ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 52/ मन्त्र 5
श॒तं न॑ इन्द ऊ॒तिभि॑: स॒हस्रं॑ वा॒ शुची॑नाम् । पव॑स्व मंह॒यद्र॑यिः ॥
स्वर सहित पद पाठश॒तम् । नः॒ । इ॒न्दो॒ इति॑ । ऊ॒तिऽभिः॑ । स॒हस्र॑म् । वा॒ । शुची॑णाम् । पव॑स्व । मं॒ह॒यत् ऽर॑यिः ॥
स्वर रहित मन्त्र
शतं न इन्द ऊतिभि: सहस्रं वा शुचीनाम् । पवस्व मंहयद्रयिः ॥
स्वर रहित पद पाठशतम् । नः । इन्दो इति । ऊतिऽभिः । सहस्रम् । वा । शुचीणाम् । पवस्व । मंहयत् ऽरयिः ॥ ९.५२.५
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 52; मन्त्र » 5
अष्टक » 7; अध्याय » 1; वर्ग » 9; मन्त्र » 5
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अष्टक » 7; अध्याय » 1; वर्ग » 9; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(इन्दो) हे विश्वकर्तः ! (मंहयद्रयिः) त्वं मदैश्वर्यादीन् वर्धयन् (ऊतिभिः) रक्षार्थं अत्र “चतुर्थ्यर्थे तृतीया भवति” (शुचीनां शतम् न सहस्रम् वा) पूताः शतसहस्रशक्तीः (पवस्व) उत्पादय ॥५॥ इति द्विपञ्चाशत्तमं सूक्तं नवमो वर्गश्च समाप्तः ॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(इन्दो) हे परमात्मन् ! (मंहयद्रयिः) आप हमारे धनादि ऐश्वर्य बढ़ाते हुए (ऊतिभिः) रक्षा के लिये (शुचीनां शतम् न सहस्रम् वा) पवित्र सैंकड़ों तथा सहस्त्रों शक्तियों को (पवस्व) उत्पन्न करिये ॥५॥
भावार्थ
परमात्मा ने मनुष्य के ऐश्वर्य के लिए सैंकड़ों और सहस्त्रों शक्तियों को उत्पन्न किया है। मनुष्य को चाहिए कि कर्मयोगी बनकर उन शक्तियों का लाभ करे ॥५॥ यह ५२ वाँ सूक्त और ९ वाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
विषय
'मंहयद्रयि' सोम
पदार्थ
[१] हे (इन्दो) = हमें शक्तिशाली बनानेवाले सोम ! तू (मंहयद्रयिः) = सब धनों का देनेवाला है [मंहतेर्दानकर्मण:] । प्रथम मन्त्र में 'सनद्रयिः ' शब्द से इसी भाव को व्यक्त किया गया था। ऐसा तू (नः) = हमें (ऊतिभिः) = रक्षणों के हेतु से (शुचीनाम्) = अपने पवित्र बलों के (शतं सहस्रं वा) = सैंकड़ों व हजारों को (पवस्व) = प्राप्त करा । [२] वस्तुतः सोम ही शरीर के सब कोशों को ऐश्वर्य से परिपूर्ण करता है, यही 'सनद्रयि मंहयद्रयि' है। यही हमें पवित्र बलों को प्राप्त कराता है, उन बलों को जिनसे कि हम अपना रक्षण कर पाते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- सुरक्षित सोम हमें सब ऐश्वर्यों व बलों को प्राप्त कराता है । इस बलों के देनेवाले सोम का रक्षक पुरुष 'अवत्सार' कहलाता है। यह इस सब भोजनों के सारभूत सोम का अवन [रक्षण] करता है। यह सोम के लिये कहता है कि-
विषय
उसका कर्त्तव्य शुद्ध व्यवहार का चलाना है।
भावार्थ
हे (इन्दो) ऐश्वर्यवन् ! दयार्द्र ! जलों से अभिषिक्त ! तू (मंहयद्-रयिः) ऐश्वर्यो को देने वाला होकर (ऊतिभिः) अपनी रक्षाओं से (शुचीनां शतं सहस्रं वा नः पवस्व) सौ वा सहस्र अपरिमित शुद्ध व्यवहारों को प्रवृत्त करा। उनको सदा शुद्ध बनाये रख। इति नवमो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
उचथ्य ऋषिः॥ पवमानः सोमो देवता॥ छन्दः– १ भुरिग्गायत्री। २ गायत्री। ३, ५ निचृद गायत्री। ४ विराड् गायत्री॥
इंग्लिश (1)
Meaning
O lord of light, purity and plenty, with divine powers and protections bless us with hundreds and thousands of life’s purities and shower upon us abundance of wealth, honour and excellence worthy of that purity.
मराठी (1)
भावार्थ
परमेश्वराने माणसाच्या ऐश्वर्यासाठी शेकडो व सहस्रो शक्ती उत्पन्न केलेल्या आहेत माणसांनी कर्मयोगी बनून त्या शक्तींना प्राप्त करावे. ।।५।।
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