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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 37 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 37/ मन्त्र 2
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    यू॒यं ह॒ रत्नं॑ म॒घव॑त्सु धत्थ स्व॒र्दृश॑ ऋभुक्षणो॒ अमृ॑क्तम्। सं य॒ज्ञेषु॑ स्वधावन्तः पिबध्वं॒ वि नो॒ राधां॑सि म॒तिभि॑र्दयध्वम् ॥२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यू॒यम् । ह॒ । रत्न॑म् । म॒घव॑त्ऽसु । ध॒त्थ॒ । स्वः॒ऽदृशः॑ । ऋ॒भु॒क्ष॒णः॒ । अमृ॑क्तम् । सम् । य॒ज्ञेषु॑ । स्व॒धा॒ऽव॒न्तः॒ । पि॒ब॒ध्व॒म् । वि । नः॒ । राधां॑सि । म॒तिऽभिः॑ । द॒य॒ध्व॒म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यूयं ह रत्नं मघवत्सु धत्थ स्वर्दृश ऋभुक्षणो अमृक्तम्। सं यज्ञेषु स्वधावन्तः पिबध्वं वि नो राधांसि मतिभिर्दयध्वम् ॥२॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यूयम्। ह। रत्नम्। मघवत्ऽसु। धत्थ। स्वःऽदृशः। ऋभुक्षणः। अमृक्तम्। सम्। यज्ञेषु। स्वधाऽवन्तः। पिबध्वम्। वि। नः। राधांसि। मतिऽभिः। दयध्वम् ॥२॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 37; मन्त्र » 2
    अष्टक » 5; अध्याय » 4; वर्ग » 3; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्विद्वद्भिः किं कर्तव्यमित्याह ॥

    अन्वयः

    हे स्वधावन्तः स्वर्दृश ऋभुक्षणो विद्वांसो ! यूयं मतिभिः मघवत्सु रत्नं सं धत्थ यज्ञेष्वमृक्तं रत्नमहौषधिरसं पिबध्वं नो राधांसि वि दयध्वम् ॥२॥

    पदार्थः

    (यूयम्) (ह) खलु (रत्नम्) रमणीयधनम् (मघवत्सु) बहुधनयुक्तेषु (धत्थ) धरत (स्वर्दृशः) ये स्वः सुखं यन्ति (ऋभुक्षणः) मेधाविनः (अमृक्तम्) अहिंसितम् (सम्) (यज्ञेषु) सङ्गन्तव्यषु व्यवहारेषु (स्वधावन्तः) बह्वन्नादिपदार्थयुक्ताः (पिबध्वम्) (वि) (नः) अस्माकम् (राधांसि) धनानि (मतिभिः) प्रज्ञाभिः (दयध्वम्) दयां कुरुत ॥२॥

    भावार्थः

    ये विद्वांसस्ते प्रजासु ब्रह्मचर्य्यविद्यासत्क्रियामहौषधधनानि च वर्धयित्वा सुखिनः सन्तु ॥२॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर विद्वानों को क्या करना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (स्वधावन्तः) बहुत अन्नादि पदार्थयुक्त (स्वर्दृशः) सुख देखते हुए (ऋभुक्षणः) मेधावी विद्वान् जनो ! (यूयम्, ह) तुम्हीं (मतिभिः) बुद्धियों से (मघवत्सु) बहुत धनयुक्त व्यवहारों में (रत्नम्) रमणीय धन को (सम्, धत्थ) अच्छे प्रकार धारण करो (यज्ञेषु) सङ्ग करने योग्य व्यवहार में (अमृक्तम्) विनाश को नहीं प्राप्त ऐसे बड़ी ओषधियों के रस को (पिबध्वम्) पीओ और (नः) हमारे (राधांसि) धनों को (वि, दयध्वम्) विशेष दया से चाहो ॥२॥

    भावार्थ

    जो विद्वान् जन हैं, वे प्रजाओं में ब्रह्मचर्य्य विद्या उत्तम क्रिया बड़ी-बड़ी ओषधियों और धनों को बढ़वाकर सुखी हों ॥२॥

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    विषय

    तेजस्वी पुरुष क्या करें ।

    भावार्थ

    हे ( स्वर्दृशः ) सुख, आनन्द का साक्षात् करने वाले (ऋभुक्षणः ) सत्य प्रकाश से चमकने वाले विद्वानो ! ( यूयं ) आप लोग (मघवत्सु ) उत्तम ऐश्वर्यवान् पुरुषों में ( अमृक्तं ) कभी नाश न होने योग्य ( रत्नम् ) अति सुन्दर विद्यामय धन ( ह ) अवश्य ( धत्थ ) धारण कराया करो। आप लोग ( स्वधावन्तः ) उत्तम अन्न के स्वामी होकर ( यज्ञेषु ) यज्ञों में ( सं पिबध्वम् ) सब मिलकर उत्तम रसका पान करो । और ( मतिभिः ) उत्तम ज्ञानों से ( नः ) हमारे (राधांसि) नाना धनों को ( वि दयध्वम् ) विशेष रूप से रक्षित करें और दें ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषिः॥ विश्वेदेवा देवताः ॥ छन्दः – १, ३ त्रिष्टुप् । २, ७ निचृत् त्रिष्टुप् । ५, ८ विराट् त्रिष्टुप् । ४ निचृत्पंक्तिः । ६ स्वराट् पंक्तिः॥ अष्टर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    उत्तम विद्या का दान

    पदार्थ

    पदार्थ- हे (स्वर्दृशः) = आनन्द का (साक्षात्) = करनेवाले (ऋभुक्षणः) = सत्य- प्रकाश से चमकनेवाले ! (यूयं) = आप (मघवत्सु) = ऐश्वर्यवान् पुरुषों में (अमृक्तं) = अविनाशी (रत्नम्) = सुन्दर विद्यामय धन (ह) = अवश्य (धत्त्थ) = धारण कराया करो। आप (स्वधावन्तः) = उत्तम अन्न के स्वामी होकर यज्ञेषु यज्ञों में (सं पिबध्वम्) = मिलकर उत्तम रस का पान करो और (मतिभिः) = ज्ञानों से (नः) = हमारे (राधांसि) = धनों को (वि दयध्वम्) = विशेषरूप से रक्षित करो।

    भावार्थ

    भावार्थ- आनन्द का साक्षात् करनेवाले सत्य से प्रकाशित विद्वान् प्रजाओं में कभी नष्ट न होनेवाले अत्युत्तम विद्यारूपी धन को धारण करावें। जिस विद्या के द्वारा उत्तम अन्न तथा विविध धनों के स्वामी बन सकें। यज्ञ विद्या का प्रसार करके उत्तम आनन्द रस का पान करने की प्रेरणा भी करें।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    विद्वान लोकांनी प्रजेत ब्रह्मचर्य, विद्या, उत्तम क्रिया, मोठमोठी औषधी व धन वाढवून सुखी व्हावे. ॥ २ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O scholars of science and technology, visionaries of light, you bring jewels of imperishable wealth for men of power and excellence. O commanders of food, sustenance and power, drink the soma of success in the yajnas of corporate programmes, and with your research and intelligence create the infrastructure for the development and success of our nation.

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