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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 72 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 72/ मन्त्र 5
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - अश्विनौ छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    आ प॒श्चाता॑न्नास॒त्या पु॒रस्ता॒दाश्वि॑ना यातमध॒रादुद॑क्तात् । आ वि॒श्वत॒: पाञ्च॑जन्येन रा॒या यू॒यं पा॑त स्व॒स्तिभि॒: सदा॑ नः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । प॒श्चाता॑त् । ना॒स॒त्या॒ । आ । पु॒रस्ता॑त् । आ । अ॒श्वि॒ना॒ । या॒त॒म् । अ॒ध॒रात् । उद॑क्तात् । आ । वि॒श्वतः॑ । पाञ्च॑ऽजन्येन । रा॒या । यू॒यम् । पा॒त॒ । स्व॒स्तिऽभिः॑ । सदा॑ । नः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ पश्चातान्नासत्या पुरस्तादाश्विना यातमधरादुदक्तात् । आ विश्वत: पाञ्चजन्येन राया यूयं पात स्वस्तिभि: सदा नः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । पश्चातात् । नासत्या । आ । पुरस्तात् । आ । अश्विना । यातम् । अधरात् । उदक्तात् । आ । विश्वतः । पाञ्चऽजन्येन । राया । यूयम् । पात । स्वस्तिऽभिः । सदा । नः ॥ ७.७२.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 72; मन्त्र » 5
    अष्टक » 5; अध्याय » 5; वर्ग » 19; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ विद्वदुपदेशकैः कल्याणं कर्तुमुपदिशति।

    पदार्थः

    (नासत्या) हे सत्यवादिनो विद्वांसः ! भवन्तः (आ पश्चातात्) प्रतीच्याः (आ पुरस्तात्) पूर्वस्याः (अधरात्) अधस्तात् (उदक्तात्) उपरिष्टात् किं बहुना (आ विश्वतः) सर्वतः (पाञ्चजन्येन) पञ्चविधमनुष्याणां हितं (राया) धनेन वर्द्धयन्तु अथ (अश्विना) हे अध्यापकोपदेशकाः ! यूयं पञ्चप्रकारान् जनान् (आयातम्) प्राप्नुत प्राप्य च इदं प्रार्थयत “हे परमात्मन् ! (यूयम्) भवान् (सदा) सर्वदा (स्वस्तिभिः) शुभप्रदाभिः वाग्भिः (नः) अस्माकमैश्वर्य्यं (पात) रक्षतु” ॥५॥ इति द्वासप्ततितमं सूक्तमेकोनविंशो वर्गश्च समाप्तः ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब विद्वान् उपदेशकों द्वारा मनुष्यमात्र का कल्याण कथन करते हैं।

    पदार्थ

    (नासत्या) हे सत्यवादी विद्वानों ! तुम लोग (आ पश्चातात्) भले प्रकार पश्चिम दिशा से (आ पुरस्तात्) पूर्व दिशा से (अधरात्) नीचे की ओर से (उदक्तात्) ऊपर की ओर से (आ विश्वतः) सब ओर से (पाञ्चजन्येन) पाँचों प्रकार के मनुष्यों का (राया) ऐश्वर्य्य बढ़ाओ और (अश्विना) हे अध्यापक तथा उपदेशको ! आप लोग पाँचों प्रकार के मनुष्यों को (आ) भले प्रकार (यातं) प्राप्त होकर सब यह प्रार्थना करो कि हे परमात्मन् ! (यूयं) आप (सदा) सदा (स्वस्तिभिः) मङ्गलरूप वाणियों द्वारा (नः) हमारे ऐश्वर्य्य की (पात) रक्षा करें ॥५॥

