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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1039
    ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
    21

    अ꣡धु꣢क्षत प्रि꣣यं꣢꣫ मधु꣣ धा꣡रा꣢ सु꣣त꣡स्य꣢ वे꣣ध꣡सः꣢ । अ꣣पो꣡ व꣢सिष्ट सु꣣क्र꣡तुः꣢ ॥१०३९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ꣡धु꣢꣯क्षत । प्रि꣡य꣢म् । म꣡धु꣢꣯ । धा꣡रा꣢꣯ । सु꣣त꣡स्य꣢ । वे꣣ध꣡सः꣢ । अ꣣पः꣢ । व꣣सिष्ट । सुक्र꣡तुः꣢ । सु꣣ । क्र꣡तुः꣢꣯ ॥१०३९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अधुक्षत प्रियं मधु धारा सुतस्य वेधसः । अपो वसिष्ट सुक्रतुः ॥१०३९॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अधुक्षत । प्रियम् । मधु । धारा । सुतस्य । वेधसः । अपः । वसिष्ट । सुक्रतुः । सु । क्रतुः ॥१०३९॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1039
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 3; मन्त्र » 3
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 7; खण्ड » 1; सूक्त » 3; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में परमात्मा के ध्यान का फल वर्णित है।

    पदार्थ

    (सुतस्य) अन्तरात्मा में प्रकट किये गए, (वेधसः) सब जगत् के विधाता सोम नामक परमात्मा की (धारा) वेदवाणी की धारा (प्रियम्) प्रिय, (मधु) मधुर आनन्दरस को (अधुक्षत) उपासक के अन्तरात्मा में दुहती है। (सुक्रतुः) शुभकर्मों का कर्ता वह परमात्मा (अपः) उपासक के कर्मों को (वसिष्ट) व्याप्त कर लेता है अर्थात् उपासक के द्वारा शुभ लोकहितकारी कर्म ही कराता है, अशुभ नहीं ॥३॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को योग्य है कि वे परमेश्वर के ध्यान से आनन्द की प्राप्ति और शुभकर्मों में प्रवृत्ति करें ॥३॥

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    पदार्थ

    (सुतस्य वेधसः) उपासक अन्तरात्मा में निष्पादित—साक्षात् किए जगद्विधाता परमात्मा के (धारा) धारणा ध्यान से (प्रियं मधु-अधुक्षत) प्रिय अमृत को दुहता है (सुक्रतुः-अपः-वसिष्ट) जो सुप्रज्ञान वाला श्रद्धा में बस जाता है॥३॥

    विशेष

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    विषय

    प्रिय मधु का दोहन

    पदार्थ

    ‘वेधस्’ सोम का नाम है, क्योंकि शरीर में सब शक्तियों का कर्त्ता [creater] यही है । (सुतस्य वेधसः) = उत्पन्न हुए-हुए सोम की (धारा) = धारणशक्ति (प्रियं मधु) = प्रिय मधु को- तृप्त करनेवाले माधुर्य को (अधुक्षत) = शरीर में दूहती है, अर्थात् जब मनुष्य इस सोम की शरीर में रक्षा करता है तब यह सोम उसके जीवन में माधुर्य का प्रपूरण कर देता है। ('भूयासं मधु सन्दृशः') = इस प्रार्थना को क्रियान्वित करने के लिए आवश्यक है कि हम सोम को अपने में सुरक्षित करें। यह सोम का रक्षक (सुक्रतुः) = उत्तम सङ्कल्पों व प्रज्ञानोंवाला होकर (अप:) = कर्मों को (वसिष्ट) = धारण करता है। सोमी पुरुष का ज्ञान उत्तम होता है—इसके सङ्कल्प उत्तम होते हैं और यह सदा उत्तम कर्मों में व्याप्त रहता है ।

    भावार्थ

    सोमरक्षा मुझे मधुर जीवनवाला बनाता है, इससे मैं उत्तम सङ्कल्पों व ज्ञानवाला बनता हूँ, क्रियाशील होता हूँ ।

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    विषय

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    भावार्थ

    (सुतस्य) योग साधनों से निष्पन्न (वर्धसः) स्वयं कर्त्ता, विद्वान् योगी की (धारा) धारणा शक्ति (प्रियं मधु) अति आनन्द अमृत रस को (अधुक्षत) दोहती हैं, प्रकट करती हैं और (सुक्रतुः) उत्तम कर्मनिष्ठ योगी (अपः) समस्त प्रज्ञानों और कर्मों और लोकों पर (वसिष्ट) वश करता है और उनमें वास करता है।

