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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 72 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 72/ मन्त्र 4
    ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः देवता - इन्द्रासोमौ छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    इन्द्रा॑सोमा प॒क्वमा॒मास्व॒न्तर्नि गवा॒मिद्द॑धथुर्व॒क्षणा॑सु। ज॒गृ॒भथु॒रन॑पिनद्धमासु॒ रुश॑च्चि॒त्रासु॒ जग॑तीष्व॒न्तः ॥४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्रा॑सोमा । प॒क्वम् । आ॒मासु॑ । अ॒न्तः । नि । गवा॑म् । इत् । द॒ध॒थुः॒ । व॒क्षणा॑सु । ज॒गृ॒भथुः॑ । अन॑पिऽनद्धम् । आ॒सु॒ । रुश॑त् । चि॒त्रासु॑ । जग॑तीषु । अ॒न्तरिति॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्रासोमा पक्वमामास्वन्तर्नि गवामिद्दधथुर्वक्षणासु। जगृभथुरनपिनद्धमासु रुशच्चित्रासु जगतीष्वन्तः ॥४॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्रासोमा। पक्वम्। आमासु। अन्तः। नि। गवाम्। इत्। दधथुः। वक्षणासु। जगृभथुः। अनपिऽनद्धम्। आसु। रुशत्। चित्रासु। जगतीषु। अन्तरिति ॥४॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 72; मन्त्र » 4
    अष्टक » 5; अध्याय » 1; वर्ग » 16; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तौ किंवत् किं कुर्यातामित्याह ॥

    अन्वयः

    हे अध्यापकोपदेशकौ ! युवां यथेन्द्रसोमा आमास्वन्तः पक्वं नि दधथुर्गवामिदासु वक्षणास्वनपिनद्धं जगृभथुरासु चित्रासु जगतीष्वन्तो रुशद्दधथस्तथा युवां वर्त्तेयाथाम् ॥४॥

    पदार्थः

    (इन्द्रसोमा) वायुविद्युतौ (पक्वम्) (आमासु) अपक्वासु ओषधीषु (अन्तः) मध्ये (नि) (गवाम्) किरणानाम् (इत्) एव (दधथुः) धत्तः (वक्षणासु) नदीषु (जगृभथुः) गृह्णीतः। अत्र सर्वत्र व्यत्ययः। (अनपिनद्धम्) अनाच्छादितम् (आसु) (रुशत्) सुरूपम्। (चित्रासु) अद्भुतासु (जगतीषु) सृष्टिषु (अन्तः) मध्ये ॥४॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये विद्युत्सोमवत्सर्वे दृढं ज्ञानं संस्थाप्य नदीप्रवाहवदग्रे चालयन्ति ते जगति कल्याणकरा भवन्ति ॥४॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर वे किसके तुल्य क्या करें, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे अध्यापक और उपदेशको ! तुम दोनों जैसे (इन्द्रासोमा) पवन और बिजुली (आमासु) न पकी हुई सामग्रियों के (अन्तः) बीच (पक्वम्) पाक को (नि, दधथुः) स्थापन करते हैं और (गवाम्) किरणों के बीच (इत्) निश्चित तथा (आसु) इन (वक्षणासु) नदियों में (अनपिनद्धम्) खुला हुआ (जगृभथुः) ग्रहण करते हैं तथा इन (चित्रासु) अद्भुत (जगतीषु) सृष्टियों के (अन्तः) बीच (रुशत्) सुरूप को धारण करते हैं, वैसे तुम वर्तो ॥४॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो बिजुली और सोम के समान सब में दृढ़ ज्ञान स्थापन कर नदी के प्रवाह के तुल्य आगे चलाते हैं, वे संसार में कल्याण करनेवाले होते हैं ॥४॥