    भावार्थ

    मन्त्र में जो “पञ्चजनाः” पद आया है, वह वैदिक सिद्धान्तानुसार पाँच प्रकार के मनुष्यों का वर्णन करता है अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र और पाँचवें दस्यु, जिनको ‘निषाद’ भी कहते हैं। वास्तव में वर्ण चार ही हैं, परन्तु मनुष्यमात्र का कल्याण अभिप्रेत होने के कारण पाँचवें दस्युओं को भी सम्मिलित करके परमात्मा उपदेश करते हैं कि हे सत्यवादी विद्वानों ! आप लोग सब ओर से मनुष्यमात्र को प्राप्त होकर वैदिक धर्म का उपदेश करो, जिससे सब प्रजाजन सुकर्मों में प्रवृत्त होकर ऐश्वर्य्यशाली हों ॥ तात्पर्य्य यह है कि जो पुरुष सदा विद्वानों की सङ्गति में रहते और जिनको विद्वज्जन सब ओर से आकर प्राप्त होते हैं, वे पवित्र भावोंवाले होकर सदा ऐश्वर्य्यसम्पन्न हुए सङ्गति को प्राप्त होते हैं ॥ यहाँ “पञ्चजनाः” शब्द से यह भी है कि जिनमें गुण कर्म स्वभाव से कोई वर्ण स्थिर नहीं किया जा सकता था, उनको दस्यु वा निषाद कहते थे, क्योंकि वेद में चारों वर्णों का वर्णन स्पष्ट है। इससे सिद्ध है कि आर्यों में वर्णव्यवस्था वैदिक समय से गुणकर्मानुसार मानी जाती थी, जन्म से नहीं ॥ जिन लोगों का यह कथन है कि सनातन समय में वर्णव्यवस्था जन्म पर निर्भर थी, यह सर्वथा मिथ्या है, क्योंकि “ब्रह्मा देवानां पदवीं” ॥ ऋ० मं० ९।९६ ॥ और “तमेव ऋषिं तमु ब्रह्माणमाहुः” ॥ ऋ० म० १०।१०७ ॥ इत्यादि मन्त्रों में स्पष्ट है कि ब्रह्मा, ऋषि वा ब्राह्मणत्वादि धर्म वेद में सब गुण-कर्मानुसार माने गये हैं, जन्म से नहीं ॥ और जो लोग यह कहते हैं कि वैदिक समय में वर्णव्यवस्था थी ही नहीं और पुरुषसूक्तादि स्थल जिनमें वर्णव्यवस्था पाई जाती है, वे पीछे से मिलाये गये हैं, यह कथन भी ठीक नहीं, क्योंकि यदि पुरुषसूक्त पीछे से मिलाया हुआ होता, तो किसी एक वेद में होता, परन्तु चारों वेदों में पाये जाने और “पञ्चजनाः” आदि शब्दों से पाँच प्रकार के मनुष्यों का ग्रहण होने से स्पष्ट है कि “ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीत्” ॥यजु० ३१।१४॥ इत्यादि मन्त्रों में परमात्मा ने गुणकर्मानुसार वर्णों का विभाग किया है, जन्मानुसार नहीं और यह भाव पुरुषसूक्त में स्पष्ट है अथवा इसके अर्थ ये भी हैं कि जो लोग प्राण, अपान, व्यान, समान, उदान इन पाँचों में होनेवाली प्राणविद्या के ऐश्वर्य्य को जाननेवाले योगीजन हैं। उनसे शिक्षा लेने का विधान उक्त मन्त्र में है। वर्णविषयक जो इस मन्त्र के अर्थ हैं, वे आधिभौतिक हैं और प्राणविद्याविषयक जो अर्थ किये हैं, वे आध्यात्मिक हैं, इसलिए कोई विरोध नहीं ॥५॥ यह ७२वाँ सूक्त और १९वाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥

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    विषय

    विद्वान् स्त्री-पुरुषों के कर्तव्य ।

    भावार्थ

    हे ( नासत्या ) कभी असत्य व्यवहार न करने हारे, सत्पुरुषों के हित के विरुद्ध कभी न करने वाले जनो ! ( पश्चातात् पुरस्तात् अधरात् उदक्तात् ) पश्चिम, पूर्व, उत्तर और दक्षिण से भी आप लोग ( पाञ्चजन्येन राया ) पांचों जनों के हितकारी धन सहित ( विश्वतः आ यातम् ) सभी ओर से आया जाया करो । ( यूयं स्वस्तिभिः सदा नः पात ) हे विद्वान् जनो ! आप लोग हमें उत्तम साधनों से रक्षा करो । इत्येकोनविंशो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषिः ॥ अश्विनौ देवते ॥ छन्दः – १, २, ३, ४ निचृत् त्रिष्टुप् । ५ विराट् त्रिष्टुप् ॥ पञ्चर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    जनहित

    पदार्थ

    पदार्थ- हे (नासत्या अश्विना) = कभी असत्य व्यवहार न करने हारे जनो! (पश्चातात् पुरस्तात् अधरात् उदक्तात्) = पश्चिम, पूर्व, उत्तर और दक्षिण से भी आप लोग (पाञ्चजन्येन राया) = पाँचों जनों के हितकारी धन-सहित (विश्वतः आ यातम्) = सभी ओर आया-जाया करो। (यूयं स्वस्तिभिः सदा नः पात) = आप हमारी उत्तम साधनों से रक्षा करो।