    टिप्पणी

    मधु अमृतम् [ सा० ]।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१ (१) आकृष्टामाषाः (२, ३) सिकतानिवावरी च। २, ११ कश्यपः। ३ मेधातिथिः। ४ हिरण्यस्तूपः। ५ अवत्सारः। ६ जमदग्निः। ७ कुत्सआंगिरसः। ८ वसिष्ठः। ९ त्रिशोकः काण्वः। १० श्यावाश्वः। १२ सप्तर्षयः। १३ अमहीयुः। १४ शुनःशेप आजीगर्तिः। १६ मान्धाता यौवनाश्वः। १५ मधुच्छन्दा वैश्वामित्रः। १७ असितः काश्यपो देवलो वा। १८ ऋणचयः शाक्तयः। १९ पर्वतनारदौ। २० मनुः सांवरणः। २१ कुत्सः। २२ बन्धुः सुबन्धुः श्रुतवन्धुविंप्रबन्धुश्च गौपायना लौपायना वा। २३ भुवन आप्त्यः साधनो वा भौवनः। २४ ऋषि रज्ञातः, प्रतीकत्रयं वा॥ देवता—१—६, ११–१३, १७–२१ पवमानः सोमः। ७, २२ अग्निः। १० इन्द्राग्नी। ९, १४, १६, इन्द्रः। १५ सोमः। ८ आदित्यः। २३ विश्वेदेवाः॥ छन्दः—१, ८ जगती। २-६, ८-११, १३, १४,१७ गायत्री। १२, १५, बृहती। १६ महापङ्क्तिः। १८ गायत्री सतोबृहती च। १९ उष्णिक्। २० अनुष्टुप्, २१, २३ त्रिष्टुप्। २२ भुरिग्बृहती। स्वरः—१, ७ निषादः। २-६, ८-११, १३, १४, १७ षड्जः। १-१५, २२ मध्यमः १६ पञ्चमः। १८ षड्जः मध्यमश्च। १९ ऋषभः। २० गान्धारः। २१, २३ धैवतः॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ परमात्मध्यानस्य फलमाह।

    पदार्थः

    (सुतस्य) अन्तरात्मनि प्रकटीकृतस्य (वेधसः) सर्वजगद्विधातुः सोमस्य परमात्मनः (धारा) वेदवाक्, [धारा इति वाङ्नाम। निघं० १।११।] (प्रियम्) प्रीत्यास्पदम् (मधु) मधुरम् आनन्दरसम् (अधुक्षत) उपासकस्य अन्तरात्मनि दोग्धि। (सुक्रतुः) सुकर्मा स परमात्मा (अपः) उपासकस्य कर्माणि (वसिष्ट) आच्छादयति, व्याप्नोति, तद्द्वारा शुभानि लोकहितकराण्येव कर्माणि कारयति नाशुभानीत्यर्थः। [वस आच्छादने, लडर्थे लुङि अडागमाभावश्छान्दसः] ॥३॥

    भावार्थः

    मनुष्याणां योग्यमस्ति यत्ते परमेश्वरस्य ध्यानेनानन्दप्राप्तिं शुभकर्मसु प्रवृत्तिं च प्राप्नुयुः ॥३॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ९।२।३।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    The steady abstraction of the mind of a learned Yogi, equipped with Yogic accomplishments, yields spiritual joy. The Yogi devoted to the performance of religious acts, controls all his deeds.

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    Meaning

    The stream of soma purity, bliss and knowledge, distilled and flowing from the omniscient, showers honey sweets of life on us, and the holiness of the noble soma internalised inspires our actions. (Rg. 9-2-3)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (सुतस्य वेधसः) ઉપાસક અન્તરાત્મામાં નિષ્પાદિત-સાક્ષાત્ કરેલ જગત્ વિધાતા પરમાત્માનું (धारा) ધારણા, ધ્યાનથી (प्रियं मधु अधुक्षत) પ્રિય અમૃતનું દોહન કરે છે. (सुक्रतुः अपः वसिष्ट) જે સુપ્રજ્ઞાનવાળા શ્રદ્ધામાં વસી જાય છે. (૩)
     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    माणसांनी परमेश्वराचे ध्यान करून आनंदाची प्राप्ती व शुभ कर्मात प्रवृत्त असावे. ॥३॥

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