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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 40 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 40/ मन्त्र 6
    ऋषिः - नाभाकः काण्वः देवता - इन्द्राग्नी छन्दः - भुरिग्जगती स्वरः - निषादः

    अपि॑ वृश्च पुराण॒वद्व्र॒तते॑रिव गुष्पि॒तमोजो॑ दा॒सस्य॑ दम्भय । व॒यं तद॑स्य॒ सम्भृ॑तं॒ वस्विन्द्रे॑ण॒ वि भ॑जेमहि॒ नभ॑न्तामन्य॒के स॑मे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अपि॑ । वृ॒श्च॒ । पु॒रा॒ण॒ऽवत् । व्र॒ततेः॑ऽइव । गु॒ष्पि॒तम् । ओजः॑ । दा॒सस्य॑ । द॒म्भ॒य॒ । व॒यम् । तत् । अ॒स्य॒ । सम्ऽभृ॑तम् । वसु॑ । इन्द्रे॑ण । वि । भ॒जे॒म॒हि॒ । नभ॑न्ताम् । अ॒न्य॒के । स॒मे॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अपि वृश्च पुराणवद्व्रततेरिव गुष्पितमोजो दासस्य दम्भय । वयं तदस्य सम्भृतं वस्विन्द्रेण वि भजेमहि नभन्तामन्यके समे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अपि । वृश्च । पुराणऽवत् । व्रततेःऽइव । गुष्पितम् । ओजः । दासस्य । दम्भय । वयम् । तत् । अस्य । सम्ऽभृतम् । वसु । इन्द्रेण । वि । भजेमहि । नभन्ताम् । अन्यके । समे ॥ ८.४०.६

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 40; मन्त्र » 6
    अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 24; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Also prune, cut off and throw out like the dead wood of a tangled creeper the hoarded wealth, unethical power and outmoded knowledge of the exploiter and the antisocial luxury of the selfish consumer, and control and eliminate the fiendish force of the evil so that we may share and enjoy renewed and refreshing wealth, power and knowledge reorganised and recollected into living forms by Indra. May all poverty, superstitions, alienations and enmities vanish from progressive humanity.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    राष्ट्रात राजाने दुष्ट पुरुषांना केवळ निस्तेज करू नये तर त्यांची तेजस्विता नष्ट करून त्यांचे धन संग्रहित करावे व आपल्या प्रजेत वाटावे. ॥६॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    हे शक्तिशाली शासक! (व्रततेः) बेल के (गुष्पितम्) उलझे गुच्छे को (पुराणवत्) जैसे कि पुराना हो तो सरलता से (वृश्च) काट देते हैं वैसे ही (दासस्य) क्षीण करने वाले विध्वंसक दुष्ट जन के (गुष्पितम्) पुंजीभूत (ओजः) तेज को काट (अपि) और उसे (दम्भय) अपने आदेश के अआधीन कर ले। (वयम्) हम प्रजाजन (अस्य) इसके (तत्) उस (इन्द्रेण) बलशाली राजा इत्यादि द्वारा (सम्भृतम्) एकत्र किए हुए वसुतेजरूपी ऐश्वर्य का (विभजेमहि) बाँटकर सेवन करें॥६॥

    भावार्थ

    राष्ट्र में जो दुष्ट पुरुष हैं राजा न केवल उन्हें निस्तेज ही करे, अपितु उनमें बिखरे हुए सारे ओज व धन को समेट राजा अपनी शिष्ट प्रजा में वितरित कर दे॥६॥

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    विषय

    दुष्ट के धनादान और वश करने की आज्ञा।

    भावार्थ

    जिस प्रकार (पुराणवत्) पुराने ( व्रततेः गुष्पितम् ) लता के शाखा पुञ्ज को कोई सुगमता से ही काट लेता है उसी प्रकार हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! तू ( दासस्य गुष्पितम् ओजः ) प्रजा के नाशक दुष्ट पुरुष के गुप्त बल को ( दम्भय ) नष्ट कर। (अस्य तत् सम्भृतं वसु) उसके उस एकत्र किये धन को हम ( इन्द्रेण ) ऐश्वर्यवान् तेजस्वी राजा के द्वारा ही ( विभजेमहि ) विशेष प्रकार से सेवन करें। और ( अन्यके समे नभन्ताम् ) अन्य समस्त शत्रु भी नष्ट हों। इति चतुर्विंशो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    नाभाक: काण्व ऋषिः॥ इन्दाग्नी देवते॥ छन्दः—१, ११ भुरिक् त्रिष्टुप्। ३, ४ स्वराट् त्रिष्टुप्। १२ निचत् त्रिष्टुप्। २ स्वराट् शक्वरी। ५, ७, जगती। ६ भुरिग्जगती। ८, १० निचृज्जगती। द्वादशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    ओजो दासस्य दम्भय

    पदार्थ

    [१] हे (इन्द्र) = प्रभो ! (दासस्य) = हमारा उपक्षय करनेवाले इस दास [वृत्र] के (ओजः) = ओज को (दम्भय) = विनष्ट करिए। उसी प्रकार (अपि वृश्च) = अवश्य नष्ट करिए, (इव) = जैसेकि (व्रततेः) = बेल के (पुराणवद्) = अत्यन्त पुराने [जीर्ण] हुए हुए (गुष्पितं) = [Interlaced, Interwined ], उलझे हुए शाखासमूह को कोई नष्ट कर देता है। [२] (वयं) = हम (अस्य) = इस दास के (सम्भृतं) = सञ्चित (तद् वसुः) = उस शक्तिरूप धन को (इन्द्रेण) = उस शत्रु विद्रावक प्रभु के द्वारा (विभजेमहि) = विभक्त कर डालें। इस इन्द्र के द्वारा शत्रु की शक्ति को शीर्ण करनेवाले हों । इन्द्र के साहाय्य से हमारे (समे) = सब (अन्यके) = शत्रु (नभन्ताम्) = नष्ट हो जाएँ।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम प्रभु के उपासन से शत्रु की शक्ति को शीर्ण करनेवाले बनें। बेल के पुराने पड़े हुए उलझे हुए शाखासमूह के समान शत्रु को काट डालें।

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