ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 11/ मन्त्र 2
त्वामी॑ळते अजि॒रं दू॒त्या॑य ह॒विष्म॑न्तः॒ सद॒मिन्मानु॑षासः। यस्य॑ दे॒वैरास॑दो ब॒र्हिर॒ग्नेऽहा॑न्यस्मै सु॒दिना॑ भवन्ति ॥२॥
स्वर सहित पद पाठत्वाम् । ई॒ळ॒ते॒ । अ॒जि॒रम् । दू॒त्या॑य । ह॒विष्म॑न्तः । सद॑म् । इत् । मानु॑षासः । यस्य॑ । दे॒वैः । आ । अस॑दः । ब॒र्हिः । अ॒ग्ने॒ । अहा॑नि । अ॒स्मै॒ । सु॒ऽदिना॑ । भ॒व॒न्ति॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वामीळते अजिरं दूत्याय हविष्मन्तः सदमिन्मानुषासः। यस्य देवैरासदो बर्हिरग्नेऽहान्यस्मै सुदिना भवन्ति ॥२॥
स्वर रहित पद पाठत्वाम्। ईळते। अजिरम्। दूत्याय। हविष्मन्तः। सदम्। इत्। मानुषासः। यस्य। देवैः। आ। असदः। बर्हिः। अग्ने। अहानि। अस्मै। सुऽदिना। भवन्ति ॥२॥
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 11; मन्त्र » 2
अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 14; मन्त्र » 2
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अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 14; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्मनुष्यैः किं कर्त्तव्यमित्याह ॥
अन्वयः
हे अग्ने ! यस्य ते देवैरासदो बर्हिः प्राप्यते अस्मै तेऽहानि सुदिना भवन्ति यथा हविष्मन्तो मानुषासो दूत्याय सदमिदजिरमग्निमीळते तथैते त्वामित्सततं स्तुवन्तु ॥२॥
पदार्थः
(त्वाम्) (ईळते) स्तुवन्ति (अजिरम्) प्रक्षेप्तारम् (दूत्याय) दूतकर्मणे (हविष्मन्तः) प्रशस्तसामग्रीयुक्ताः (सदम्) यः सीदति तम् (इत्) एव (मानुषासः) मनुष्याः (यस्य) (देवैः) विद्वद्भिः (आ) (असदः) प्राप्तव्यम् (बर्हिः) उत्तमं वर्धकं विज्ञानम् (अग्ने) पावक इव स्वप्रकाशेश्वर (अहानि) दिनानि (अस्मै) विदुषे (सुदिना) शोभनानि दिनानि येषु तानि (भवन्ति) ॥२॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्या ! यथा सामग्रीमन्तोऽग्निविद्यां प्राप्य सततमानन्दिता भवन्ति तथैवेश्वरं प्राप्य सततं श्रीमन्तो जायन्ते ॥२॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर मनुष्यों को क्या करना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (अग्ने) अग्नि के तुल्य स्वयंप्रकाशस्वरूप ईश्वर (यस्य) जिस आप के (देवैः) विद्वानों से (आ, असदः) प्राप्त होने योग्य (बर्हिः) सुखवर्द्धक विज्ञान प्राप्त होता है (अस्मै) इस विद्वान् के लिये आप के (अहानि) दिन (सुदिना) सुदिन (भवन्ति) होते हैं जैसे (हविष्मन्तः) प्रशस्त सामग्रीवाले (मानुषासः) मनुष्य (दूत्याय) दूतकर्म के लिये (सदम्, इत्) स्थिर होनेवाले (अजिरम्) फैंकनेहारे अग्नि की (ईळते) स्तुति करते हैं, वैसे ये लोग (त्वाम्) आपकी निरन्तर स्तुति करें ॥२॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जैसे सामग्रीवाले अग्निविद्या को प्राप्त होके निरन्तर आनन्दित होते हैं, वैसे ईश्वर को प्राप्त होके निरन्तर श्रीमान् होते हैं ॥२॥
विषय
शत्रुनाशक दूतवत् शासक ।
भावार्थ
हे (अग्ने ) तेजस्विन् ! ( हविष्मन्तः मानुषासः ) अन्नादि साधनों वाले मनुष्य ( सदम् इत् ) स्थिरता से विराजने वाले (अजिरम्) शत्रुओं को उखाड़ फेंकने वाले ( त्वाम् ) तुझको ( दूत्याय ) उत्तम दूत कर्म और शत्रु संतापन के कार्य के लिए (ईडते ) प्रार्थना करते और चाहते हैं । ( यस्य ) जिसका (बर्हिः ) बड़ा राष्ट्र ( देवैः आ सदः ) विद्वान् पुरुषों द्वारा शासित होता है, ( अस्मै ) उसके ही ( अहानि ) सब दिन ( सुदिना भवन्ति ) उत्तम होते हैं। या जिस विद्वान् का वृद्धिकारक ज्ञान विद्या के इच्छुक विद्वानों द्वारा ग्राह्य होता है वे उस दिन सुखदायक होते हैं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः । अग्निर्देवता ।। छन्दः - १ स्वराद् पंक्ति: । २, ४ भुरिक् पंक्तिः । ३ विराट् त्रिष्टुप् । ५ निचृत्त्रिष्टुप् ।। पञ्चर्चं सूक्तम्
विषय
शुभ दिन
पदार्थ
[१] हे (अग्ने) = अग्रेणी प्रभो ! (हविष्मन्तः) = हविवाले- त्यागपूर्वक अदनवाले (मानुषास:) = विचारशील लोग (सदम् इत्) = सदा ही दूत्यायदूत कर्म के लिये, ज्ञान का सन्देश प्राप्त लिये (अजिरम्) = गति के द्वारा सब बुराइयों को परे फेंकनेवाले (त्वाम्) = आपको (ईडते) = उपासित करते हैं। हम ज्ञान सन्देश प्राप्त करने के लिये उस अजिर अग्नि का उपासन करें उससे ज्ञान-सन्देश प्राप्त करें। सदा विचारशील बनकर हविवाले हों। मस्तिष्क के लिये ज्ञान, हाथों से यज्ञ। [२] हे प्रभो ! (यस्य) = जिस भी उपासक के (बर्हिः) = वासनाशून्य हृदय में आप (देवै:) = देवों के साथ (आसद:) = आसीन होते हैं (अस्मै) = इसके लिये (अहानि) = सब दिन सुदिना शुभ दिन भवन्ति हो जाते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- हम त्यागपूर्वक अदनवाले विचारशील उपासक बनें। हमारे हृदयों में देवों के साथ प्रभु का वास हो। इस प्रकार हमारे सब दिन शुभ दिन हों।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! जसे सामग्री बाळगणारे लोक अग्निविद्या प्राप्त करून निरंतर आनंदित होतात तसेच ईश्वराला प्राप्त करून निरंतर श्रीमंत होतात. ॥ २ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
People of the world with offers of homage and havi always invoke and adore you, unaging and immortal Agni, for the sake of radiation and communication. When you come and grace the seats of yajna with the powers of nature’s divinity, whosoever be the man, all the days of life turn into days of good fortune for him.
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