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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 11 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 11/ मन्त्र 5
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - अग्निः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    आग्ने॑ वह हवि॒रद्या॑य दे॒वानिन्द्र॑ज्येष्ठास इ॒ह मा॑दयन्ताम्। इ॒मं य॒ज्ञं दि॒वि दे॒वेषु॑ धेहि यू॒यं पा॑त स्व॒स्तिभिः॒ सदा॑ नः ॥५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । अ॒ग्ने॒ । व॒ह॒ । ह॒विः॒ऽअद्या॑य । दे॒वान् । इन्द्र॑ऽज्येष्ठासः । इ॒ह । मा॒द॒य॒न्ता॒म् । इ॒मम् । य॒ज्ञम् । दि॒वि । दे॒वेषु॑ । धे॒हि॒ । यू॒यम् । पा॒त॒ । स्व॒स्तिऽभिः॑ । सदा॑ । नः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आग्ने वह हविरद्याय देवानिन्द्रज्येष्ठास इह मादयन्ताम्। इमं यज्ञं दिवि देवेषु धेहि यूयं पात स्वस्तिभिः सदा नः ॥५॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ। अग्ने। वह। हविःऽअद्याय। देवान्। इन्द्रऽज्येष्ठासः। इह। मादयन्ताम्। इमम्। यज्ञम्। दिवि। देवेषु। धेहि। यूयम्। पात। स्वस्तिऽभिः। सदा। नः ॥५॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 11; मन्त्र » 5
    अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 14; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे अग्ने ! त्वमद्याय देवान् हविरावह तेनेहेन्द्रज्येष्ठासो जना मादयन्तां त्वमिमं यज्ञं दिवि देवेषु धेहि हे विद्वांसो ! यूयं स्वस्तिभिर्नः सदा पात ॥५॥

    पदार्थः

    (आ) समन्तात् (अग्ने) वह्निरिव विद्वन् (वह) सर्वतः प्रापय (हविः) अत्तुमर्हम् (अद्याय) अत्तुं योग्याय (देवान्) विदुषः (इन्द्रज्येष्ठासः) इन्द्रो राजा ज्येष्ठो येषान्ते (इह) अस्मिन्समये (मादयन्ताम्) आनन्दयन्तु (इमम्) वर्त्तमानम् (यज्ञम्) धर्म्यं व्यवहारम् (दिवि) द्योतनात्मके परमात्मनि (देवेषु) विद्वत्सु (धेहि) यूयम् (पात) (स्वस्तिभिः) सुखैः (सदा) (नः) अस्मान् ॥५॥

    भावार्थः

    हे विद्वांसो ! यथाग्निः सूर्यादिरूपेण सर्वानानन्दयति तथाऽत्र यूयं सर्वान् संरक्ष्य कर्त्तव्यं कारयित्वेष्टान् भोगान् प्रापयतेति ॥५॥ अत्राग्निविद्वत्कृत्यवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इत्येकादशं सूक्तं चतुर्दशो वर्गश्च समाप्तः ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (अग्ने) अग्नि के तुल्य तेजस्वि विद्वन् ! आप (अद्याय) भोगने योग्य वस्तु के लिये (देवान्) विद्वानों (हविः) भोजन योग्य अन्न को (आ, वह) अच्छे प्रकार प्राप्त कीजिये उससे (इह) इस समय (इन्द्रज्येष्ठासः) जिन में राजा श्रेष्ठ है वे मनुष्य (मादयन्ताम्) आनन्दित करें आप (इमम्) इस यज्ञम् धर्मयुक्त व्यवहार को (दिवि) द्योतनस्वरूप परमात्मा और (देवेषु) विद्वानों में (धेहि) धारण करो, हे विद्वानो ! (यूयम्) तुम लोग (स्वस्तिभिः) सुखों से (नः) हमारी (सदाः) सदा (पात) रक्षा करो ॥५॥

    भावार्थ

    हे विद्वानो ! जैसे अग्नि सूर्यादिरूप से सब को आनन्दित करता है, वैसे इस जगत् में तुम सब लोगों की रक्षा कर और कर्त्तव्य को कराके अभीष्ट लोगों को प्राप्त कराओ ॥५॥ इस सूक्त में अग्नि और विद्वानों का कृत्य वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह ग्यारहवाँ सूक्त और चौदहवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥

