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ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 56/ मन्त्र 2
यत्सोमो॒ वाज॒मर्ष॑ति श॒तं धारा॑ अप॒स्युव॑: । इन्द्र॑स्य स॒ख्यमा॑वि॒शन् ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । सोमः॑ । वाज॑म् । अर्ष॑ति । श॒तम् । धाराः॑ । अ॒प॒स्युवः॑ । इन्द्र॑स्य । स॒ख्यम् । आ॒ऽवि॒शन् ॥
स्वर रहित मन्त्र
यत्सोमो वाजमर्षति शतं धारा अपस्युव: । इन्द्रस्य सख्यमाविशन् ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । सोमः । वाजम् । अर्षति । शतम् । धाराः । अपस्युवः । इन्द्रस्य । सख्यम् । आऽविशन् ॥ ९.५६.२
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 56; मन्त्र » 2
अष्टक » 7; अध्याय » 1; वर्ग » 13; मन्त्र » 2
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अष्टक » 7; अध्याय » 1; वर्ग » 13; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(यत् सोमः वाजम् अर्षति) यो हि जगदीश्वरः बलं प्रददाति अतः (अपस्युवः) कर्मयोगिजनाः (इन्द्रस्य सख्यम् आविशन्) परमैश्वर्यवतस्तस्य परमात्मनो मैत्रीभावं प्राप्नुवन्तः (शतं धाराः) तेनैव प्रदत्तानि बलानि आमोदधाराश्चोपभुञ्जन्ते ॥२॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(यत् सोमः वाजम् अर्षति) जो परमात्मा बल का प्रदान करता है इससे (अपस्युवः) कर्मयोगी लोग (इन्द्रस्य सख्यम् आविशन्) परमैश्वर्यवाले उस परमात्मा के मैत्रीभाव को प्राप्त होते हुए (शतं धाराः) उसके दिये हुए बल और आनन्द की अनेक धाराओं का उपभोग करते हैं ॥२॥
भावार्थ
वास्तव में परमात्मा कोई मित्र या अमित्र नहीं। जो लोग परमात्मा की आज्ञापालन करने से उसके अनुकूल चलते हैं, उनसे वह स्नेह करता है, इसलिए वे मित्र कहलाते हैं और प्रतिकूलवर्ती लोग स्नेह के पात्र नहीं होते, इसलिए अमित्र कहलाते हैं, इसीलिए यहाँ मित्र शब्द आया है। कुछ मानुषी मैत्री के भाव से नहीं ॥२॥
विषय
शक्ति-यज्ञ - प्रभु प्राप्ति
पदार्थ
[१] (यत्) = जब (सोमः) = शरीर में उत्पन्न हुआ हुआ सोम (वाजम्) = शक्ति को (अर्षति) = [गमयति] प्राप्त कराता है, तो (शतं धारा:) = रस सोम की ये (शतशः) = धारणशक्तियाँ (अपस्युवः) = [अपस् +यु] कर्म की कामनावाली होती हैं। सोम की ये धारणशक्तियाँ हमें यज्ञादि कर्मों में प्रवृत्त करती हैं। सोमी पुरुष सदा यज्ञों की कामनावाला होता है। [२] इन यज्ञों के द्वारा उस यज्ञरूप प्रभु की उपासना करती हुई ये सोम धारायें इन्द्रस्य उस परमैश्वर्यशाली प्रभु की (सख्यम्) = मित्रता में (आविशन्) = प्रवेश करती हैं। हमें प्रभु की मित्र बनाती हैं।
भावार्थ
भावार्थ- सोमरक्षण से [क] शक्ति बढ़ती है [ख] हमारा झुकाव यज्ञों की ओर होता है, [ग] हम प्रभु को प्राप्त होते हैं ।
विषय
पवमान सोम।
भावार्थ
(यत्) जब (शतं) सौ, अनेक (अपस्युवः) कर्मकुशल (धाराः) वाणियां वा धारक जन (इन्द्रस्य) ऐश्वर्ययुक्त राष्ट्र के (सख्यम् आविशन्) मित्र भाव को प्राप्त होते हैं तब भी (सोमः वाजम् अर्षति) वह शासक बल और अन्न प्राप्त करता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अवत्सार ऋषिः॥ पवमानः सोमो देवता॥ छन्दः- १-३ गायत्री । ४ यवमध्या गायत्री॥
इंग्लिश (1)
Meaning
When Soma releases the divine energy and enthusiasm of life, men of initiative and creativity enjoying friendship and communion with divinity experience the ecstasy of life flowing in a hundred streams.
मराठी (1)
भावार्थ
वास्तविक परमात्म्याचा कोणी मित्र किंवा अमित्र नाही. जे लोक परमात्म्याच्या आज्ञेचे पालन करून त्याच्या अनुकूल चालतात त्यांना तो स्नेह करतो त्यासाठी तो मित्र म्हणविला जातो व प्रतिकूल लोक स्नेहास पात्र नसतात. त्यामुळे अमित्र म्हणविले जातात त्यामुळे येथे मित्र शब्द मानुषी मैत्रीच्या भावाने नाही. ॥२॥
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