साइडबार
ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 56/ मन्त्र 4
त्वमिन्द्रा॑य॒ विष्ण॑वे स्वा॒दुरि॑न्दो॒ परि॑ स्रव । नॄन्त्स्तो॒तॄन्पा॒ह्यंह॑सः ॥
स्वर सहित पद पाठत्वम् । इन्द्रा॑य । विष्ण॑वे । स्वा॒दुः । इ॒न्दो॒ इति॑ । परि॑ । स्र॒व॒ । नॄन् । स्तो॒तॄन् । पा॒हि॒ । अंह॑सः ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वमिन्द्राय विष्णवे स्वादुरिन्दो परि स्रव । नॄन्त्स्तोतॄन्पाह्यंहसः ॥
स्वर रहित पद पाठत्वम् । इन्द्राय । विष्णवे । स्वादुः । इन्दो इति । परि । स्रव । नॄन् । स्तोतॄन् । पाहि । अंहसः ॥ ९.५६.४
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 56; मन्त्र » 4
अष्टक » 7; अध्याय » 1; वर्ग » 13; मन्त्र » 4
Acknowledgment
अष्टक » 7; अध्याय » 1; वर्ग » 13; मन्त्र » 4
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(इन्दो) हे परमात्मन् ! (त्वम्) भवान् (इन्द्राय विष्णवे) व्याप्तिशीलज्ञानयोगिने (स्वादुः) परमास्वादनीयः रसोऽस्ति। तदर्थं (परिस्रव) त्वं समस्ताभीष्टप्रदानं कुरु। (नॄन् स्तोतॄन् पाहि अंहसः) स्वोपासकान् पापतस्त्रायस्व ॥४॥ इति षट्पञ्चाशत्तमं सूक्तं त्रयोदशो वर्गश्च समाप्तः ॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(इन्दो) हे परमात्मन् ! (त्वम्) आप (इन्द्राय विष्णवे) व्याप्तिशील ज्ञानयोगी के लिये (स्वादुः) परम आस्वादनीय रस हैं। उनके लिये (परिस्रव) आप सकल अभीष्ट प्रदान करिये (नॄन् स्तोतॄन् पाहि अंहसः) अपने उपासकों को पाप से बचाइये ॥४॥
भावार्थ
ज्ञानयोगी अपने ज्ञान के प्रभाव से ईश्वर का साक्षात्कार करता है और अनिष्ट कर्मों से बचता है ॥४॥ यह ५६ वाँ सूक्त और १३ वाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
विषय
निष्पापता
पदार्थ
[१] हे (इन्दो) = हमारे जीवन को शक्तिशाली बनानेवाले सोम ! (त्वम्) = तू (स्वादुः) = जीवन को रसमय बनानेवाला है । (इन्द्राय) = उस परमैश्वर्यशाली प्रभु की प्राप्ति के लिये (परिस्स्रव) = हमारे में प्रवाहित हो । (विष्णवे) = उस सर्वव्यापक प्रभु की प्राप्ति के लिये हमारे में प्रवाहित हो । सोमरक्षण हमें 'इन्द्र व विष्णु' बनाता, ज्ञान व शक्ति का ऐश्वर्य इस सोमरक्षण से ही प्राप्त होता है। यह सोमरक्षण ही हमें उदार [=व्यापक मनोवृत्तिवाला] बनाता है । [२] हे सोम ! तू (नॄन्) = अपने को उन्नतिपथ पर ले चलनेवाले स्तोतॄन् इन स्तोताओं को अंहसः - सब पापों व कष्टों से पाहि-बचानेवाला हो । सोमरक्षण से हम आगे बढ़ने की वृत्तिवाले बनते हैं, प्रभु के स्तोता बनते हैं और इस प्रकार पापों से बचे रहते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ- सुरक्षित सोम हमें ज्ञानैश्वर्य सम्पन्न, व्यापक वृत्तिवाला तथा निष्पाप जीवनवाला बनाता है। अवत्सार ही कहता है-
विषय
पवमान सोम।
भावार्थ
हे (इन्दो) ऐश्वर्यवन् ! (त्वम्) तू (इन्द्राय) ऐश्वर्यवान् और (विष्णवे) व्यापक, शक्तिशाली पद के लिये (स्वादुः) उत्तम भोक्ता के तुल्य (परिस्रव) प्राप्त हो और (स्तोतॄन् नॄन्) स्तुति करने वाले मनुष्यों को (अंहसः पाहि) पाप से बचा। इति त्रयोदशो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अवत्सार ऋषिः॥ पवमानः सोमो देवता॥ छन्दः- १-३ गायत्री । ४ यवमध्या गायत्री॥
इंग्लिश (1)
Meaning
O Soma, spirit of peace and bliss, let divine ecstasy flow forth for Indra, celebrant of power, and Vishnu, omnipresence oriented soul, and protect and promote the leading lights of humanity free from sin and dedicated to divinity.
मराठी (1)
भावार्थ
ज्ञानयोगी आपल्या ज्ञानाच्या प्रभावाने ईश्वराचा साक्षात्कार करतो व अनिष्ट कर्मांपासून त्याचा बचाव होतो. ॥४॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal