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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 37 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 37/ मन्त्र 6
    ऋषिः - रहूगणः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    स दे॒वः क॒विने॑षि॒तो॒३॒॑ऽभि द्रोणा॑नि धावति । इन्दु॒रिन्द्रा॑य मं॒हना॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सः । दे॒वः । क॒विना॑ । इ॒षि॒तः । अ॒भि । द्रोणा॑नि । धा॒व॒ति॒ । इन्दुः॑ । इन्द्रा॑य । मं॒हना॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स देवः कविनेषितो३ऽभि द्रोणानि धावति । इन्दुरिन्द्राय मंहना ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सः । देवः । कविना । इषितः । अभि । द्रोणानि । धावति । इन्दुः । इन्द्राय । मंहना ॥ ९.३७.६

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 37; मन्त्र » 6
    अष्टक » 6; अध्याय » 8; वर्ग » 27; मन्त्र » 6
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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (सः) स परमात्मा (देवः) दिव्यगुणसम्पन्नः (कविना इषितः) विद्वद्भिः प्रार्थितः (इन्दुः) परमेश्वरः (मंहना) महान् चास्ति सः (इन्द्राय अभि द्रोणानि) विदुषामन्तःकरणेषु (धावति) विराजते ॥६॥ इति सप्तत्रिंशत्तमं सूक्तं सप्तविंशो वर्गश्च समाप्तः ॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (सः) वह परमात्मा (देवः) दिव्यगुणसम्पन्न है (कविना इषितः) विद्वानों द्वारा प्रार्थित होता है (इन्दुः) परम ऐश्वर्यसम्पन्न है (मंहना) महान् है (इन्द्राय अभि द्रोणानि) विद्वानों के अन्तःकरणों में (धावति) विराजमान होता है ॥६॥

    भावार्थ

    यद्यपि परमात्मा सर्वत्र विद्यमान है, तथापि विद्याप्रदीप से जो लोग अपने अन्तःकरणों को देदीप्यमान करते हैं, उनके हृदय में उसकी अभिव्यक्ति होती है। इस अभिप्राय से यहाँ परमात्मा का विद्वानों के हृदय में निवास करना कथन किया गया है ॥६॥ यह ३७ वाँ और २७ वाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥

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    विषय

    शरीर शोधक सोम

    पदार्थ

    [१] (सः) = वह (देवः) = प्रकाशमय (इन्दुः) = शक्ति को देनेवाला सोम (कविना) = क्रान्तप्रज्ञ समझदार व्यक्ति से (इषितः) = शरीर में प्रेरित हुआ हुआ (द्रोणानि अभि धावति) = शरीर रूप पात्रों को लक्ष्य करके शोधन करनेवाला होता है [धाव् शुद्धौ] । [२] जीवन को शुद्ध बनाकर यह (इन्द्रः) = सोम (इन्द्राय) = इस जितेन्द्रिय पुरुष के लिये (मंहना) = महान् होता है अथवा [मंहते दानकर्मणः] सब वरणीय धनों को देनेवाला होता है। सब वरणीय धनों को प्राप्त कराके यह सोम उस इन्द्र को महान् बनाता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- सुरक्षित सोम शरीर का शोधन करता है। यह सब वरणीय धनों प्राप्त कराके को हमें महान् बनाता है। 'रहूगण' ही अगले सूक्त में भी सोम का प्रशंसन करता हुआ कहता है-

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    विषय

    सत्पात्र में प्रभु का प्रकाश।

    भावार्थ

    (सः) वह (देवः) सब को देने वाला, (कविना इषितः) स्थूल आवरणों को भेद कर गहराई में ज्ञान के द्वारा देखने वाले भक्त से चाहा जाकर (द्रोणानि अभि) पात्रों के समान सत्पात्रों को ही (अभि धावति) प्राप्त होता है। वह (इन्दुः) रस-सागर (इन्द्राय) इस जीक के लिये (मंहना) महान् है। इति सप्तविंशो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    रहूगण ऋषिः॥ पवमानः सोमो देवता॥ छन्दः– १-३ गायत्री। ४–६ निचृद गायत्री॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Self-refulgent generous Soma divine, celebrated by poets, rushes to manifest, brilliant, blissful and great, in the heart of the devotees for the soul’s joy.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जरी परमात्मा सर्वत्र विद्यमान आहे, तरीही विद्या प्रदीपाद्वारे जे लोक आपले अंत:करण देदीप्यमान करतात त्यांच्या हृदयात त्याची अभिव्यक्ती होते. या अभिप्रायाने येथे परमेश्वराचा विद्वानांच्या हृदयात निवास करण्याचे कथन केलेले आहे. ॥६॥

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