ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 64/ मन्त्र 5
ए॒ष स्तोमो॑ वरुण मित्र॒ तुभ्यं॒ सोम॑: शु॒क्रो न वा॒यवे॑ऽयामि । अ॒वि॒ष्टं धियो॑ जिगृ॒तं पुरं॑धीर्यू॒यं पा॑त स्व॒स्तिभि॒: सदा॑ नः ॥
स्वर सहित पद पाठए॒षः । स्तोमः॑ । व॒रु॒ण॒ । मि॒त्र॒ । तुभ्य॑म् । सोमः॑ । शु॒क्रः । न । वा॒यवे॑ । अ॒या॒मि॒ । अ॒वि॒ष्टम् । धियः॑ । जि॒गृ॒तम् । पुर॑म्ऽधीः । यू॒यम् । पा॒त॒ । स्व॒स्तिऽभिः॑ । सदा॑ । नः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
एष स्तोमो वरुण मित्र तुभ्यं सोम: शुक्रो न वायवेऽयामि । अविष्टं धियो जिगृतं पुरंधीर्यूयं पात स्वस्तिभि: सदा नः ॥
स्वर रहित पद पाठएषः । स्तोमः । वरुण । मित्र । तुभ्यम् । सोमः । शुक्रः । न । वायवे । अयामि । अविष्टम् । धियः । जिगृतम् । पुरम्ऽधीः । यूयम् । पात । स्वस्तिऽभिः । सदा । नः ॥ ७.६४.५
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 64; मन्त्र » 5
अष्टक » 5; अध्याय » 5; वर्ग » 6; मन्त्र » 5
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अष्टक » 5; अध्याय » 5; वर्ग » 6; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(वरुण, मित्र) हे अध्यापकोपदेशकौ ! (तुभ्यम्) भवदर्थम् (एषः, स्तोमः) अयं ब्रह्मयज्ञः (सोमः) साधुस्वभावस्य (शुक्रः) बलस्य च दाता भवतु अन्यच्च (वायवे, न) आदित्य इव (अयामि) प्रार्थये (धियः) भवद्बुद्धयः (अविष्टं) श्रेष्ठकर्मणि (जिगृतम्) सदैव वर्तेरन् अन्यच्च भवन्तः (पुरन्धीः) ऐश्वर्य्यं प्राप्नुयुः (यूयं) भवन्तः (नः) अस्मान्प्रति (सदा) सर्वदैव (स्वस्तिभिः) स्वस्तिवाचनादिवाग्भिः (पात) रक्षन्तु ॥५॥ इति चतुष्षष्टितमं सूक्तं षष्ठो वर्गश्च समाप्तः।
हिन्दी (3)
पदार्थ
(मित्र, वरुण) हे अध्यापक तथा उपदेशको ! (तुभ्यम्) तुम्हारे लिये (एषः, स्तोमः) यह विद्यारूपी यज्ञ (सोमः, शुक्रः) शील तथा बल के देनेवाला हो और तुम्हें (वायवे, न, अयामि) आदित्य के समान प्रकाशित करे, (धियः) तुम्हारी बुद्धि (अविष्टं) श्रेष्ठ कर्मों में (जिगृतं) सदा वरते, जिससे तुम (पुरन्धीः) ऐश्वर्यशाली होओ, (यूयं) तुम लोग (सदा) सर्वदा (स्वस्तिभिः) स्वस्तिवाचनादि वाणियों से (नः) हमको (पात) पवित्र करो, ऐसा कथन किया करें ॥५॥
भावार्थ
परमात्मा उपदेश करते हैं कि हे विद्वानो ! यह विद्यारूपी यज्ञ तुम्हारे लिए बल तथा प्रकाश देनेवाला हो और यह यज्ञ तुम्हारे सम्पूर्ण कर्मों को सफल करे, तुम्हारी बुद्धियें सदा उत्तम कर्मों में प्रवृत्त रहें, तुम इस यज्ञ की पूर्णाहुति में सदा यहाँ प्रार्थना किया करो कि परमात्मा मङ्गलमय भावों से सदैव हमको पवित्र करे ॥५॥ ६४ वाँ सूक्त और छठवाँ वर्ग समाप्त हुआ।
विषय
वायुवत् श्रेष्ठ जन का कर्त्तव्य ।
भावार्थ
