ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 26/ मन्त्र 4
ए॒वा तमा॑हुरु॒त शृ॑ण्व॒ इन्द्र॒ एको॑ विभ॒क्ता त॒रणि॑र्म॒घाना॑म्। मि॒थ॒स्तुर॑ ऊ॒तयो॒ यस्य॑ पू॒र्वीर॒स्मे भ॒द्राणि॑ सश्चत प्रि॒याणि॑ ॥४॥
स्वर सहित पद पाठए॒व । तम् । आ॒हुः॒ । उ॒त । शृ॒ण्वे॒ । इन्द्रः॑ । एकः॑ । वि॒ऽभ॒क्ता । त॒रणिः॑ । म॒घाना॑म् । मि॒थःऽतुरः॑ । ऊ॒तयः॑ । यस्य॑ । पू॒र्वीः । अ॒स्मे इति॑ । भ॒द्राणि॑ । स॒श्च॒त॒ । प्रि॒याणि॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
एवा तमाहुरुत शृण्व इन्द्र एको विभक्ता तरणिर्मघानाम्। मिथस्तुर ऊतयो यस्य पूर्वीरस्मे भद्राणि सश्चत प्रियाणि ॥४॥
स्वर रहित पद पाठएव। तम्। आहुः। उत। शृण्वे। इन्द्रः। एकः। विऽभक्ता। तरणिः। मघानाम्। मिथःऽतुरः। ऊतयः। यस्य। पूर्वीः। अस्मे इति। भद्राणि। सश्चत। प्रियाणि ॥४॥
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 26; मन्त्र » 4
अष्टक » 5; अध्याय » 3; वर्ग » 10; मन्त्र » 4
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अष्टक » 5; अध्याय » 3; वर्ग » 10; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः कोऽत्र राजा भवितुं योग्यो भवतीत्याह ॥
अन्वयः
यस्य पूर्वीर्मिथस्तुर ऊतयोऽस्मे प्रियाणि भद्राणि सश्चत य एको मघानां विभक्ता तरणिरिन्द्रो जीवो धर्मं सेवते तमेवाऽऽप्ता धार्मिकमाहुरुत तस्यैवोपदेशमहं शृण्वे ॥४॥
पदार्थः
(एवा) अत्र निपातस्य चेति दीर्घः। (तम्) (आहुः) कथयन्ति (उत) अपि (शृण्वे) (इन्द्रः) परमैश्वर्ययुक्तः (एकः) असहायः (विभक्ता) सत्याऽसत्ययोः विभाजकः (तरणिः) तारयिता (मघानाम्) धनानाम् (मिथस्तुरः) या मिथस्त्वरयन्ति ताः (ऊतयः) रक्षाः (यस्य) (पूर्वीः) पुरातन्यः (अस्मे) अस्मासु (भद्राणि) कल्याणकराणि कर्माणि (सश्चत) सेवन्तां सम्बध्नन्तु (प्रियाणि) कमनीयानि ॥४॥
भावार्थः
हे मनुष्या ! यस्य प्रशंसामाप्ता विद्वांसः कुर्य्युर्यस्य धर्म्याणि कर्माणि सर्वाः प्रजा इच्छेयुर्यो हि सत्यानृतयोर्यथावद्विभागं कृत्वा न्यायं कुर्य्यात् स एवाऽस्माकं राजा भवतु ॥४॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर कौन इस जगत् में राजा होने योग्य होता है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
(यस्य) जिसकी (पूर्वीः) पुरातन (मिथस्तुरः) परस्पर शीघ्रता करती हुई (ऊतयः) रक्षायें (अस्मे) हम लोगों में (प्रियाणि) मनोहर (भद्राणि) कल्याण करनेवाले काम (सश्चत) सम्बन्ध करें जो (एकः) एक (मघानाम्) धनों के (विभक्ता) सत्य असत्य का विभाग करने वा (तरणिः) तारनेवाला (इन्द्रः) परमैश्वर्य्ययुक्त जीव धर्म की सेवा करता है (तम्, एव) उसी को आप्त शिष्ट धर्मशील सज्जन धर्मात्मा (आहुः) कहते हैं (उत) निश्चय उसी का उपदेश मैं (शृण्वे) सुनता हूँ ॥४॥
भावार्थ
