ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 85/ मन्त्र 7
यु॒ञ्जाथां॒ रास॑भं॒ रथे॑ वी॒ड्व॑ङ्गे वृषण्वसू । मध्व॒: सोम॑स्य पी॒तये॑ ॥
स्वर सहित पद पाठयु॒ञ्जाथा॑म् । रास॑भम् । रथे॑ । वी॒ळुऽअ॑ङ्गे । वृ॒ष॒ण्व॒सू॒ इति॑ वृषण्ऽवसू । मध्वः॑ । सोम॑स्य । पी॒तये॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
युञ्जाथां रासभं रथे वीड्वङ्गे वृषण्वसू । मध्व: सोमस्य पीतये ॥
स्वर रहित पद पाठयुञ्जाथाम् । रासभम् । रथे । वीळुऽअङ्गे । वृषण्वसू इति वृषण्ऽवसू । मध्वः । सोमस्य । पीतये ॥ ८.८५.७
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 85; मन्त्र » 7
अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 8; मन्त्र » 2
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अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 8; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Ashvins, complementary harbingers of the showers of wealth, honour and excellence, harness the roaring motive power in your strongly built, unbreakable chariot and go to the house of the celebrant to promote the honey sweets of knowledge and power for the peace and joy of the world.
मराठी (1)
भावार्थ
प्रभूच्या गुणकीर्तनाद्वारे उपासकाचे आत्मिक बल वाढते व हे गुणकीर्तन प्राण व अपानाच्या नियंत्रणाद्वारेच सुगम होते. ॥७॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(वृषण्वसू) बलिष्ठ शरीर को बसानेवाले प्राण व अपान (मध्वः सोमस्य पीतये) माधुर्य आदि गुणसंयुक्त वीर्यशक्ति को खपाने हेतु (वीड्वङ्गे) दृढ़ अवयवों वाले (रथे) जीवनयात्रा के वाहनरूप शरीर में (रासभम्) शब्दायमान, स्तोतारूप अश्व (युञ्जाथाम्) संयुक्त करते हैं। ७॥
भावार्थ
प्रभु कीर्तन के द्वारा उपासक के आत्मिक बल की वृद्धि होती है और यह गुणकीर्तन प्राण व अपान के नियन्त्रण से ही सुगम होता है॥७॥
विषय
विद्वान् जितेन्द्रिय स्त्री पुरुषों के कर्त्तव्य।
भावार्थ
हे ( वृषण्वसू ) बलवान् ब्रह्मचारी जनो ! ( मध्वः सोमस्य पीतये ) आनन्दकारक, सुखजनक ‘सोम’ विद्या माता के गर्भ में उत्पन्न होने वाले शिष्य रूप पुत्र के पालन और उस को ज्ञान रस पान कराने के लिये ( वीडु-अंगे रथे ) दृढांग रथ में (रासभं) उत्तम ध्वनि से अलंकृत अश्व के समान ( वीडु-अंगे ) दृढ़ अंगों को करने में समर्थ ( रथे ) उत्तम उपदेश प्राप्त करने के योग्य आश्रम, ब्रह्मचर्य काल में ( रासभं ) उत्तमः उपदेश से अलंकृत आचार्य को ( युंजाथाम् ) नियुक्त करो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कृष्ण ऋषिः॥ अश्विनौ देवते॥ छन्दः—१, ६ विराड् गायत्री। २, ५, ७ निचृद गायत्री। ३, ४, ६, ८ गायत्री॥ अष्टर्चं सूक्तम्॥
विषय
रथ में रासभ का योजन
पदार्थ
[१] हे (वृषण्वसू) = जीवन के धनों का वर्षण करनेवाले प्राणापानो! आप (वीड्वंगे) = दृढ़ अंगोंवाले इस रथे रथ में (रासभम्) = ऋग्, यजु, सामरूप वाणियों का उच्चारण करनेवाले प्रभु को (युञ्जाथाम्) = युक्त करिये। प्रभु ही मेरे रथ के सञ्चालक हों। प्रभुरूप सारथि को पाकर मैं इस रथ के द्वारा लक्ष्यस्थान पर क्यों न पहुँचूँगा? उस समय, प्रभु की प्रेरणा में मेरा जीवन कितना शुद्ध होगा? विजय ही विजय को प्राप्त करता हुआ मैं अवश्य काम-क्रोध आदि शत्रुओं का विजेता 'जिष्णु' होऊँगा । [२] हे प्राणापानो! इस प्रकार वासनाओं का विनाश करके आप (मध्वः) = जीवन को मधुर बनानेवाले (सोमस्य पीतये) = सोम के रक्षण के लिये होओ। इस सोमरक्षण के द्वारा हम 'सौम्य' जीवनवाले बनें।
भावार्थ
भावार्थ- हमारे शरीररथ के सञ्चालक प्रभु हों, वे हमें 'ज्ञान, कर्म व उपासना' की प्रेरणा देते हुए सोमरक्षण द्वारा सुन्दर जीवनवाला बनाएँ।
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