ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 4/ मन्त्र 21
ऋषिः - देवातिथिः काण्वः
देवता - कुरुङ्स्य दानस्तुतिः
छन्दः - विराडुष्निक्
स्वरः - ऋषभः
वृ॒क्षाश्चि॑न्मे अभिपि॒त्वे अ॑रारणुः । गां भ॑जन्त मे॒हनाश्वं॑ भजन्त मे॒हना॑ ॥
स्वर सहित पद पाठवृ॒क्षाः । चि॒त् । मे॒ । अ॒भि॒ऽपि॒त्वे । अ॒र॒र॒णुः॒ । गाम् । भ॒ज॒न्त॒ । मे॒हना॑ । अश्व॑म् । भ॒ज॒न्त॒ । मे॒हना॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
वृक्षाश्चिन्मे अभिपित्वे अरारणुः । गां भजन्त मेहनाश्वं भजन्त मेहना ॥
स्वर रहित पद पाठवृक्षाः । चित् । मे । अभिऽपित्वे । अररणुः । गाम् । भजन्त । मेहना । अश्वम् । भजन्त । मेहना ॥ ८.४.२१
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 4; मन्त्र » 21
अष्टक » 5; अध्याय » 7; वर्ग » 33; मन्त्र » 6
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अष्टक » 5; अध्याय » 7; वर्ग » 33; मन्त्र » 6
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भाष्य भाग
संस्कृत (2)
पदार्थः
(मे, अभिपित्वे) मया द्रव्ये प्राप्ते (गाम्, भजन्त, मेहना) मंहनीयं गोधनमलभन्त (अश्वम्, भजन्त, मेहना) मंहनीयमश्वधनमलभन्त इति (वृक्षाः, चित्) वृक्षा अपि (अरारणुः) अशब्दायन्त ॥२१॥ इति चतुर्थं सूक्तं त्रयस्त्रिंशो वर्गश्च समाप्तः ॥
विषयः
मानवशरीरमहिमा प्रदर्श्यते ।
पदार्थः
मानवशक्तिं दृष्ट्वेतरे सर्वे पदार्थाः स्पर्धन्त इत्यनया शिक्षते । यथा−मे=मम मनुष्यस्येन्द्रियादीनाम् । अभिपित्वे=प्राप्तौ । इमे । वृक्षाः+चित्=वृक्षा अपि । वक्ष्यमाणप्रकारेण । अरारणुः=अशब्दयन्=शब्दायन्ते । कथमिति तदाह−इमे मनुष्याः । मेहना=मेहनीयां प्रशस्याम् । गाम्=इन्द्रियम् । भजन्त=असेवन्त=प्राप्तवन्तः । तथा । मेहना=प्रशस्यम् । अश्वं मनोरूपम् । भजन्त । यद्वा । मेहनेति− मे+इह+नेति−पदत्रयात्मकं पदम् । मे=मम । इह देहे । यद्धनमिन्द्रियादिस्वरूपम् । नास्ति । तद् गवादिकं धनम् । इमे मनुष्या लभन्त इति वृक्षादयः सर्वे कथयन्तीति मन्ये । आलङ्कारिकमिदं वर्णनम् ॥२१ ॥
हिन्दी (4)
पदार्थ
(मे, अभिपित्वे) मुझको द्रव्य प्राप्त होने पर (गां, भजन्त, मेहना) श्रेष्ठ गोधन को पाया (अश्वं, भजन्त, मेहना) श्रेष्ठ अश्वों को पाया, ऐसा (वृक्षाः, चित्) वृक्ष भी (अरारणुः) शब्द करने लगे ॥२१॥
भावार्थ
ऋषि की ओर से कथन है कि मुझको गोधनरूप धन प्राप्त होने पर बड़ा आनन्द प्राप्त हुआ और मूर्ख से लेकर पण्डितपर्य्यन्त सब जन इस दान की प्रशंसा करने लगे, मन्त्र में “वृक्ष” शब्द से तात्पर्य्य जड़=मूर्ख का है, वृक्ष का नहीं, क्योंकि वृक्ष में शब्द करने की शक्ति नहीं होती ॥२१॥ यह चौथा सूक्त और तेतीसवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
विषय
मानव शरीर का महत्त्व दिखलाया जाता है ।
पदार्थ
मानव की शक्ति देखकर मानो अन्य सब जीव स्पर्धा करते हैं । यथा−(मे) मुझ मनुष्य के इन्द्रियों की (अभिपित्वे) प्राप्ति पर (वृक्षाः+चित्) वृक्ष भी (अरारणुः) चिल्ला उठते हैं कि ये मनुष्य (मेहना) प्रशंसनीय (गाम्) नयनादि इन्द्रियों को (भजन्त) पाए हुए हैं तथा (मेहना) प्रशंसनीय (अश्वम्) मनोरूप अश्व को पाए हुए हैं । यद्वा “मेहना” इसमें (मे+इह+न) तीन पद हैं । तब ऐसा अर्थ होगा । वृक्षादिक कहते हैं कि (इह) इस मेरे वृक्ष शरीर में (मे) मुझको (न) जो धन नहीं है, वह (गाम्) इन्द्रियरूप धन ये मनुष्य पाये हुए हैं, इसी प्रकार मनोरूप अश्व पाये हुए हैं ॥२१ ॥
भावार्थ
