ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 65/ मन्त्र 3
ता भूरि॑पाशा॒वनृ॑तस्य॒ सेतू॑ दुर॒त्येतू॑ रि॒पवे॒ मर्त्या॑य । ऋ॒तस्य॑ मित्रावरुणा प॒था वा॑म॒पो न ना॒वा दु॑रि॒ता त॑रेम ॥
स्वर सहित पद पाठता । भूरि॑ऽपाशौ । अनृ॑तस्य । सेतू॒ इति॑ । दु॒र॒त्येतू॒ इति॑ दुः॒ऽअ॒त्येतू॑ । रि॒पवे॑ । मर्त्या॑य । ऋ॒तस्य॑ । मि॒त्रा॒व॒रु॒णा॒ । प॒था । वा॒म् । अ॒पः । न । ना॒वा । दुः॒ऽइ॒ता । त॒रे॒म॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
ता भूरिपाशावनृतस्य सेतू दुरत्येतू रिपवे मर्त्याय । ऋतस्य मित्रावरुणा पथा वामपो न नावा दुरिता तरेम ॥
स्वर रहित पद पाठता । भूरिऽपाशौ । अनृतस्य । सेतू इति । दुरत्येतू इति दुःऽअत्येतू । रिपवे । मर्त्याय । ऋतस्य । मित्रावरुणा । पथा । वाम् । अपः । न । नावा । दुःऽइता । तरेम ॥ ७.६५.३
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 65; मन्त्र » 3
अष्टक » 5; अध्याय » 5; वर्ग » 7; मन्त्र » 3
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अष्टक » 5; अध्याय » 5; वर्ग » 7; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(ऋतस्य) सत्यस्य (पथा) मार्गेण (मित्रावरुणा) शक्तिद्वयवान्परमात्मा सर्वस्य मित्रः सर्वस्य वरणीयश्च (वां) राजानं तथा प्रजाजनं (नावा) नौकल्पसाधनैः (नः) अस्मान् (दुरत्येतू) तारयतु अन्यच्च (भूरिपाशौ) अनन्तबलयुक्तः (अनृतस्य सेतू) सन्मर्य्यादेत्यर्थः, तद्द्वारेण तद्भक्तः विघ्नौघं तरतीत्यर्थः, इत्यत्र द्विवचनमतन्त्रम्, “बहुलं छन्दसीति” विधानात् अर्थात् छन्दसि द्विवचनस्थानेऽपि एकवचनं सम्पद्यत इत्यर्थः ॥३॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(ऋतस्य) सत्य का (पथा) मार्ग जो (मित्रावरुणा) सबका मित्र तथा वरणीय परमात्मा है, वह (वां) हम राजा प्रजा को (अपः) जल की (नावा) नौकाओं के (न) समान (दुरिता) पापों से (तरेम) तारे, वह परमात्मा (मर्त्याय) मरणधर्मा मनुष्यों के (रिपवे) रिपुओं के लिए (भूरिपाशौ) अनन्त बलयुक्त और (ता) पूर्वोक्त गुणोंवाले भक्तों के लिए (अनृतस्य) अनृत से तराने का (सेतू) पुल हैं, जिसके द्वारा उसका भक्त सब प्रकार के विघ्नों से (दुरत्येतू) तर जाता है ॥३॥
भावार्थ
परमात्मा उपदेश करते हैं कि हे मनुष्यों ! जल की नौकाओं के समान तुम्हारे तराने का एकमात्र साधन परमात्मा ही है, इसलिए तुम सेतु के समान उस पर विश्वास करके इस संसाररूप भवसागर को, जिसमें रिपु आदि अनेक प्रकार के दुरितरूप नक और असत्यादि अनेक प्रकार के भँवर हैं, इन सब से बचकर पार होने के लिए तुम्हें एकमात्र जगदीश्वर का ही अवलम्बन करना चाहिए, अन्य कोई साधन नहीं ॥३॥
विषय
उन के गृहपति-गृहपत्नीवत् कर्त्तव्य ।
भावार्थ
हे ( मित्रावरुणा ) परस्पर के मित्रवत् स्नेही और एक दूसरे को रक्षकवत् चुनने वाले राजा प्रजा, स्वामी-भृत्य, स्त्री पुरुष जनो ! (ता) वे आप दोनों ( भूरि पाशा ) बहुत से बन्धनों से सुबद्ध होकर ( अनृतस्य ) असत्याचरण को पार कराने के लिये ( सेतू ) बन्धे पुल के समान होओ। और (रिपवे मर्त्याय) शत्रुभूत पापी पुरुष के नाश के लिये आप दोनों ( दुर्-अत्ये तू ) दुःख से अतिक्रमण करने योग्य अलंघनीय शासन वाले होओ । (वाम् ) आप दोनों के ( ऋतस्य पथा ) सत्याचरण के मार्ग से चलकर हम भी ( नावा आपः न ) नाव से जलों के समान ( दुरिता तरेम ) सब दुःखों, पापों को पार कर जावें ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः ॥ मित्रावरुणौ देवते ॥ छन्दः–१, ५ विराट् त्रिष्टुप् । २ त्रिष्टुप् । ३, ४ निचृत्त्रिष्टुप् ॥ पञ्चर्चं सूक्तम् ॥
विषय
राजा का आचरण
पदार्थ
पदार्थ- हे (मित्रावरुणा) = परस्पर स्नेही, वरणीय राजा-प्रजा, स्त्री-पुरुषो! (ता) = वे आप दोनों (भूरि पाशा) = बहुत बन्धनों से बद्ध होकर (अनृतस्य) = असत्याचरण को पार करने के लिये (सेतु) = पुल के समान होओ और (रिपवे मर्त्याय) = शत्रुभूत पापी पुरुष के नाश के लिये आप दोनों (दूर-अत्येत्) = दुःख से अतिक्रमण- योग्य, अलंघनीयशासन होओ। (वाम्) = आप दोनों के (ऋतस्य पथा) = सत्य के मार्ग से चलकर हम भी (नावा आपः न) = नाव से जलों के समान (दुरिता तरेम) = सब दुःखों को पार करें।
भावार्थ
भावार्थ- राजा को चाहिए कि वह जीवन को अनुशासित व संयमित रखते हुए प्रजा को आदर्श प्रदान करे जिससे प्रजाजन नियमों में रहकर असत्याचरण से बचकर सुपथगामी होवे। राजा शत्रुओं व पापियों के नाश के लिए कठोर नियम बनावे तथा उनको दृढ़ता के साथ लागू करे। प्रजा भी नियमों में रहकर दुःखों से छूट सुख को प्राप्त करे।
इंग्लिश (1)
Meaning
Many are their bonds and chains, bridges to cross over untruth and sin, which are difficult to approach and cross for the mortal man of enmity and jealousy. O Mitra and Varuna, we pray, let us cross over sin and evil by your divine path of truth and law just as we cross the seas by the boat.
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्मा उपदेश करतो, की हे माणसांनो ! जलाच्या नौकांप्रमाणे तुम्हाला तरून जाण्याचे साधन परमात्माच आहे. त्यासाठी तुम्ही सेतूप्रमाणे त्यावर विश्वास ठेवा. त्यात शत्रू, अनेक प्रकारच्या दुरितरूपी मगरी व असत्य इत्यादी अनेक प्रकारचे भोवरे आहेत. अशा सांसारिक भवसागरातून पार पडण्यासाठी व या सर्वांपासून बचाव करण्यासाठी एक जगदीश्वराचे अवलंबन केले पाहिजे. इतर कोणतेही साधन नाही. ॥३॥
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