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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 89 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 89/ मन्त्र 3
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - वरुणः छन्दः - आर्षीगायत्री स्वरः - षड्जः

    क्रत्व॑: समह दी॒नता॑ प्रती॒पं ज॑गमा शुचे । मृ॒ळा सु॑क्षत्र मृ॒ळय॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    क्रत्वः॑ । स॒म॒ह॒ । दी॒नता॑ । प्र॒ति॒ऽई॒पम् । ज॒ग॒म॒ । शु॒चे॒ । मृ॒ळ । सु॒ऽक्ष॒त्र॒ । मृ॒ळय॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    क्रत्व: समह दीनता प्रतीपं जगमा शुचे । मृळा सुक्षत्र मृळय ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    क्रत्वः । समह । दीनता । प्रतिऽईपम् । जगम । शुचे । मृळ । सुऽक्षत्र । मृळय ॥ ७.८९.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 89; मन्त्र » 3
    अष्टक » 5; अध्याय » 6; वर्ग » 11; मन्त्र » 3
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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (समह) हे सर्वशक्तिमन् परमात्मन् ! (क्रत्वः) सत्कर्माचरणेन (दीनता) दैन्येन (प्रतीपम्) प्रतिकूलमाचरं (मृळ) हे परमात्मन् ! रक्ष (सुक्षत्र) हे विश्वपालक ! (मृळय) मां सुकर्मयोग्यं विधाय सुखय येन त्वां सेवेय ॥३॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (समह) हे सर्वशक्तिमन् परमात्मन् ! (क्रत्वः) सत्कर्मों के आचरण से (दीनता) दीनता करके (प्रतीपं) मैं प्रतिकूल आचरण करता रहा, (मृळ) हे परमात्मन् ! आप मेरी रक्षा करें, (सुक्षत्र) हे सर्वरक्षक परमात्मन् ! आप (मृळय) मुझे योग्य बनायें, ताकि मैं कर्मों का अनुष्ठान कर सकूं ॥३॥

    भावार्थ

    पुरुष अपनी निर्बलता से शुभकर्मों को जानता हुआ भी उनका अनुष्ठान नहीं कर सकता, प्रत्युत अपनी दीनता से उनके विरुद्ध आचरण करता है, इसलिए इस मन्त्र में परमात्मा ने उपदेश किया है कि हे वैदिक धर्म्मानुयायी पुरुषो ! तुम उद्योगी बनने के लिए परमात्मा से सदैव प्रार्थना करो कि हे परमात्मन् ! आप हमको आत्मिक बल दें, ताकि हम कर्मानुष्ठानी बनकर अकर्म्मण्यतारूप दोष को दूर करके सत्कर्मी बनें ॥३॥

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    विषय

    दुःखी जीव की विनीत प्रार्थना ।

    भावार्थ

    हे ( समह ) उत्तम पूज्य ! ऐश्वर्यवन् ! ( दीनता ) दीन होने के कारण मैं ( क्रत्वः ) सत् कर्म और सत् ज्ञान के ( प्रतीपं ) बिलकुल विपरीत चला गया हूं और ( शुचे ) बड़ा शोक करता हूं । अथवा हे ( शुचे ) शुद्ध पवित्र स्वरूप प्रभो ! ( दीनता ) दैन्यभाव ( समह = सम्-अह ) अवश्य ( क्रत्वः प्रतीपं जगम ) कर्मशील या उद्योगी पुरुष या उद्योग से विपरीत दिशा में जाता है । हे ( सु-क्षत्र ) उत्तम धन और बलशालिन् ! तू ( मृड, मृडय ) सुखी कर, हम पर कृपा कर ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषिः । वरुणो देवता ॥ छन्दः—१—४ आर्षी गायत्री । ५ पादनिचृज्जगती ॥ सप्तर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    उत्तम बालवाले मुझ पर कृपा कर

    पदार्थ

    पदार्थ- हे (सम) =ह पूज्य ! (दीनता) = दीन होने के कारण मैं (क्रत्वः) = सत् कर्म और सत् ज्ञान के (प्रतीपं जगम) = विपरीत चला गया हूँ और (शुचे) = शोक करता हूँ। अथवा हे (शुचे) = शुद्ध प्रभो ! हे (सु क्षत्र) = बलशालिन् ! तू (मृड, मृडय) = सुखी कर, कृपा कर।

    भावार्थ

    भावार्थ-दुर्बल मानसिकता का मनुष्य सत्कर्मों को छोड़ दुष्कर्मों में लग जाता है इससे महान् दुःख पाता है। अतः मनुष्य उत्तम बलवाले परमेश की शरण में जाकर उसकी कृपा का पात्र बनने का प्रयास करे।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O lord of holy action and magnanimity, if by weakness or error I go astray or move into the opposite direction, then, O noble ruler, be gracious and kind and save me.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    पुरुष शुभकर्मांना जाणूनही निर्बलतेमुळे त्यांचे अनुष्ठान करू शकत नाही. आपल्या दीनतेमुळे त्यांच्या विरुद्ध आचरण करतो. तेव्हा या मंत्रात परमात्म्याने उपदेश केलेला आहे, की हे वैदिक धर्मानुयायी पुरुषांनो! तुम्ही उद्योगी बनण्यासाठी परमेश्वराची सदैव प्रार्थना करा. हे परमेश्वरा! तू आम्हाला आत्मिक बल दे. त्यामुळे आम्ही कर्मानुष्ठानी बनून अकर्मण्यतारूपी दोषांना दूर करून सत्कर्मी बनावे. ॥३॥

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