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    विषय

    परिपक्व वीर्य से सन्तान उत्पन्न करें ।

    भावार्थ

    हे ( इन्द्र-सोमा) सूर्य चन्द्रवत् वा, वायु विद्युत्वत् युगल जनो ! जिस प्रकार ( आमासु अन्तः पक्कम् निदधथुः ) सूर्य वायु वा सूर्य चन्द्र कच्ची ओषधि में परिपक्व रस प्रदान करते हैं और जिस प्रकार ( गवां वक्षणासु जलं नि दधथुः ) भूमियों के बीच बहती नदियों में वायु और मेघ जल प्रदान करते हैं उसी प्रकार आप दोनों भी (आमासु) सह धर्मचारिणी दाराओं में (पक्वम् वीर्यं नि दधथुः) परिपक्व वीर्य का आधान करो और ( गवाम् ) गमन योग्य धर्मदाराओं के ( वक्षणासु अन्तः ) कोखों में ही विद्यमान गर्भ, शिशु आदि को ( नि दधथुः ) पालन करो। ( आसु ) उनके बीच में सब उत्तम व्यवहार (अनपिनद्धम्) बन्धन रहित, स्पष्ट रूप से (जगृभथुः) ग्रहण करो। और (चित्रासु जगतीषु अन्तः ) अद्भुत सृष्टियों के बीच ( रुशत् ) सुरूप, तेजोयुक्त पदार्थ को ( जगृभथुः ) ग्रहण कराओ ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ॥ इन्द्रासोमौ देवते ॥ छन्दः - १ निचृत्त्रिष्टुप् । २, ४, ५ विराट् त्रिष्टुप् । ३ निचृत्त्रिष्टुप् ॥ पञ्चर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    सूर्य व चन्द्र के द्वारा गौवों परिपक्व दुग्ध की स्थापना

    पदार्थ

    [१] 'इन्द्र' सूर्य है तो 'सोम' चन्द्रमा । ये (इन्द्रासोमा) = सूर्य और चन्द्र (गवाम्) = गौवों के (आमासु) = अपरिपक्व (वक्ष्णासु अन्तः) = ऊधस् प्रदेशों में (पक्वम्) = पक्व [गर्म] दुग्ध को (इत्) = निश्चय से (निदधथुः) = धारण करते हैं। सूर्य अपनी किरणों के द्वारा दुग्ध में प्राणशक्ति की स्थापना करता है और चन्द्रमा इस दुग्ध को रसमय बनाता है। सूर्य और चन्द्र मिलकर दूध का ठीक से परिपाक करते हैं । [२] (आसु) = इन (चित्रासु) = भिन्न-भिन्न वर्णोंवाली (जगतीषु) = गौवों के (अन्तः) = अन्दर अन (पिनद्धम्) = किसी से न बाँधे गये (रुशत्) = देदीप्यमान दूध को (जगृभथुः) = धारण करते हैं। इस प्रकार धारण करते हैं कि वह दूध स्वयं पृथिवी पर टपक नहीं पड़ता। यह सब साधारण-सी बात है। परन्तु इसमें भी प्रभु की रचना का महत्त्व स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु ने सूर्य व चन्द्र के द्वारा गौवों के अपरिपक्व ऊधस् प्रदेशों में परिपक्व दूध की स्थापना की है। (अनपिनद्ध) = न बँधे हुए इस (ऊधस्) = में वह देदीप्यमान दुग्ध को इस प्रकार स्थापित करता है यह दूध पृथिवी पर नहीं पड़ता।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे विद्युत व वायूप्रमाणे सर्वांमध्ये दृढ ज्ञान स्थापित करतात व नदीच्या प्रवाहाप्रमाणे पुढे प्रवाहित करतात ते जगाचे कल्याणकर्ते असतात. ॥ ४ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Lords of sun light and vital energy, you infuse the unripe forms of vegetation with ripe herbal juice, the udders of cows with delicious milk, the flowing streams with energising waters, and you concentrate the unbound energy of sun rays and put this shining vitality into these various and wonderful forms of existence.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What should they do like whom is told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O teachers and preachers ! as the air and electricity ripen the unripe herbs and plants and uncover the rays of the sun in these rivers, establish good (lovely) form in these wonderful creations, so you should also do.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those persons are benevolent to all and auspicious, who like the electricity and air establish firm knowledge in all and make them move like the flow of the river.

    Foot Notes

    (गवाम्) किरणानाम् । गाव: इति रश्मिनाम (NG 1,5) = Of the rays of the sun. (अनपिनद्धम् ) अनाच्छादितम् । अह-बन्धने (दिवा.) = Uncovered.

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