ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 89/ मन्त्र 4
अ॒पां मध्ये॑ तस्थि॒वांसं॒ तृष्णा॑विदज्जरि॒तार॑म् । मृ॒ळा सु॑क्षत्र मृ॒ळय॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒पाम् । मध्ये॑ । त॒स्थि॒ऽवांस॑म् । तृष्णा॑ । अ॒वि॒द॒त् । ज॒रि॒तार॑म् । मृ॒ळ । सु॒ऽक्ष॒त्र॒ । मृ॒ळय॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अपां मध्ये तस्थिवांसं तृष्णाविदज्जरितारम् । मृळा सुक्षत्र मृळय ॥
स्वर रहित पद पाठअपाम् । मध्ये । तस्थिऽवांसम् । तृष्णा । अविदत् । जरितारम् । मृळ । सुऽक्षत्र । मृळय ॥ ७.८९.४
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 89; मन्त्र » 4
अष्टक » 5; अध्याय » 6; वर्ग » 11; मन्त्र » 4
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अष्टक » 5; अध्याय » 6; वर्ग » 11; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(अपाम्) कर्मणां (मध्ये) विषये (तस्थिवांसम्) स्थितं (जरितारम्) वृद्धावस्थां गतं मां (तृष्णा) पिपासा (अविदत्) व्याप्तवती (मृळा) हे परमात्मन् ! सुखय (सुक्षत्र) हे सर्वरक्षक ! (मृळय) सर्वथा सुखय ॥४॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(अपां) कर्म्मों के (मध्ये) मध्य में (जरितारम्) वृद्धावस्था को प्राप्त (तस्थिवांसं) स्थित मुझको (तृष्णा, अविदत्) तृष्णा व्याप्त हो गयी है। (मृळा) हे परमात्मन् ! आप मुझको इससे सुखी करें (सुक्षत्र) हे सर्वरक्षक परमात्मन् ! आप मुझे (मृळय) सुखी बनाएँ ॥४॥
भावार्थ
कर्म्मों के मनोरथरूपी सागर में पड़ा-पड़ा मनुष्य बूढ़ा हो जाता है और कर्म्मों का अनुष्ठान नहीं कर सकता। जिस पर परमात्मदेव की कृपा होती है, वही कर्म्मों का अनुष्ठान करके कर्म्मयोगी बनता है, अन्य नहीं, वा यों कहो कि उद्योगी पुरुष को ही परमात्मा अपनी कृपा का पात्र बनाते हैं, अन्य को नहीं। इसी अभिप्राय से परमात्मा ने इस मन्त्र में कर्म्मयोग का उपदेश किया है। कई एक लोग उक्त मन्त्र का यह अर्थ करते हैं कि समुद्र के जल में डूबता हुआ पुरुष इस मन्त्र में वरुण देवता की उपासना करता है और यह कहता है कि “लवणोत्कटस्य समुद्रजलस्य पानानर्हत्वात्” ॥ कि मैं समुद्र के जल के क्षार होने के कारण इसे पी नहीं सकता। यह अर्थ सर्वथा वेद के आशय से बाह्य है, क्योंकि यहाँ जल में डूबने का क्या प्रकरण ? यहाँ तो इससे प्रथम मन्त्र में कर्मों के प्रतिकूल आचरण का प्रकरण था, इसलिए यहाँ भी यही प्रकरण है। अन्य युक्ति यह है कि इस ११वें वर्ग के प्रारम्भ से ही कर्म्मों का प्रकरण है और (अपां मध्ये) इस वाक्य में (अप) शब्द से कर्म्मों का ग्रहण है, क्योंकि ‘अप’ नाम निरुक्त में कर्म्मों का है, जैसा कि “अपः, अप्नः, दंसः इत्यादीनि षड्विंशतिः कर्म्मनामानि” निघं०।२।१।४॥४॥
विषय
भवतृष्णा से मोचन की प्रार्थना ।
भावार्थ
