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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 12 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 12/ मन्त्र 3
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - अग्निः छन्दः - पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः

    त्वं वरु॑ण उ॒त मि॒त्रो अ॑ग्ने॒ त्वां व॑र्धन्ति म॒तिभि॒र्वसि॑ष्ठाः। त्वे वसु॑ सुषण॒नानि॑ सन्तु यू॒यं पा॑त स्व॒स्तिभिः॒ सदा॑ नः ॥३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वम् । वरु॑णः । उ॒त । मि॒त्रः । अ॒ग्ने॒ । त्वाम् । व॒र्ध॒न्ति॒ । म॒तिऽभिः॑ । वसि॑ष्ठाः । त्वे इति॑ । वसु॑ । सु॒ऽस॒ण॒नानि॑ । स॒न्तु॒ । यू॒यम् । पा॒त॒ । स्व॒स्तिऽभिः॑ । सदा॑ । नः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वं वरुण उत मित्रो अग्ने त्वां वर्धन्ति मतिभिर्वसिष्ठाः। त्वे वसु सुषणनानि सन्तु यूयं पात स्वस्तिभिः सदा नः ॥३॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वम्। वरुणः। उत। मित्रः। अग्ने। त्वाम्। वर्धन्ति। मतिऽभिः। वसिष्ठाः। त्वे इति। वसु। सुऽसणनानि। सन्तु। यूयम्। पात। स्वस्तिऽभिः। सदा। नः ॥३॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 12; मन्त्र » 3
    अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 15; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स उपासितः किं करोतीत्याह ॥

    अन्वयः

    हे अग्ने ! ये वसिष्ठा मतिभिस्त्वां वर्धन्ति तेषां त्वे प्रीतिमतां वसु सुषणनानि सन्तु। यस्त्वं वरुण उत मित्रोऽसि सोऽस्मान् सदा पातु हे विद्वांसो ! यूयं जगदीश्वरवन्नोऽस्मान् स्वस्तिभिस्सदा पात ॥३॥

    पदार्थः

    (त्वम्) (वरुणः) वरः श्रेष्ठः (उत) अपि (मित्रः) सुहृत् (अग्ने) अग्निरिव स्वप्रकाशेश्वर (त्वाम्) (वर्धन्ति) वर्धयन्ति (मतिभिः) प्रज्ञाभिः (वसिष्ठाः) सकलविद्यास्वतिशयेन वासकर्त्तारः (त्वे) त्वयि (वसु) द्रव्यम् (सुषणनानि) सुष्ठु विभाजितानि (सन्तु) (यूयम्) (पात) (स्वस्तिभिः) स्वास्थक्रियाभिः (सदा) (नः) अस्मान् ॥३॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्या ! यथा विद्वद्भिः संवर्धितोऽग्निर्द्रारिद्र्यं विनाशयति तथैवोपासितः परमेश्वरोऽज्ञानं निवर्तयति यथाऽऽप्ताः सर्वान् सदा रक्षन्ति तथैव परमात्मा सकलं विश्वं पातीति ॥३॥ अत्राऽग्नीश्वरविद्वद्गुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सहसङ्गतिर्वेद्या ॥ इति द्वादशं सूक्तं पञ्चदशो वर्गश्च समाप्तः ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर वह उपासना किया ईश्वर क्या करता है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (अग्ने) अग्नि के तुल्य स्वयं प्रकाशस्वरूप ईश्वर ! जो (वसिष्ठाः) सब विद्याओं में अतिशय कर निवास करनेवाले (मतिभिः) बुद्धियों से (त्वाम्) तुमको (वर्धन्ति) बढ़ाते हैं उन (त्वे) आप में प्रीतिवालों के (वसु) द्रव्य (सुषणनानि) सुन्दर विभाग किये (सन्तु) हों जो (त्वम्) आप (वरुणः) श्रेष्ठ (उत) और (मित्रः) मित्र है सो आप हमारी (सदा) सदा रक्षा करो और हे विद्वानो ! (यूयम्) तुम लोग ईश्वर के तुल्य (नः) हमारी (स्वस्तिभिः) स्वस्थता सम्पादक क्रियाओं से (सदा) सदा (पात) रक्षा करो ॥३॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जैसे विद्वानों से सम्यक् बढ़ाया हुआ अग्नि दरिद्रता का विनाश करता है, वैसे ही उपासना किया परमेश्वर अज्ञान को निवृत्त करता है। जैसे आप्त लोग सब की सदा रक्षा करते हैं, वैसे परमात्मा सब संसार की रक्षा करता है ॥३॥ इस सूक्त में अग्नि, ईश्वर और विद्वानों के गुणों का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की इससे पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह बारहवाँ सूक्त और पन्द्रहवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥

