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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 54 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 54/ मन्त्र 4
    ऋषिः - अवत्सारः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    परि॑ णो दे॒ववी॑तये॒ वाजाँ॑ अर्षसि॒ गोम॑तः । पु॒ना॒न इ॑न्दविन्द्र॒युः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    परि॑ । नः॒ । दे॒वऽवी॑तये । वाजा॑न् । अ॒र्ष॒सि॒ । गोऽम॑तः । पु॒ना॒नः । इ॒न्दो॒ इति॑ । इ॒न्द्र॒ऽयुः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    परि णो देववीतये वाजाँ अर्षसि गोमतः । पुनान इन्दविन्द्रयुः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    परि । नः । देवऽवीतये । वाजान् । अर्षसि । गोऽमतः । पुनानः । इन्दो इति । इन्द्रऽयुः ॥ ९.५४.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 54; मन्त्र » 4
    अष्टक » 7; अध्याय » 1; वर्ग » 11; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (इन्दो) हे सर्वलोकस्वामिन् ! (नः) अस्मान् (परि पुनानः) सर्वतः पवित्रयन् भवान् (देववीतये) देवतानां तर्पणाय (गोमतः वाजान्) गवाद्यैश्वर्यान् (अर्षसि) ददाति (इन्द्रयुः) यतो भवान् दिव्यगुणयुक्तसमीचीनकर्मकुर्वतामभिलाषुकोऽस्ति ॥४॥ इति चतुःपञ्चाशत्तमं सूक्तमेकादशो वर्गश्च समाप्तः ॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (इन्दो) हे परमात्मन् ! (नः) हमको (परि पुनानः) सब ओर से पवित्र करते हुए आप (देववीतये) देवों की तृप्ति के लिये (गोमतः वाजान्) गवादि ऐश्वर्य को (अर्षसि) देते हैं (इन्द्रयुः) क्योंकि आप देवों अर्थात् दिव्यगुणसम्पन्न सत्कर्म्मियों को चाहनेवाले हैं ॥४॥

    भावार्थ

    परमात्मा की कृपा से ही मनुष्य को दिव्य शक्तियें मिलती हैं। परमात्मा ही अपनी अपार दया से मनुष्य को देवभाव प्रदान करता है। हे देवत्व के अभिलाषी जनों ! आपको चाहिये कि आप सदैव उस दिव्यगुण परमात्मा की उपासना करते रहें ॥४॥ यह ५४ वाँ सूक्त और ११ वाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥

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    विषय

    इन्द्रयु सोम

    पदार्थ

    [१] हे (इन्दो) = हमें शक्तिशाली बनानेवाले सोम ! तू (नः) = हमें (देववीतये) = दिव्यगुणों को प्राप्त कराने के लिये (गोमतः) = प्रशस्त इन्द्रियोंवाले वाजान् बलों को परि अर्षसि समन्तात् प्राप्त कराता है । 'सब इन्द्रियाँ शुद्ध हों, हम शक्ति-सम्पन्न हों' तो यही दिव्य गुणों के विकास का मार्ग है। [२] हे सोम ! (पुनानः) = हमें पवित्र करते हुए तुम (इन्द्रयुः) = उस परमैश्वर्यवाले प्रभु को हमारे साथ जोड़नेवाले हो ।

    भावार्थ

    भावार्थ- सुरक्षित सोम हमारे जीवन को पवित्र करता हुआ हमें प्रभु को प्राप्त कराता है । अवत्सार ही अगले सूक्त में भी कहता है-

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    विषय

    सर्वोपरि प्रभाव एवं सर्वोपरि राजा।

    भावार्थ

    हे (इन्दो) ऐश्वर्यवन् ! तू (इन्द्रयुः) ऐश्वर्य पद की आकांक्षा करता हुआ, उसका स्वामी होकर (पुनानः) अभिषिक्त होकर (देव- वीतये) उत्तम मनुष्यों की रक्षा के लिये (गोमतः वाजान् नः षरि अर्षसि) गो, भूमि आदि से युक्त ऐश्वर्य हमें प्राप्त करा वा हमारे ऐश्वर्यों को तू प्राप्त कर। (२) इसी प्रकार (इन्द्रयुः) प्रभु आत्माओं का स्वामी है, वह शुभ गुणों की प्राप्ति के लिये हमें समस्त ऐश्वर्य दे॥ इत्येकादशो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अवत्सार ऋषिः॥ पवमानः सोमो देवता ॥ छन्दः- १, ३ निचृद् गायत्री ॥ चतुर्ऋचं सूक्तम् ॥ २, ४ गायत्री।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indu, spirit of peace, beauty and plenty, lover of men of knowledge and power, purifying and sanctifying the world, bring us food and energy for the body, mind and soul for the service and fulfilment of the men of brilliance and generosity.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमेश्वराच्या कृपेनेच माणसाला दिव्य शक्ती प्राप्त होतात. परमेश्वरच आपल्या अपार दयेने माणसांसाठी देवभाव प्रदान करतो. हे देवत्वाच्या अभिलाषी लोकांनो! तुम्ही सदैव त्या दिव्य गुणयुक्त परमेश्वराची उपासना करत राहा. ॥४॥

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