( वायवे शुक्रः न ) वायु के लिये जिस प्रकार ( शुक्रः ) शीघ्र काम करने का सामर्थ्य प्राप्त है, उसी प्रकार हे ( वरुण ) श्रेष्ठजन ! हे ( मित्र ) स्नेहयुक्त जन ( तुभ्यम् ) तेरे लिये ( एषः ) यह (स्तोमः) स्तुति वचन और ( सोमः ) यह ऐश्वर्य भी ( शुक्रः ) कान्तियुक्त होकर विद्यार्थी के समान तेरी वृद्धि को (अयामि ) प्राप्त हो । आप दोनों ( धियः अविष्टं ) उत्तम कर्मों की रक्षा करो और ( पुरन्धी: जिगृतम्) बहुत से ज्ञान को धारण करने वाली उत्तम बुद्धियों वा ज्ञानों का उपदेश करो । ( यूयं पात स्वस्तिभिः सदा नः ) आप हमें सदा उत्तम सुखकारक उपायों से पालन किया करें । इति षष्ठो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः । मित्रावरुणौ देवते ॥ छन्दः–१, २, ३, ४ त्रिष्टुप् । ५ विराट् त्रिष्टुप् ॥ पञ्चर्चं सूक्तम् ॥
विषय
श्रेष्ठ जन का कर्त्तव्य -
पदार्थ
पदार्थ- (वायवे शुक्रः न) = वायु को जैसे शीघ्र काम करने का सामर्थ्य प्राप्त है, वैसे हे (वरुण) = श्रेष्ठजन! हे (मित्र) = स्नेहयुक्त जन (तुभ्यम्) = तेरे लिये (एषः) = यह (स्तोमः) = स्तुति और (सोमः) = यह ऐश्वर्य (शुक्रः) = कान्तियुक्त होकर तेरी वृद्धि को (अयामि) = प्राप्त हो। आप दोनों (धियः अविष्टं) = सुकर्मों की रक्षा करो और (पुरन्धीः जिगृतम्) = बहुत से ज्ञान धारण करनेवाली बुद्धियों, ज्ञानों का उपदेश करो। (यूयं पात स्वस्तिभिः सदा नः) = आप हमारा सदा उत्तम उपायों से पालन करें।
भावार्थ
भावार्थ- श्रेष्ठ जनों का कर्त्तव्य है कि वे लोगों को सुकर्मों पर चलने की शिक्षा दें। इससे मनुष्य लोग सत्कर्मी तेजस्वी व सम्पन्न होकर उत्तम उपायों द्वारा सुखी होंगे। अगले सूक्त का ऋषि वसिष्ठ और देवता मित्रावरुण है।
इंग्लिश (1)
Meaning
This song of homage and adoration I offer to you, O Varuna, lord of profound judgement and generosity, and to you Mitra, lord of infinite love and light, the song pure and exhilarating as soma, and it is for Vayu too, the dynamic force of cosmic order. Pray inspire our mind and will and enlighten our rulers and intelligentsia. O generous and refulgent lords, protect and promote us with all modes and means of happiness and all round well being all time.
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्मा उपदेश करतो, की हे विद्वानांनो! हा विद्यारूपी यज्ञ तुम्हाला बल व प्रकाश देणारा असावा व या यज्ञाने तुमचे संपूर्ण कर्म सफल व्हावे. तुमची बुद्धी सदैव उत्तम कर्मात प्रवृत्त व्हावी. तुम्ही या यज्ञाच्या पूर्णाहुतीमध्ये सदैव ही प्रार्थना करा, की परमात्म्याने मंगल भावनेने आम्हाला पवित्र करावे. ॥५॥
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