हे मनुष्यो ! परमात्मा मनुष्यजाति को जो दान देता है, उसको कोई वर्णन नहीं कर सकता, मनुष्य का दान देखकर जड़ वृक्ष भी स्पर्धा करते हैं । ऐसा दान पाकर भी यदि तुम महान् कार्य्य नहीं साधते हो, तब तुम्हारी महती विनष्टि है ॥२१ ॥
टिप्पणी
यह अष्टम मण्डल का चतुर्थ सूक्त, तैंतीसवाँ वर्ग और सप्तम अनुवाक समाप्त हुआ ॥
विषय
राजा प्रजा का गृहस्थवत् व्यवहार । राजा के राष्ट्र के प्रति कर्त्तव्य ।
भावार्थ
( वृक्षाः चित् ) वृक्ष जिस प्रकार वायु का झकोरा लगने पर मर्मर ध्वनि करते हैं, वे जिस प्रकार ( मेहना ) वृष्टियुक्त (गां भजन्त ) भूमि का सेवन करते हैं और ( मेहना अश्वं भजन्त ) वृष्टिकारक आशुगामी वायु का सेवन करते हैं उसी प्रकार ( मे ) मुझ स्वामी को ( अभिपित्वे ) प्राप्त होने पर ( वृक्षाः चित् ) भूमि को वश करके बैठे हुए भूपति लोग भी ( अरारणुः ) हर्षध्वनि करते हैं । वे ( गां ) उत्तम भूमि को ( भजन्त ) प्राप्त करते तथा ( मेहना अश्वं भजन्त ) उत्तम अश्वादि सैन्य को प्राप्त करते हैं। इति त्रयस्त्रिंशोवर्गः। इति सप्तमोऽध्यायः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
देवातिथि: काण्व ऋषिः ॥ देवताः—१—१४ इन्द्रः। १५—१८ इन्द्रः पूषा वा। १९—२१ कुरुंगस्य दानस्तुतिः॥ छन्दः—१, १३ भुरिगनुष्टुप्। ७ अनुष्टुप्। २, ४, ६, ८, १२, १४, १८ निचृत् पंक्ति:। १० सत पंक्ति:। १६, २० विराट् पंक्ति:। ३, ११, १५ निचृद् बृहती। ५, ६ बृहती पथ्या। १७, १९ विराड् बृहती। २१ विराडुष्णिक्॥ एकविंशत्यृचं सूक्तम्॥
विषय
वेद ध्वनिमय वातावरण
पदार्थ
[१] गत मन्त्र में उस ऋषि का उल्लेख हुआ है जो वेदवाणियों के निरन्तर अपनाने में प्रवृत्त है। यह कहता है कि (मे अभिपित्वे) = मेरे प्राप्त होने पर (वृक्षाः चित्) = वृक्ष भी (अरारणुः) = इन वेदवाणियों का ही उच्चारण करते हैं। अर्थात् इसका सारा वातावरण ही वेदवाणीमय हो जाता है। ऐसा होने पर यह स्वाभाविक ही है कि किसी प्रकार की विषय-वासनाओं की वहाँ स्थिति न हो। यह वासनाशून्यता शरीर में सोमरक्षण की अनुकूलतावाली होती है। [२] ऐसा होने पर ये लोग (मेहना) = सोम शक्ति के शरीर में सेचन के द्वारा (गां भजन्त) = प्रशस्त ज्ञानेन्द्रियों को प्राप्त करते हैं। (मेहना) = इस शक्ति सेचन के द्वारा (अश्वं भजन्त) = प्रशस्त कर्मेन्द्रियों को प्राप्त करते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- हमारा सारा वातावरण वेदवाणियों की ध्वनि से पूर्ण हो हम सोम शक्ति के शरीर में सेचन के द्वारा प्रशस्त ज्ञानेन्द्रियों व प्रशस्त कर्मेन्द्रियों को प्राप्त करें। यह वेदध्वनिमय वातावरण में निवास करनेवाला, सोम का शरीर में सेचन करके इन्द्रियों को प्रशस्त बननेवाला साधक 'ब्रह्मातिथि' होता है, ब्रह्म की ओर निरन्तर चलनेवाला। यह ' काण्व' मेधावी होता है। यही अगले सूक्त का ऋषि है-
इंग्लिश (1)
Meaning
On my attainment of the streams of knowledge, the selective, the indifferent, even the critics, burst into applause. Abundent are the streams of knowledge they have got, abundant the body of technology they have achieved!
मराठी (1)
भावार्थ
ऋषी म्हणतात, की मला गोधनरूपी धन प्राप्त झाल्यावर खूप आनंद झाला. मूर्खापासून पंडितापर्यंत सर्व लोक दानाची प्रशंसा करू लागले. मंत्रात ‘वृक्ष’ शब्द जड = मूर्खाबाबत आलेला आहे. वृक्षाबाबत नव्हे, कारण वृक्षामध्ये शब्द उच्चारण करण्याची शक्ती नाही. ॥२१॥
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