    भावार्थ

    भावार्थ- सदाचारी पुरुष मनुष्य मात्र के हित के लिए सदुपदेश करते हुए समस्त दिशाओं में आते-जाते रहें। इससे प्रजा जनों का अत्यन्त हित होगा। अगले सूक्त का ऋषि वसिष्ठ और देवता अश्विनौ ही है।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Ashvins, holy harbingers of the light of truth and law of eternity and permanent values, pray come from behind, come from front, come from below, come from above, come all round from all directions of the world with the wealth of life for all the people of the earth. O holy powers of light and wealth of excellence, protect and promote us with all time peace and well being for all people.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    मंत्रात जे ‘पाञ्चजना’ पद आलेले आहे ते वैदिक सिद्धान्तानुसार पाच प्रकारच्या माणसांचे वर्णन करते. अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र व पाचवे दस्यू ज्यांना निषादही म्हणतात. वास्तविक वर्ण चारच आहेत; परंतु मनुष्यमात्राचे कल्याण अभिप्रेत असल्यामुळे पाचव्या दस्यूला ही सम्मिलित करून परमात्मा उपदेश करतो, की हे सत्यवादी विद्वानांनो! तुम्ही सर्वत्र माणसांना वैदिक धर्माचा उपदेश करा. ज्यामुळे सर्व प्रजा सुकर्मात प्रवृत्त होऊन ऐश्वर्यवान बनावी.

    टिप्पणी

    तात्पर्य हे की जे पुरुष सदैव विद्वानांच्या संगतीत राहतात व ज्यांना विद्वान सर्वत्र मिळतात ते पवित्र भावयुक्त बनून सदैव ऐश्वर्य संपन्न संगतीचा लाभ घेतात. $ येथे ‘पञ्चजना’ शब्दाने हेही कळते, की ज्यांच्यामध्ये गुण, कर्म स्वभावानुसार कोणताही वर्ण स्थिर करता येत नाही. त्यांना दस्यू किंवा निषाद म्हणत असत. कारण वेदात चारही वर्णांचे वर्णन स्पष्ट आहे. यावरून सिद्ध होते, की आर्यांमध्ये वर्णव्यवस्था वैदिक काळापासून गुणकर्मानुसार मानली जात होती. $ ज्या लोकांचे हे कथन आहे, की सनातन काळी वर्णव्यवस्था जन्मावर अवलंबून होती. ती संपूर्णपणे मिथ्या आहे. कारण ‘ब्रह्मा देवानां पदवीं’ ॥ ऋग्वेद मं. ९/९६ व ‘तमेम ऋषिं तमु ब्रह्माणमाहु:’ ॥ऋ. मं. १०/१०७॥ इत्यादी मंत्रांत स्पष्ट आहे, की ब्रह्मा, ऋषी किंवा ब्राह्मणत्व इत्यादी धर्म वेदात गुणकर्मानुसार मानलेले आहेत. जन्माने नव्हे. $ जे लोक वैदिक काळात वर्णव्यवस्था नव्हती पुरुष सुक्तात वर्णव्यवस्था आढळते ती नंतर जोडली गेली असे मानतात हे म्हणणे बरोबर नाही. कारण पुरुषसूक्त नंतर जोडले गेले तर कोणत्या तरी एका वेदात आढळले असते; परंतु चारही वेदांत आढळणारे व ‘पञ्चजना’ इत्यादी शब्दाने पाच प्रकारच्या माणसांचे ग्रहण झाल्यामुळे स्पष्ट आहे, की ‘ब्राह्मणोस्य मुखमासीत्’ ॥ यजु. ३१/१४’ इत्यादी मंत्रात परमेश्वराने गुणकर्मानुसार वर्णांचे विभाजन केलेले आहे. जन्मानुसार नाही व हा भाव पुरुषसूक्तात स्पष्ट आहे. याचा अर्थ असाही आहे जे प्राण, अपान, व्यान, समान, उदान या पाचात होणाऱ्या प्राणविद्येचे ऐश्वर्य जाणणारे योगी असतात त्यांच्यापासून शिक्षण घेण्याचे विधान वरील मंत्रात आहे. वर्णांविषयी जो या मंत्राचा अर्थ आहे तो आधिभौतिक व प्राणाविषयी जो अर्थ आहे तो आध्यात्मिक आहे. त्यामुळे यात विरोध नाही. ॥५॥

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