ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 7/ मन्त्र 2
आ या॑ह्यग्ने प॒थ्या॒३॒॑ अनु॒ स्वा म॒न्द्रो दे॒वानां॑ स॒ख्यं जु॑षा॒णः। आ सानु॒ शुष्मै॑र्न॒दय॑न्पृथि॒व्या जम्भे॑भि॒र्विश्व॑मु॒शध॒ग्वना॑नि ॥२॥
स्वर सहित पद पाठआ । या॒हि॒ । अ॒ग्ने॒ । प॒थ्याः॑ । अनु॑ । स्वाः । म॒न्द्रः । दे॒वाना॑म् । स॒ख्यम् । जु॒षा॒णः । आ । सानु॑ । शुष्मैः॑ । न॒दय॑न् । पृ॒थि॒व्याः । जम्भे॑भिः । विश्व॑म् । उ॒शध॑क् । वना॑नि ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ याह्यग्ने पथ्या३ अनु स्वा मन्द्रो देवानां सख्यं जुषाणः। आ सानु शुष्मैर्नदयन्पृथिव्या जम्भेभिर्विश्वमुशधग्वनानि ॥२॥
स्वर रहित पद पाठआ। याहि। अग्ने। पथ्याः। अनु। स्वाः। मन्द्रः। देवानाम्। सख्यम्। जुषाणः। आ। सानु। शुष्मैः। नदयन्। पृथिव्याः। जम्भेभिः। विश्वम्। उशधक्। वनानि ॥२॥
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 7; मन्त्र » 2
अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 10; मन्त्र » 2
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अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 10; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः कीदृशो राजा श्रेयान् भवतीत्याह ॥
अन्वयः
हे अग्ने ! देवानां सख्यं जुषाणो मन्द्रः शुष्मैः पृथिव्याः सान्वा नदयन्विद्युदिव जम्भेभिर्विश्वं वनान्युशधक्सन् पथ्याः स्वा अन्वा याहि ॥२॥
पदार्थः
(आ याहि) आगच्छ (अग्ने) विद्युदिव राजविद्याव्याप्त (पथ्याः) या धर्मपन्थानमर्हन्ति (अनु) अनुकूलाः (स्वाः) स्वकीयाः प्रजाः (मन्द्रः) आनन्दप्रदः (देवानाम्) विदुषाम् (सख्यम्) मित्रभावम् (जुषाणः) सेवमानः (आ) (सानु) शिखरमिव विज्ञानम् (शुष्मैः) बलैः (नदयन्) नादं कुर्वन् (पृथिव्याः) भूमेः (जम्भेभिः) गात्रविनामैः (विश्वम्) सर्वं जगत् (उशधक्) कामयमानः (वनानि) सूर्यकिरणानिव धनानि ॥२॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यो विद्युदिव पराक्रमी सूर्य इव प्रतापी स्वानुकूलाः प्रजा न्यायेनानन्दिताः करोति स एवोत्तमो राजा भवति ॥२॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर कैसा राजा श्रेष्ठ होता है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।
पदार्थ
हे (अग्ने) बिजुली के तुल्य राजविद्या में व्याप्त ! (देवानाम्) विद्वानों के (सख्यम्) मित्रपन को (जुषाणः) सेवते हुए (मन्द्रः) आनन्ददाता (शुष्मैः) बलों के साथ (पृथिव्याः) पृथिवी के (सानु) शिखर के तुल्य विज्ञान को (आ, नदयन्) अच्छे प्रकार नाद करते हुए विद्युत् के तुल्य (जम्मेभिः) गात्र नमाने से (विश्वम्) सम्पूर्ण जगत् (वनानि) सूर्य की किरणों के तुल्य धनों की (उशधक्) कामना करते हुए (पथ्याः) धर्ममार्ग को प्राप्त होनेवाली (स्वाः) अपनी प्रजाओं को (अनु, आ, याहि) अनुकूल आइये ॥२॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो बिजुली के तुल्य पराक्रमी, सूर्य के तुल्य प्रतापी, अपनी अनुकूल प्रजाओं को न्याय से आनन्दित करता है, वही उत्तम राजा होता है ॥२॥
विषय
विद्वान् और राजा के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
हे ( अग्ने ) अग्निवत् तेजस्विन् ! तू ( देवानां सख्यं ) विद्वान्, तेजस्वी, ज्ञानप्रकाशक किरणवत् विद्वानों के (सख्यं) मित्र भाव को ( जुषाणः ) प्राप्त करता हुआ (मन्द्रः ) सबको हर्ष देता हुआ (स्वाः) अपनी ( पथ्याः ) धर्म मार्ग पर चलने वाली प्रजाओं को ( अनु आयाहि) अनुकूल रूप से प्राप्त कर, हमें प्राप्त हो और सिंह वा मेघवत् (पृथिव्याः सानु) पृथिवी के उच्चतम उन्नत प्रदेश को भी (शुष्मैः ) अपने बलों से ( नदयन् ) गुंजित वा समृद्ध करता हुआ ( जम्भेभिः ) अपने शत्रु-नाशक उपायों से ( विश्वम् ) समस्त राष्ट्र और ( वनानि ) ऐश्वर्यों को भी (उशधक् ) काष्ठों को अग्निवत् चाहे और उपभोग करे ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः– १, ३ त्रिष्टुप् । ४, ५, ६ निचृत्त्रिष्टुप् । २ भुरिक्ं पंक्तिः । ७ स्वराट् पंक्तिः । सप्तर्चं सूक्तम् ॥
विषय
प्रभु प्राप्ति का मार्ग
पदार्थ
[१] प्रभु जीव से कहते हैं कि-हे अग्ने प्रगतिशील जीव ! (स्वाः पथ्याः अनु) = अपने कर्तव्य मार्गों के अनुसार, अर्थात् अपने कर्तव्य मार्गों पर चलता हुआ तू (आयाहि ह) = समीप प्राप्त होनेवाला हो। (मन्द्रः) = सदा प्रसन्न मनोवृत्तिवाला बन। (देवानां सख्यं जुषाण:) = देववृत्ति के पुरुषों की मित्रता का सेवन करनेवाला बन। [२] (शुष्मैः) = शत्रुशोषक बलों के साथ (पृथिव्याः) = इस शरीररूप पृथिवी के (सानु) = मस्तिष्करूप शिखर को (आनदयन्) = समन्तात् ज्ञान की वाणियों से अनुनादित करनेवाला बन तथा (जम्भेभिः) = दाँतों से (विश्वं वनानि) = सब वानस्पतिक पदार्थों की ही (उशधक्) = कामनावाला हो।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु प्राप्ति का मार्ग यह है- [क] स्वकर्तव्य पालन, [ख] मनः प्रसाद, गसत्संग, [घ] बल व ज्ञान का संचय, [ङ] वानस्पतिक पदार्थों से शरीर का पोषण।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जो विद्युतप्रमाणे पराक्रमी, सूर्याप्रमाणे प्रतापी, आपल्या अनुकूल असलेल्या प्रजेला न्यायाने आनंदित करतो तोच उत्तम राजा असतो. ॥ २ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Come Agni, warm as fire, brilliant as light, forceful as lightning, happy and rejoicing, to your own people, eager for the love and friendship of noble people who love and value the paths of rectitude. Come on top of the world, proclaiming loud and bold your knowledge and power and illuminating the thickest forests of darkness with the radiations of your light.
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