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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 72 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 72/ मन्त्र 2
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - अश्विनौ छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    आ नो॑ दे॒वेभि॒रुप॑ यातम॒र्वाक्स॒जोष॑सा नासत्या॒ रथे॑न । यु॒वोर्हि न॑: स॒ख्या पित्र्या॑णि समा॒नो बन्धु॑रु॒त तस्य॑ वित्तम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । नः॒ । दे॒वेभिः॑ । उप॑ । या॒त॒म् । अ॒र्वाक् । स॒ऽजोष॑सा । ना॒स॒त्या॒ । रथे॑न । यु॒वोः । हि । नः॒ । स॒ख्या । पित्र्या॑णि । स॒मा॒नः । बन्धुः॑ । उ॒त । तस्य॑ । वि॒त्त॒म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ नो देवेभिरुप यातमर्वाक्सजोषसा नासत्या रथेन । युवोर्हि न: सख्या पित्र्याणि समानो बन्धुरुत तस्य वित्तम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । नः । देवेभिः । उप । यातम् । अर्वाक् । सऽजोषसा । नासत्या । रथेन । युवोः । हि । नः । सख्या । पित्र्याणि । समानः । बन्धुः । उत । तस्य । वित्तम् ॥ ७.७२.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 72; मन्त्र » 2
    अष्टक » 5; अध्याय » 5; वर्ग » 19; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (देवेभिः) दिव्यशक्तिभिर्युक्ताः (नासत्या) हे सत्यवादिनो विद्वांसः ! यूयं (रथेन) यानेन यानमारुह्य इत्यर्थः (नः) अस्मान् (आ) सम्यक् (उप यातम्) अगच्छत (उत) अन्यच्च (अर्वाक् सजोषसा) आत्मनो दिव्यशक्तिभिः (तस्य वित्तम्) तज्ज्ञानात्मकं धनं (नः) अस्मभ्यं प्रयच्छत। यतः (युवोः) युष्माकं (सख्या) मैत्री (हि) निश्चयेन (पित्र्याणि बन्धुः) पितृभिर्बन्धुभिश्च (समानः) तुल्या भवतीत्यर्थः ॥२॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (देवेभिः) दिव्यशक्तिसम्पन्न (नासत्या) सत्यवादी विद्वान् (रथेन) यान द्वारा (नः) हमको (आ) भले प्रकार (उपयातं) प्राप्त हों (उत) और (अर्वाक् सजोषसा) अपनी दिव्यवाणी से (नः) हमें (तस्य वित्तं) उस ज्ञानरूप धन को प्रदान करें (हि) निश्चय करके (युवोः) तुम्हारी (सख्या) मैत्री (पित्र्याणि बन्धुः) पिता तथा बन्धु के (समानः) समान हो ॥२॥

    भावार्थ

    हे यजमानो ! तुम सत्यवादी विद्वानों का भले प्रकार सत्कार करो और उनको पिता तथा बन्धु की भाँति मानकर उनसे ब्रह्मविद्यारूप धन का लाभ करो, जो तुम्हारे जीवन का उद्देश्य है अर्थात् तुम उन अध्यापक तथा उपदेशकों की सेवा में प्रेमपूर्वक प्रवृत्त रहो, जिससे वे प्रसन्न हुए तुम्हें ब्रह्मज्ञान का उपदेश करें ॥ कई एक टीकाकार इस मन्त्र से अश्विनीकुमारों की उत्पत्ति निकालते हैं कि विवस्वान् की सरण्यु नामक स्त्री ने किसी कारण से घोड़ी का रूप धारण कर लिया, पुनः विवस्वान् उसके मोह में आकर घोड़ा बन गया। उन दोनों के समागम से जो सन्तान उत्पन्न हुई, उसका नाम ‘अश्विनीकुमार’ वा ‘नासत्या’ है ॥ इसी प्रसङ्ग में यह भी लिखा है कि विवस्वान्रूप पिता तथा सरण्युरूप माता से पहले-पहल जो सन्तान उत्पन्न हुई, उसका नाम यम-यमी था अर्थात् यम भाई और यमी बहिन थी और दोनों के विवाह का उल्लेख भी है ॥ उपर्य्युक्त मन्त्र से यह कथा घड़ना सर्वथा मिथ्या है, क्योंकि वास्तव में कोई विवस्वान् पिता और न कोई सरण्यु माता थी। यह अलङ्कार है, जिसको आधुनिक टीकाकारों ने न समझ कर कुछ का कुछ लिख दिया है। विवस्वान् नाम सूर्य्य और सरण्यु नाम प्रकृति का है। जब कालक्रम से सूर्य्य द्वारा प्रकृति में संसाररूप सन्तति उत्पन्न होती है, तब प्रथम उसमे यम=काल और यमी=वृद्धि इन दोनों का जोड़ा उत्पन्न होता है। किसी पदार्थ को वृद्धिकाल में भोगना पाप है, इसीलिये इसके भोगने का निषेध किया है और अलङ्कार द्वारा यह भी दर्शाया है कि एक कुल में उत्पन्न हुए भाई-बहिन का विवाह निषिद्ध है, अस्तु, हम इस अलङ्कार का वर्णन यम-यमी सूक्त में विस्तारपूर्वक करेंगे, यहाँ इतना लिखना ही पर्याप्त है कि अश्विनीकुमारों की उत्पत्तिविषयक इस कथा का मन्त्र में लेश भी नहीं ॥२॥