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    विषय

    उसके कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    हे ( अग्ने ) विद्वन् ! हे तेजस्विन् ! ( देवान् ) विद्वान् पुरुषों को ( अद्याय ) खाने के लिये ( हविः आ वह ) उत्तम अन्न प्राप्त करा । अथवा ( हविः-अद्याय) उत्तम अन्नादि भोजन कराने के लिये ( देवान् आ वह ) उत्तम विद्वान् पुरुषों को प्राप्त कर । ( इह ) इस राष्ट्र में ( इन्द्र-ज्येष्ठासः ) राजा को अपना मुख्य मानने वाले प्रजाजन ( मादयन्ताम् ) यहां प्रसन्नतापूर्वक जीवन व्यतीत करें । हे विद्वान्, राजन्, ( इमं यज्ञं) इस यज्ञ को ( दिवि ) प्रकाशस्वरूप परमेश्वर और ( देवेषु ) विद्वान्, पुरुषों के आश्रय पर ( धेहि ) स्थापित कर । हे विद्वान् पुरुषो ! ( यूयं ) तुम सब लोग ( नः ) हमें ( सदा ) सर्वदा ( स्वस्तिभिः पात ) सुख कल्याणकर साधनों से पालन करो । इति चतुर्दशो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषिः । अग्निर्देवता ।। छन्दः - १ स्वराद् पंक्ति: । २, ४ भुरिक् पंक्तिः । ३ विराट् त्रिष्टुप् । ५ निचृत्त्रिष्टुप् ।। पञ्चर्चं सूक्तम्

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    विषय

    दिव्यजीवन

    पदार्थ

    [१] हे (अग्ने) = अग्रणी प्रभो! आप (देवान्) = देववृत्ति के व्यक्तियों को (हविरद्याय) = हव्य पदार्थों के ही सेवन के लिये तथा दानपूर्वक अदन के लिये ही [हु दानादनयो:] (आवह) = प्राप्त कराइये। देव सदा हवि का ग्रहण करनेवाले हों, दानपूर्वक अदन करें। इह इस हमारे जीवन में (इन्द्रज्येष्ठास:) = परमैश्वर्यशाली प्रभु जिनमें ज्येष्ठ हैं वे सब देव (मादयन्ताम्) = आनन्दित करनेवाले हों, अर्थात् हमारे जीवन में प्रभु का भी धारण हो और हम सब दिव्यगुणों को धारण करनेवाले बनें। [२] (इयं यज्ञम्) = इस यज्ञ को (दिवि) = ज्ञान के प्रकाश के होने पर (देवेषु) = इन देववृत्ति के व्यक्तियों में (धेहि) = धारण करिये। देववृत्ति के व्यक्ति ज्ञान व यज्ञ को अपनाते हैं। यूयम् आप (नः) = हमें (सदा) = सदा (स्वस्तिभिः) = कल्याणों के द्वारा पात सुरक्षित करो। शुभ मार्ग पर चलते हुए हम कल्याणभाक् हों ।

    भावार्थ

    भावार्थ- देव प्रभु को व दिव्यगुणों को धारण करते हैं। वे ज्ञान व यज्ञ को अपनाते हैं। सदा शुभ मार्ग का आक्रमण करते हैं। अगले सूक्त में भी वसिष्ठ अग्नि का उपासन करते हैं -

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे विद्वानांनो ! जसा अग्नी सूर्य इत्यादींच्या रूपाने सर्वांना आनंदित करतो तसेच या जगात तुम्ही सर्व लोकांचे रक्षण करून कर्तव्य करून अभीष्ट भोग प्राप्त करावा. ॥ ५ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Agni, scholar of the first order, light and fire of life, bring us the delicacies of yajnic production for the brilliant people so that they may taste them with delight and rejoice with the ruler on top. Take this yajna to the heights among the divinities. O holy ones, scholars and scientists, protect and promote us all time with gifts of peace, prosperity and all round well being.

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