हे मनुष्यो ! जिसकी प्रशंसा आप्त विद्वान् जन करें वा जिसके धर्मयुक्त कर्मों को समस्त प्रजा प्रीति से चाहे, जो सत्य झूठ को यथावत् अलग कर न्याय करे, वही हमारा राजा हो ॥४॥
विषय
इन्द्र का सर्वोपरि पद । उसके न्यायशासन कर्त्तव्य ।
भावार्थ
( यस्य ) जिसके ( पूर्वी: ) सदा से विद्यमान ( मिथस्तुरः) परस्पर मिलकर अति शीघ्र कार्य करने वाली वा मिलकर शत्रु का नाश करने वाली, ( ऊतयः ) रक्षाएं, वा रक्षाकारणी सेनाएं, शक्तियें ( अस्मे ) हमें ( भद्राणि ) सुखजनक, ( प्रियाणि ) प्रिय ऐश्वर्य (सश्चत ) प्राप्त कराती हैं वह ( इन्द्रः ) ऐश्वर्यवान् प्रभु वा राजा ( एकः ) एक अद्वितीय, ( तरणिः ) सबको संकटों से पार उतारने वाला, ( मघानां विभक्ता ) नाना ऐश्वर्यों का न्यायपूर्वक विभाग करने वाला है ( तम् एव आहुः ) उसका ही लोग उपदेश करते हैं ( उत तम् एव शृण्वे ) और उसको ही मैं गुरुजनों से उपदेश कथाओं द्वारा श्रवण करूं वा उसके प्रति ही मैं कान देकर उसके ज्ञान, आज्ञा वचनादि सुनूं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषि: ।। इन्द्रो देवता ॥ छन्दः – १, २, ३, ४ त्रिष्टुप् । ५ निचृत्त्रिष्टुप् ॥ पञ्चर्चं सूक्तम् ॥
विषय
राजा न्यायकारी हो
पदार्थ
पदार्थ - (यस्य) = जिसके (पूर्वी:) = सदा से विद्यमान (मिथस्तुरः) = परस्पर मिलकर शीघ्र कार्य करनेवाली, (ऊतयः) = रक्षाएँ वा रक्षाकारिणी सेनाएँ (अस्मे) = हमें (भद्राणि) = सुखजनक, (प्रियाणि) = ऐश्वर्य (सश्चत) = प्राप्त कराती हैं वह (इन्द्रः) = ऐश्वर्यवान् राजा (एकः) = अद्वितीय (तरणिः) = संकटों से पार उतारनेवाला, (मघानां विभक्ता) = ऐश्वर्यों का विभाग करनेवाला है (तम् एव आहुः) = उसका ही लोग उपदेश करते हैं (उत तम् एव शृण्वे) = और उसकी ही मैं गुरुजनों से उपदेश द्वारा श्रवण करूँ।
भावार्थ
भावार्थ-जैसे सेना राष्ट्र की रक्षा में तत्पर रहती है उसी प्रकार राजा अपनी न्याय व्यवस्था द्वारा प्रजा की रक्षा में तत्पर रहे।
मराठी (1)
भावार्थ
हे माणसांनो! ज्याची प्रशंसा विद्वान लोक करतात किंवा ज्याच्या धर्मयुक्त कर्मांना संपूर्ण प्रजा प्रेमाने इच्छिते. जो सत्य असत्याला यथायोग्यरीत्या पृथक करून न्याय करतो तोच आमचा राजा असावा. ॥ ४ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Only Indra they celebrate in holy words. Only of him do we hear, that he is the giver of all power, progress, honour and excellence and he alone is the saviour and protector. Instant and unfailing are his powers and forces of protection and defence, unbreakable as ever. May all dear and cherished good things of life come to us by the lord’s kindness and grace.
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