥४॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे मनुष्यो ! जो (दमूनाः) दमनशील (हिरण्यपाणिः) सुवर्ण आदि हाथ में लिये हुए (अयोहनुः) लोहे के समान दृढ़ ठोढ़ी रखने और (यजतः) सङ्ग करनेवाला (मन्द्रजिह्वः) जिसकी आनन्द देनेवाली वाणी विद्यमान वह (सविता) ऐश्वर्य्यदाता और (देवः) सुख देनेहारा विद्वान् (प्रतिदोषम्) जैसे रात्रि-रात्रि के प्रति सूर्य्य उदय होता है, वैसे प्रजा पालन करने के लिये (उत, अस्थात्) उठता है तथा (दाशुषे) दान करनेवाले के लिये (भूरि) बहुत (वामम्) प्रशंसा योग्य कर्म के प्रति (आ, सुवति) उद्योग करने में प्रेरणा देता है (स्यः, उ) वही राजा होने को योग्य होता है ॥४॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जैसे ईश्वर से नियुक्त किया सूर्यलोक प्रतिक्षण अपनी क्रिया को नही छोड़ता, वैसे ही जो राजा न्याय से राज्य पालने के लिये प्रतिक्षण उद्योग करता है, एक क्षण भी व्यर्थ नहीं खोता तथा सब मनुष्यों को उत्तम कर्मों के बीच आप वर्त्ताव कर उन्हें प्रेरणा देता है, वही शम-दम आदि शुभ गुणों से युक्त राजा होने योग्य है, यह सब जानें ॥४॥
विषय
अपराध को न सहे ।
भावार्थ
( सविता देवः प्रतिदोषम् उत् अस्थात् ) जिस प्रकार प्रकाशमान सूर्य प्रतिरात्रि की समाप्ति पर उदय होता है, उसी प्रकार ( स्यः देवः ) वह तेजस्वी दानशील, ( सविता ) उत्तम शासक, ( दमूनाः) मन इन्द्रियों पर दमन करने वाला, ( हिरण्य-पाणिः ) सुवर्णादि धन को अपने हाथ में, अपने वश में रखने वाला होकर (प्रति-दोषम् ) प्रति दिन, वा प्रत्येक दोष वा दुष्टों के प्रत्येक अपराध पर (अस्थात् ) उठ खड़ा हो, वह ( अयोहनुः ) लोहे के बने अस्त्रों शस्त्रों से शत्रु का हनन करने वाला सेना का स्वामी, ( यजतः ) पूज्य एवं सत्संगयोग्य वृत्तिदाता, ( मन्द्र जिह्वः ) सबको प्रसन्न करने वाली वाणी को बोलने वाला होकर (दाशुषे) आत्मसमर्पक भृत्य वा करप्रद प्रजाजन के उपकार के लिये ( भूरिवामम् आसुवति ) बहुत सा उत्तम ऐश्वर्य प्रदान करे ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ॥ सविता देवता ॥ छन्दः – १ जगती । २, ३ निचृज्जगती । ४ त्रिष्टुप् । ५, ६ निचृत्त्रिष्टुप् । षडृचं सूक्तम् ।।
विषय
'हिरण्यपाणि अयोहनु' सूर्य
पदार्थ
[१] (स्यः) = वह (देवः सविता) = प्रकाशमय सूर्य (प्रतिदोषम्) = प्रत्येक रात्रि की समाप्ति पर (उत् उ अस्थात्) = उदय होता ही है। यह सूर्य (दमूना:) = दान के मनवाला होता है, हमारे लिये प्रकाश व प्राणशक्ति को देना चाहता है। (हिरण्यपाणिः) = इसके किरण रूप हाथों में स्वर्ण होता है, यह प्रातः का सूर्य अपने किरणरूप हाथों से स्वर्ण का हमारे शरीर में प्रवेश कराता है। [२] यह (अयोहनुः) = लोहे के बने अस्त्रवाला है [हनु = weapon] अपने लोहास्त्र से सब रोगकृमियों का संहार करता है। (यजतः) = इसीलिए संगतिकरण योग्य है, हम सूर्य के सम्पर्क में आयेंगे, तो सूर्य का रोगकृमियों का संहार करेगा। (मन्द्रजिह्वः) = यह मोदमान वाणीवाला है, हमारी जिह्वा को उत्तम बनानेवाला है। (दाशुषे) = यज्ञशील पुरुष के लिये यह (भूरि) = बहुत (वामम्) = सुन्दर धन को (आसुवति) = प्रेरित करता है, प्राप्त कराता है। सूर्योदय होने पर सूर्याभिमुख होकर यज्ञ करनेवाले पुरुष को यह सूर्य स्वास्थ्य आदि सुन्दर धनों को प्राप्त कराता है।
भावार्थ
भावार्थ – सूर्य अपनी किरणों से हमारे शरीर में स्वर्ण का प्रवेश करता है। यह अपने किरणरूप लोहास्त्रों से रोग कृमियों का नाश करता है, हमारी जिह्वा को उत्तम मधुर शब्द बोलनेवाली बनाता है।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! ईश्वराने नियुक्त केलेला सूर्यलोक प्रतिक्षण आपले कार्य करतो, त्याचा त्याग करीत नाही. तसेच तो राजा न्यायाने राज्याचे पालन करण्यासाठी प्रतिक्षण उद्योग करतो. एकही क्षण व्यर्थ घालवीत नाही व स्वतःचे वर्तन चांगले ठेवून सर्व माणसांना प्रेरणा देतो तोच शम दम इत्यादी शुभ गुणांनी युक्त राजा होण्यायोग्य आहे, हे सर्वांनी जाणावे. ॥ ४ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
That brilliant and generous lord Savita of yajnic action, inspiration and advancement, golden generous of hands and honeyed sweet of animating voice, wearing a steel helmet, rises like the sun every day after night and abides by us, and blesses the generous giver and yajaka with abundant wealth, honour and graces of life. A friend and protector of the home and family, no one dare oppress, suppress or terrorize him.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The same subject of king and his duties-is continued.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men! that man alone is fit to become a ruler, who is self-controlled, who has gold ornaments in his hands, who possesses firm chin, like the iron, who is unifier endowed with delighting and desirable tongue, giver of happiness and prosperity, who stands up for nourishing his subjects, as the sun rises after night. He urges his liberal subjects to do admirable deeds industriously.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O men! you should all know that as the solar world, created and ordained by God never gives up its function even for a moment, in the same manner, the king who is ever ready to protect and nourish his subjects and does not waste a single moment, who urges upon all men to do noble deeds by his own example and who is rich, is in peace, self-control and has other good virtues is fit to become a king.
Foot Notes
(दमूना:) दमनशीलः । दमूना दममना वा दानमना वादान्तमना वापि (NKT 4, 1, 4) = Self-controlled. (प्रतिदोषम्) यथा रात्रि रात्रि प्रति सूर्यस्तथा । दोषा इति रात्रिनाम (NG 1, 7 ) = As the sun rises after night. (वामम्) प्रशस्यं कर्म प्रति । वामः इति प्रशंस्यनाम (NG 8, 5 ) = Towards an admirable work.
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