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    विषय

    विद्वान् स्त्री-पुरुषों के कर्तव्य ।

    भावार्थ

    हे ( नासत्या ) असत्याचरण न करने हारे विद्वान् और तेजस्वी स्त्री पुरुषो ! आप लोग ( देवेभिः ) विद्वान् पुरुषों के साथ और ( स-जोषसा ) प्रीति से सेवने योग्य ( रथेन ) रथ से, वा स्थिर, रम्य व्यवहार से (नः आयातम्) हमें प्राप्त होओ। ( युवोः हि नः ) आप दोनों के (पित्र्याणि सख्या) पिता पितामहादि से चले आये सौहार्द भाव हमारे साथ बने रहें । ( युवोः नः बन्धुः समानः ) हमारे और तुम्हारे बन्धु भी समान हों ( उत ) और आप दोनों ( तस्य ) उस बन्धु को ( वित्तम् ) भली प्रकार जानें ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषिः ॥ अश्विनौ देवते ॥ छन्दः – १, २, ३, ४ निचृत् त्रिष्टुप् । ५ विराट् त्रिष्टुप् ॥ पञ्चर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    बन्धुत्व

    पदार्थ

    पदार्थ - हे (नासत्या) = असत्याचरण न करने हारे स्त्री-पुरुषो! आप (देवेभिः) = विद्वान् पुरुषों के साथ (स-जोषसा) = प्रीति से सेवने योग्य, (रथेन) = रथ से, (नः आयातम्) = हमें प्राप्त होओ। (युवोः हि नः) = आप दोनों के (पित्र्याणि सख्या) = पिता पितामहादि से आये सौहार्द भाव हमारे साथ बने रहें। (युवोः नः बन्धुः समान:) = हमारे और तुम्हारे बन्धु भी समान हों (उत) = और आप दोनों (तस्य) = उस बन्धु को (वित्तम्) = भली प्रकार जानें।

    भावार्थ

    भावार्थ- सदाचारी स्त्री पुरुष विद्वानों के साथ रहते हुए मधुर व्यवहार सीखें। इससे वे प्रजाजनों के साथ प्रीतिपूर्वक उसी प्रकार वर्ताव करें जैसे एक ही दादा की सन्तान बन्धुभाव से रहती हैं।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Ashvins, harbingers of the light of knowledge and wealth of the world, dedicated to truth and law of nature and divinity, come to our yajna by your chariot in the company of divine sages and brilliant scholars, with all your strength of mind and soul. Your friendship and ours and our ancestral traditions and also our fraternity, pray know of this and give us the benefit of this commonalty.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे यजमानांनो! तुम्ही सत्यवादी विद्वानांचा चांगल्या प्रकारे सत्कार करा व त्यांना पिता व भ्राता यांच्याप्रमाणे मानून त्यांच्याकडून ब्रह्मविद्यारूपी धनाचा लाभ करून घ्या. जो तुमच्या जीवनाचा उद्देश आहे. अर्थात, तुम्ही त्या अध्यापक व उपदेशक यांच्या सेवेत प्रेमाने राहा. त्यामुळे ते प्रसन्न होऊन तुम्हाला ब्रह्मज्ञानाचा उपदेश करतील.

    टिप्पणी

    कित्येक टीकाकार या मंत्राद्वारे अश्विनीकुमाराची उत्पत्ती मानतात. विवस्वानाच्या सरण्यू नावाच्या स्त्रीने काही कारणामुळे घोडीचे रूप धारण केले तेव्हा विवस्वान तिच्या मोहात पडून घोडी बनला. त्या दोघांच्या समागमाने जे संतान उत्पन्न झाले त्याचे नाव ‘अश्विनीकुमार’ किंवा ‘नासत्या’ आहे. $ याच प्रसंगी हेही लिहिलेले आहे, की विवस्थानरूपी पिता व सरण्युरूपी मातेपासून जे पहिले संतान झाले त्याचे नाव यमयमी होते. अर्थात, यम बन्धु व यमी बहीण होती व त्यांच्या दोघांच्या विवाहाचाही उल्लेख आहे. $ वरील मंत्राद्वारे ही कथा संपूर्ण खोटी आहे. कारण वास्तविक कोणी विवस्वान पिता व कोणी सरण्यु माता होती. हा अलंकार आहे हे न जाणता आधुनिक टीकाकारांनी भलतेच लिहिलेले आहे. विवस्वान हे नाव सूर्य व सरण्यु नाव प्रकृतीचे आहे. जेव्हा कालक्रमाने सूर्याद्वारे प्रकृतीमध्ये संसार (जग) रूपी संतती उत्पन्न होते तेव्हा प्रथम त्यात यम= काल व यमी= वृद्धी या दोघांची जोडी उत्पन्न होते. तेव्हा एखाद्या पदार्थाला वृद्धिकालात भोगणे पाप आहे. त्यासाठी त्याच्या भोगण्याचा निषेध केलेला आहे व त्याच अलंकाराद्वारे हेही दर्शविलेले आहे, की एकाच कुळात उत्पन्न झालेल्या भाऊ-बहिणीचा विवाह निषिद्ध आहे. आम्ही या अलंकाराचे वर्णन यमयमी सूक्तात विस्ताराने करू. येथे एवढे लिहिणेच पर्याप्त आहे, की अश्विनीकुमाराच्या उत्पत्तीसंबंधी या कथेत लेशमात्रही उल्लेख नाही.॥२॥

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