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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 4 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 4/ मन्त्र 3
    ऋषिः - देवातिथिः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृद्बृहती स्वरः - मध्यमः

    यथा॑ गौ॒रो अ॒पा कृ॒तं तृष्य॒न्नेत्यवेरि॑णम् । आ॒पि॒त्वे न॑: प्रपि॒त्वे तूय॒मा ग॑हि॒ कण्वे॑षु॒ सु सचा॒ पिब॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यथा॑ । गौ॒रः । अ॒पा । कृ॒तम् । तृष्य॑न् । एति॑ । अव॑ । इरि॑णम् । आ॒ऽपि॒त्वे । नः॒ । प्र॒ऽपि॒त्वे । तूय॑म् । आ । ग॒हि॒ । कण्वे॑षु । सु । सचा॑ । पिब॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यथा गौरो अपा कृतं तृष्यन्नेत्यवेरिणम् । आपित्वे न: प्रपित्वे तूयमा गहि कण्वेषु सु सचा पिब ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यथा । गौरः । अपा । कृतम् । तृष्यन् । एति । अव । इरिणम् । आऽपित्वे । नः । प्रऽपित्वे । तूयम् । आ । गहि । कण्वेषु । सु । सचा । पिब ॥ ८.४.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 4; मन्त्र » 3
    अष्टक » 5; अध्याय » 7; वर्ग » 30; मन्त्र » 3
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    संस्कृत (2)

    पदार्थः

    (यथा) येन प्रकारेण (गौरः) गौरमृगः (तृष्यन्) तृषितः सन् (अपा, कृतं) अद्भिः पूर्णं (इरिणं) तटाकादिकं (अवैति) अभिगच्छति तद्वदेव हि (नः, आपित्वे, प्रपित्वे) अस्माकं सम्बन्धे प्राप्ते (तूयं, आगहि) तूर्यमागच्छ (कण्वेषु) विद्वत्सु मध्य आगत्य (सचा) सह (सु) सुष्ठु रीत्या (पिब) दीयमानभागं सेवताम् ॥३॥

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    विषयः

    अनुग्रहायेन्द्रः प्रार्थ्यते ।

    पदार्थः

    गौरः=गौरमृगो गवयः । तृष्यन्=पिपासन्=तृषार्त्तः सन् । यथा=येन प्रकारेण । अपा=अद्भिर्जलैः । अत्र व्यत्ययेनैकवचनम् । कृतम्=पूर्णं कृतम् । इरिणम्=जलाशयम् । अवैति=जानाति । अभिमुखः सन् शीघ्रं गच्छति च । तथा । हे इन्द्र ! त्वमपि । आपित्वे=बन्धुत्वे । त्वया सह । प्रपित्वे=प्राप्ते सति । नः=अस्मान् ग्रन्थप्रणेतॄन् । तूयम्=शीघ्रम् । आगहि=आगच्छ=प्राप्नुहि । तथा । कण्वेषु=ग्रन्थप्रणेतृषु । सचा=सहैव । सु=सुष्ठु । पिब=अनुगृहाण ॥३ ॥

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    हिन्दी (4)

    पदार्थ

    (यथा) जिस प्रकार (गौरः) गौरमृग (तृष्यन्) प्यासार्त हुआ (अपा, कृतं) जल से पूर्ण (इरिणं) सरोवर के अभिमुख (अवैति) जाता है, इसी प्रकार (नः, आपित्वे, प्रपित्वे) हमारे साथ सम्बन्ध प्राप्त होने पर (तूयं, आगहि) शीघ्र आइये और (कण्वेषु) विद्वानों के मध्य में आकर (सचा) साथ-साथ (सु) भले प्रकार (पिब) अपने भाग का पान कीजिये ॥३॥

    भावार्थ

    हे ऐश्वर्य्यसम्पन्न तथा ऐश्वर्य्य के दाता कर्मयोगिन् ! जिस प्रकार पिपासार्त मृग शीघ्रता से जलाशय को प्राप्त होता है, इसी प्रकार उत्कट इच्छा से आप हम लोगों को प्राप्त हों और विद्वानों के मध्य उत्तमोत्तम पदार्थ तथा सोमरस का सेवन करें ॥३॥

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    विषय

    इससे अनुग्रह के लिये इन्द्र की प्रार्थना की जाती है ।

    पदार्थ

    (यथा) जैसे (गौरः) मौर मृगगवय (तृष्यन्) पिपासित होकर (अपा) जलों से (कृतम्) परिपूर्ण (इरिणम्) जलाशय को (अवैति) जानता है और जानकर वहाँ पहुँचता है । वैसा ही तेरे साथ (आपि१त्वे) बन्धुत्व (प्रपित्वे) प्राप्त होने पर अथवा (आपित्वे) प्रातःकाल और (प्रपित्वे) सायंकाल (नः) हम ग्रन्थरचयिता मनुष्यों की ओर (तूयम्) शीघ्र (आगहि) आ । तथा (कण्वेषु) ग्रन्थरचयिता हम लोगों के ऊपर (सचा) साथ ही (सु) अच्छे प्रकार (पिब) अनुग्रह कर ॥३ ॥