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    विषय

    वही वरुण, मित्र है।

    भावार्थ

    हे ( अग्ने ) अग्निवत् स्वप्रकाश प्रभो ! ( त्वं वरुणः ) सर्व श्रेष्ठ, सबसे चाहने, वरने योग्य और सब दुःखों के वारण करने और सबको जीवन, आत्मधनादि का न्यायपूर्वक विभाग करने से तू 'वरुण' है । ( उत मित्रः ) और तू ही सबको स्नेह करने और सब जीवों को मृत्यु से बचाने वाला होने से 'मित्र' है । ( वसिष्ठाः ) उत्तम वसु, विद्याओं में निवास करने, रमने वाले विद्वान् ( मतिभिः ) अपनी मननशील बुद्धियों और वाणियों से ( त्वां वर्धन्ति ) तुझे बढ़ाते हैं, तेरी स्तुति कर तेरा गुण सर्वत्र फैलाते हैं । ( त्वे ) तेरे में ही समस्त ( वसु ) ऐश्वर्य (सु-सननानि ) उत्तमरीति से देने योग्य ( सन्तु ) हों । हे विद्वानो ! ( यूयम् ) आप लोग ( नः ) हमें (स्वस्तिभिः पात ) सुख कल्याणजनक उपायों से रक्षा करो । इति पञ्चदशो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषिः॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः – १ विराट् त्रिष्टुप् । २ त्रिष्टुप् । पंक्तिः ।। तृचं सूक्तम् ॥

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    विषय

    निर्देषता-स्नेह-सम्भजनीय धन

    पदार्थ

    [१] हे (अग्ने) = अग्रणी प्रभो ! (त्वम्) = आप (वरुणः) = हमारे से द्वेषों का निवारण करनेवाले हैं। (उत) = और (मित्रः) = [प्रमीते: त्रायकः] मृत्यु से बचानेवाले हैं। (त्वाम्) = आपको (वसिष्ठाः) = अपने निवास को उत्तम बनानेवाले लोग (मतिभिः) = मननीय स्तुतियों के द्वारा वर्धन्ति बढ़ाते हैं। [२] (त्वे) = आप में (वसु) = धन (सुषणनानि) = [सुभजनानि] उत्तमता से सेवनीय (सन्तु) = हों, अर्थात् आपकी उपासना करते हुए हम सम्भजनीय धनों को प्राप्त करें। (यूयम्) = आप (स्वस्तिभिः) = कल्याण के मार्गों के द्वारा (नः) = हमारा (सदा) = सदा (पात) = रक्षण करो।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु अपने उपासक को निर्देष व स्नेहवाला व मृत्यु से बचानेवाला बनाते हैं। उसके लिये सम्भजनीय धनों को प्राप्त कराते हैं । अगले सूक्त में वसिष्ठ 'वैश्वानर' नाम से प्रभु का स्तवन करते हैं -

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! जसा विद्वानांकडून सम्यक वाढलेला अग्नी दारिद्र्याचा नाश करतो तसा उपासना केलेला ईश्वर अज्ञान निवृत्त करतो. जसे आप्त विद्वान सर्वांचे सदैव रक्षण करतात तसा परमात्मा संपूर्ण जगाचे रक्षण करतो. ॥ ३ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O lord of light and life, Agni, you are the judge, you are the friend. Devotees and celebrants blest with settlement and prosperity exalt you with their will and wisdom. May those who repose their love and faith in you enjoy the gifts of your generosity. And may you all, scholars and leading lights, protect and promote us with peace, prosperity and all round well being of life.

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