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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 15 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 15/ मन्त्र 6
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - अग्निः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    सेमां वे॑तु॒ वष॑ट्कृतिम॒ग्निर्जु॑षत नो॒ गिरः॑। यजि॑ष्ठो हव्य॒वाह॑नः ॥६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सः । इ॒माम् । वे॒तु॒ । वष॑ट्ऽकृतिम् । अ॒ग्निः । जु॒ष॒त॒ । नः॒ । गिरः॑ । यजि॑ष्ठः । ह॒व्य॒ऽवाह॑नः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सेमां वेतु वषट्कृतिमग्निर्जुषत नो गिरः। यजिष्ठो हव्यवाहनः ॥६॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सः। इमाम्। वेतु। वषट्ऽकृतिम्। अग्निः। जुषत। नः। गिरः। यजिष्ठः। हव्यऽवाहनः ॥६॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 15; मन्त्र » 6
    अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 19; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः सोऽग्निः कीदृशोऽस्तीत्याह ॥

    अन्वयः

    हे मनुष्या ! स यजिष्ठो हव्यवाहनोऽग्निर्न इमां वषट्कृतिं गिरश्च वेतु तं यूयं जुषत ॥६॥

    पदार्थः

    (सः) (इमाम्) (वेतु) प्राप्नोतु (वषट्कृतिम्) सत्क्रियाम् (अग्निः) पावकः (जुषत) सेवध्वम् (नः) अस्माकम् (गिरः) वाचः (यजिष्ठः) अतिशयेन यष्टा (हव्यवाहनः) यो हव्यानि दातुमर्हाणि वहति प्राप्नोति सः ॥६॥

    भावार्थः

    हे मनुष्या ! योऽग्निः सम्प्रयोजितः सन्नस्माकं क्रियाः सेवते स युष्माभिस्सेवनीयः ॥६॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर वह अग्नि कैसा है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! (सः) वह (यजिष्ठः) अत्यन्त यज्ञकर्त्ता (हव्यवाहनः) देने योग्य पदार्थों को प्राप्त होनेवाला (अग्निः) पावक अग्नि (नः) हमारी (इमाम्) इस (वषट्कृतिम्) शुद्ध क्रिया को और (गिरः) वाणियों को (वेतु) प्राप्त हो उसको तुम लोग (जुषत) सेवन करो ॥६॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यो ! जो अग्नि सम्यक् प्रयुक्त किया हुआ हमारी क्रियाओं का सेवन करता वह तुम लोगों को सेवने योग्य है ॥६॥

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    विषय

    ज्ञानी पुरुषों से ज्ञान प्रकाश की याचना ।

    भावार्थ

    ( सः ) वह ( यजिष्ठः ) अतिपूज्य एवं दानशील, ( हव्यवाहनः ) ग्राह्य, स्वीकार करने योग्य अन्नादि पदार्थों को प्राप्त कराने वाला (सः) वह (अग्निः) अग्निवत् तेजस्वी, ज्ञानवान् पुरुष ( इमाम् ) इस ( नः ) हमारे किये ( वषट्-कृतिम् ) सत्कार को ( वेतु ) प्राप्त करे और - इसी प्रकार हे विद्वान् लोगो ! आप लोग ( नः ) हमारी वाणियों और सत्कार को (जुषत ) प्रेमपूर्वक स्वीकार करो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषिः ।। अग्निर्देवता ॥ छन्दः – १, ३, ७, १०, १२, १४ विराड्गायत्री । २, ४, ५, ६, ९, १३ गायत्री । ८ निचृद्गायत्री । ११ ,१५ आर्च्युष्णिक् ।। पञ्चदशर्चं सूकम् ॥

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    विषय

    ध्यान व अग्निहोत्र

    पदार्थ

    [१] (सः) = वे (अग्निः) = अग्रेणी प्रभु (नः) = हमारी-हमारे से की जानेवाली, (इमाम्) = इस (वषट्कृतिम्) = स्वाहाकृति को, यज्ञों को (वेतु) = चाहे, अर्थात् हम प्रभु प्रेरणा से सदा यज्ञ आदि उत्तम कर्मों में लगे रहें। वह अग्नि (नः गिरः) = हमारी इन स्तुतिवाणियों को (जुषत) = प्रीतिपूर्वक सेवन करे, अर्थात् हम प्रभु का प्रीतिपूर्वक उपासन करें। [२] वे प्रभु (यजिष्ठः) = अधिक से अधिक उपासनीय हैं। (हव्यवाहनः) = सब अग्निकुण्ड में डाले गये इन हव्यों को अग्नि के द्वारा सब देवों में पहुँचानेवाले हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम प्रातः प्रबुद्ध होकर उस यजिष्ठ प्रभु का स्तवन करें तथा हव्यवाहन प्रभु की प्रीति के लिये हवन करें।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे माणसांनो ! जो सम्यक प्रयुक्त केलेला अग्नी आमच्या क्रिया ग्रहण करतो तो तुम्हीही ग्रहण करण्यायोग्य असतो. ॥ ६ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    May that friendly and most adorable Agni, receiver of oblations and disseminator of fragrance, accept with pleasure this offer of service and oblations of ours and accept with love our words of celebration and submission.

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