ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 37/ मन्त्र 5
सनि॑तासि प्र॒वतो॑ दा॒शुषे॑ चि॒द्याभि॒र्विवे॑षो हर्यश्व धी॒भिः। व॒व॒न्मा नु ते॒ युज्या॑भिरू॒ती क॒दा न॑ इन्द्र रा॒य आ द॑शस्येः ॥५॥
स्वर सहित पद पाठसनि॑ता । अ॒सि॒ । प्र॒ऽवतः॑ । दा॒शुषे॑ । चि॒त् । याभिः॑ । विवे॑षः । ह॒रि॒ऽअ॒श्व॒ । धी॒भिः । व॒व॒न्म । नु । ते॒ । युज्या॑भिः । ऊ॒ती । क॒दा । नः॒ । इ॒न्द्र॒ । रा॒यः । आ । द॒श॒स्येः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
सनितासि प्रवतो दाशुषे चिद्याभिर्विवेषो हर्यश्व धीभिः। ववन्मा नु ते युज्याभिरूती कदा न इन्द्र राय आ दशस्येः ॥५॥
स्वर रहित पद पाठसनिता। असि। प्रऽवतः। दाशुषे। चित्। याभिः। विवेषः। हरिऽअश्व। धीभिः। ववन्म। नु। ते। युज्याभिः। ऊती। कदा। नः। इन्द्र। रायः। आ। दशस्येः ॥५॥
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 37; मन्त्र » 5
अष्टक » 5; अध्याय » 4; वर्ग » 3; मन्त्र » 5
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अष्टक » 5; अध्याय » 4; वर्ग » 3; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्विद्वांसः किं कुर्युरित्याह ॥
अन्वयः
हे हर्यश्वेन्द्र ! यतस्त्वं याभिर्युज्याभिर्विद्याभिश्चिद्धीभिरूती दाशुषे सनिताऽसि प्रवतो रायो विवेषः यान् वयं ते ववन्मा तान्नु त्वं नः कदा आदशस्येः ॥५॥
पदार्थः
(सनिता) विभाजकः (असि) (प्रवतः) नम्रत्वादिगुणप्रदानाम् (दाशुषे) दात्रे (चित्) अपि (याभिः) (विवेषः) व्याप्नोति (हर्यश्व) सद्गुणहरणशीला हरयोऽश्वा महान्तो यस्य तत्सम्बुद्धौ (धीभिः) प्रज्ञाभिः (ववन्मा) याचामहे। अत्र संहितायामिति दीर्घः। (नु) चित्रम् (ते) तव (युज्याभिः) योजनीयाभिः (ऊती) ऊत्या रक्षणाद्यया (कदा) (नः) अस्मभ्यम् (इन्द्र) परमसुखप्रद (रायः) धनानि (आ) (दशस्येः) आदद्याः ॥५॥
भावार्थः
मनुष्यैः विद्वद्भ्यस्सदा उत्तमा विद्या याचनीयाः विद्वांसश्च यथावत् प्रदद्युः ॥५॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर विद्वान् जन क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (हर्यश्व) सद्गुण और हरणशील घोड़ोंवाले (इन्द्र) परम सुखप्रद विद्वान् ! जिस से आप (याभिः) जिन (युज्याभिः) युक्त करने योग्य विद्याओं (चित्) और (धीभिः) बुद्धियों से (ऊती) तथा रक्षा आदि क्रिया से (दाशुषे) देनेवाले के लिये (सनिता) विभाग करनेवाले (असि) हैं (प्रवतः) नम्रत्व आदि गुणों के देनेवालों के (रायः) धनों को (विवेषः) प्राप्त होते हैं हम लोग (ते) आप के जिन पदार्थों को (ववन्म) माँगते हैं उन को (नु) आश्चर्य्य है आप (नः) हम लोगों के लिये (कदा) कब (आ, दशस्ये) देओगे ॥५॥
भावार्थ
मनुष्यों को विद्वानों से सदा उत्तम विद्या लेनी चाहिये और विद्वान् भी यथावत् अच्छे प्रकार देवें ॥५॥
विषय
उससे नाना प्रश्न ।
भावार्थ
हे ( हर्यश्व ) वेगवान्, हरणशील अश्वों वाले ! एवं हे उत्तम मनुष्यों के स्वामिन् ! ( येभिः ) जिन ( धीभिः ) ज्ञानयुक्त बुद्धियों, कर्मों से ( विवेषः ) सर्वत्र व्यात रहता है तू उनसे ही ( दाशुषे ) दानशील पुरुष को ( प्रवतः ) उत्तम गुण युक्त (रायः ) ऐश्वर्य ( सनितासि ) प्रदान करने हारा है। (ते ) तेरी ( युज्याभिः ) नियुक्त, आज्ञाकारी ( ऊती ) सेनाओं तथा ( उती ) रक्षण नीति से प्रभावित होकर ( ते नु ववन्म) तेरी याचना करते हैं हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! तू ( नः ) हमें (रायः) वे नाना ऐश्वर्य ( कदा दशस्ये: ) कब दान करेगा ? । इति तृतीयो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः॥ विश्वेदेवा देवताः ॥ छन्दः – १, ३ त्रिष्टुप् । २, ७ निचृत् त्रिष्टुप् । ५, ८ विराट् त्रिष्टुप् । ४ निचृत्पंक्तिः । ६ स्वराट् पंक्तिः॥ अष्टर्चं सूक्तम्॥
विषय
प्रभु से प्रार्थना
पदार्थ
पदार्थ - हे (हर्यश्व) = वेगवान् अश्वोंवाले! एवं, हे उत्तम मनुष्यों के स्वामिन् ! (येभिः) = जिन (धीभिः) = ज्ञानयुक्त बुद्धियों, कर्मों से (विवेषः) = सर्वत्र व्याप्त रहता है तू उनसे ही (दाशुषे) = दानशील पुरुष को (प्रवतः) = उत्तम गुण-युक्त (रायः) = ऐश्वर्य (सनितासि) = देनेहारा है। (ते) = तेरी (युज्याभिः) = नियुक्त, (ऊती) = सेनाओं तथा रक्षण-नीति से (प्रवाहित) = होकर (ते नु ववन्म) = तेरी याचना करते हैं। हे (इन्द्र) = ऐश्वर्यवन् ! तू (नः) = हमें (रायः) = वे ऐश्वर्य (कदा दशस्ये:) = कब देगा ?
भावार्थ
भावार्थ-विद्वान् लोग प्रजाओं को प्रभु से प्रार्थना की रीति सिखावें कि हे सबके स्वामिन् प्रभो! तू अपने ज्ञान एवं कर्मों से सर्वत्र व्याप रहा है। तू अपनी रक्षाओं के द्वारा मुझ याचक की रक्षा कर और हे दानशील दानिन! तू हमें नाना ऐश्वर्यों का दान कर।
मराठी (1)
भावार्थ
माणसांनी विद्वानांकडून सदैव उत्तम विद्या घ्यावी व विद्वानांनीही ती यथायोग्यरीत्या द्यावी. ॥ ५ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Indra, lord commander of manpower, speed and success, you are the giver of overflowing wealth to the generous man of charity. O lord, we pray, when would you bless us with that wealth, honour and excellence, that practical intelligence and expertise, and that security and protection by which you prevail over the world of nature and humanity.
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