हे ( सुक्षत्र ) उत्तम बल ऐश्वर्य के स्वामिन् ! ( अपां मध्ये तस्थिवांसं ) जलों के बीच में खड़े ( जरितारं ) रोगादि से जीर्ण होते हुए पुरुष को जैसे ( तृष्णा अविदत् ) प्यास सताती है उसी प्रकार हे प्रभो ! ( जरितारं ) तेरी स्तुति करने वाले ( अपां मध्ये तस्थिवांसं ) आप्त पुरुषों के बीच या प्राणों के बीच में रहने वाले मुझ को भी ( तृष्णा ) भूख प्यास के समान विषय भोगादि की लालसा प्राप्त है, हे प्रभो ! हे ( मृड, मृडय) सब को सुखी करने हारे ! तू मुझे सुखी कर ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः । वरुणो देवता ॥ छन्दः—१—४ आर्षी गायत्री । ५ पादनिचृज्जगती ॥ सप्तर्चं सूक्तम् ॥
विषय
पानी में मीन पियासी
पदार्थ
पदार्थ - हे (सुक्षत्र) = उत्तम बल के स्वामिन् ! (अपां मध्ये तस्थिवांसं) = जलों के बीच में खड़े (जरितारं) = रोगादि से जीर्ण होते हुए पुरुष को जैसे (तृष्णा अविदत्) = प्यास सताती है वैसे ही हे प्रभो ! (जरितारं) तेरे स्तोता (अपां मध्ये तस्थिवांसं) = आप्त पुरुषों के बीच या प्राणों से पूर्ण शरीर के बीच रहनेवाले मुझको भी (तृष्णा) = भूख-प्यास के समान विषय - भोगादि की लालसा प्राप्त है, हे प्रभो ! हे (मृड, मृडय) = सबको सुखी करने हारे! तू मुझे सुखी कर ।
भावार्थ
भावार्थ- परमात्मा परम आनन्द का सागर है किन्तु विषय भोगों में फँसा हुआ अज्ञानी जीव उसके आनन्द को वैसे ही प्राप्त नहीं कर पाता जैसे तृषा रोग का जीर्ण रोगी पानी में खड़ा रहकर भी प्यास से तृषित ही रहता है। अतः भोग-विलास को छोड़ ईश शरण में जाकर सुखी हो ।
इंग्लिश (1)
Meaning
I stand stranded in the midst of waters, but still thirst torments me, the celebrant. I stand rooted in the heart of karma, yet ambition overwhelms me, the devotee. O lord of magnanimous order, save me, bless me.
मराठी (1)
भावार्थ
कर्मांच्या मनोरथरूपी (कामनारूपी) सागरात पडल्या पडल्या मनुष्य वृद्ध होऊन जातो; पण कर्मांचे अनुष्ठान करू शकत नाही. ज्याच्यावर परमात्मदेवाची कृपा होते तोच कर्मांचे अनुष्ठान करून कर्मयोगी बनतो, अन्य नव्हे. उद्योगी पुरुषालाच परमात्मा आपल्या कृपेचे पात्र बनवितो. इतरांना नव्हे! यादृष्टीनेच परमात्म्याने या मंत्रात कर्मयोगाचा उपदेश केलेला आहे.
टिप्पणी
कित्येक लोक मंत्राचा हा अर्थ करतात, की समुद्राच्या पाण्यात बुडणारा पुरुष या मंत्रात वरुण देवतेची उपासना करतो व हे म्हणतो की, ‘‘लवणोत्कटस्य समुद्रजलस्य पानानर्हत्त्वात्’’ ॥ मी समुद्राच्या जलात क्षार असल्यामुळे पिऊ शकत नाही. हा अर्थ सर्वस्वी वेदाच्या विरुद्ध आहे. कारण येथे जलात बुडण्याचे काय कारण? येथे तर यापूर्वीच्या मंत्रात कर्माच्या प्रतिकूल आचरणाचे प्रकरण होते. यामुळे येथेही हेच प्रकरण आहे. दुसरी युक्ती ही आहे, यात प्रारंभापासूनच कर्माचे प्रकरण आहे व (अपांमध्ये) या वाक्यात (अप) शब्दाने कर्माचे ग्रहण आहे. कारण अप नाव निरुक्तामध्ये कर्माचे आहे. (अप:) अप्न: - दंस: इत्यादींनि षड्विंशति कर्म्मनामानि । नि घं. २।१।४॥४॥
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