    भावार्थ

    ईश्वर हमारा पिता और माता है, अतः जैसे पुत्र प्रेम से माता पिता को बुलाता, वैसे ही उपासक भी यहाँ उसको बुलाता है । तृषार्त मृग व्याकुल हो जलाशय की ओर दौड़ता है, तथैव हे ईश ! हमारे क्लेशों को थोड़े करने के लिये आ । हम तेरे पुत्र रक्षणीय हैं ॥३ ॥

    टिप्पणी

    १−आपित्व=आपि शब्द बन्धु के अर्थ में बहुत प्रयुक्त हुआ है, परन्तु ‘प्रपित्व’ शब्द सायंकाल के अर्थ में प्रायः आता है, इस कारण साहचर्य से दोनों का अर्थ प्रातः और सायं भी किया गया है ॥ ८ । १ । २९ देखिये ॥३ ॥

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    विषय

    आत्मा का वर्णन ।

    भावार्थ

    ( यथा ) जिस प्रकार ( गौरः ) गौओं में रति, अनुरागादि करने वाला वृषभ पशु वा गौर नाम मृग, ( तृष्यन् ) प्यासा होकर ( अपा कृतम् ) जल से भरे ( इरिणम् ) जलाशय को ( अवः एति ) प्राप्त होता है उसी प्रकार ( गौरः ) 'गो' इन्द्रियों में रमण करने वाला जीव, ( तृष्यन् ) तृष्णायुक्त होकर ( अपा ) जलादि के विकाररूप रुधिरादि से ( कृतं ) बने ( इरिणम् ) 'इरा' अन्न के विकार से बने देह को ( अव एति ) प्राप्त होता है। हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! आत्मन् ! तू ( नः ) हमारे (आपित्वे) बन्धुभाव को ( प्रपित्वे ) प्राप्त होने पर ( नः ) हमें ( तूयम् ) शीघ्र ही ( आ गहि ) प्राप्त हो। और ( कण्वेषु ) विद्वान् जनों के बीच में ( सचा ) साथ रहकर ( सु-पिब ) अच्छी प्रकार मोक्ष-आनन्द रस का पान कर। इसी प्रकार 'गो' भूमियों में रमण करने वाला राजा जल से युक्त ( इरिणं ) अन्नादि युक्त प्रदेश को अर्थतृषित होकर प्राप्त करे। वह विद्वानों को प्राप्त हो, उनके बीच में रहकर राष्ट्र-ऐश्वर्य का उत्तम रीति से भोग और पालन करे।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    देवातिथि: काण्व ऋषिः ॥ देवताः—१—१४ इन्द्रः। १५—१८ इन्द्रः पूषा वा। १९—२१ कुरुंगस्य दानस्तुतिः॥ छन्दः—१, १३ भुरिगनुष्टुप्। ७ अनुष्टुप्। २, ४, ६, ८, १२, १४, १८ निचृत् पंक्ति:। १० सत पंक्ति:। १६, २० विराट् पंक्ति:। ३, ११, १५ निचृद् बृहती। ५, ६ बृहती पथ्या। १७, १९ विराड् बृहती। २१ विराडुष्णिक्॥ एकविंशत्यृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    प्यासा मृग जैसे जलधारा पर

    पदार्थ

    [१] प्रभु कहते हैं (यथा) = जैसे (गौर:) = एक मृग (तृष्यन्) = प्यासा होता हुआ अपा (कृतम्) = जल से बने हुए, जल से युक्त (इरिणम्) = एक जलप्रवाह की (अव एति) = ओर आता है, इसी प्रकार है जीव ! तू भी (नः) = हमारे (प्रपित्वे) = [अभीके नि०] समीप (आपित्वे) = मित्रता में (तूयं आगति) = शीघ्र आनेवाला हो। वस्तुतः तेरी प्यास यहाँ आकर ही बुझेगी संसार के पदार्थ तेरी प्यास को न बुझायेंगे। उनसे तो तेरी तृष्णा और बढ़ती ही जायेगी। [२] (कण्वेषु) = मेधावी पुरुषों में (सचा) = मेलवाला होता हुआ तू (सु पिब) = अच्छी प्रकार ज्ञान जलों का पान कर। यह ज्ञानजल ही तुझे निर्मल भी बनायेंगे और तेरी प्यास को भी बुझायेंगे। इनसे निर्मल बना हुआ तू हमें प्राप्त होगा।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम प्रभु चरणों में ऐसे उपस्थित हों जैसे एक प्यासा मृग जलधारा पर उपस्थित होता है। मेधावी पुरुषों के सत्संग में हम ज्ञान जलों का पान करें।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Just as a thirsty stag in the desert rushes to a pool full of water so, O friend in family of the wise, come morning, come evening, come fast and drink the soma of love and reverence in joy.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे ऐश्वर्यसंपन्न व ऐश्वर्याचा दाता कर्मयोगी! ज्या प्रकारे पिपासू मृग तात्काळ जलाशयाकडे जातो त्याच प्रकारे उत्कट इच्छेने तुम्ही आम्हाला भेटा व विद्वानाबरोबर उत्तमोत्तम पदार्थ व सोमरसाचे सेवन करा. ॥३॥

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