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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1118
ऋषिः - वृषगणो वासिष्ठः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
काण्ड नाम -
27
स꣡ यो꣢जत उरुगा꣣य꣡स्य꣢ जू꣣तिं꣢ वृथा꣣ क्री꣡ड꣣न्तं मिमते꣣ न꣡ गावः꣢꣯ । प꣣रीणसं꣡ कृ꣢णुते ति꣣ग्म꣡शृ꣢ङ्गो꣣ दि꣢वा꣣ ह꣢रि꣣र्द꣡दृ꣢शे꣣ न꣡क्त꣢मृ꣣ज्रः꣢ ॥१११८॥
स्वर सहित पद पाठसः । यो꣣जते । उरुगाय꣡स्य꣢ । उ꣣रु । गाय꣡स्य꣢ । जू꣣ति꣢म् । वृ꣡था꣢꣯ । क्री꣡ड꣢꣯न्तम् । मि꣣मते । न꣢ । गा꣡वः꣢꣯ । प꣣रीणस꣢म् । प꣣रि । नस꣢म् । कृ꣣णुते । तिग्म꣡शृ꣢ङ्गः । तिग्म꣢ । शृ꣣ङ्गः । दि꣡वा꣢꣯ । ह꣡रिः꣢꣯ । द꣡दृ꣢꣯शे । न꣡क्त꣢꣯म् । ऋ꣣ज्रः꣢ ॥१११८॥
स्वर रहित मन्त्र
स योजत उरुगायस्य जूतिं वृथा क्रीडन्तं मिमते न गावः । परीणसं कृणुते तिग्मशृङ्गो दिवा हरिर्ददृशे नक्तमृज्रः ॥१११८॥
स्वर रहित पद पाठ
सः । योजते । उरुगायस्य । उरु । गायस्य । जूतिम् । वृथा । क्रीडन्तम् । मिमते । न । गावः । परीणसम् । परि । नसम् । कृणुते । तिग्मशृङ्गः । तिग्म । शृङ्गः । दिवा । हरिः । ददृशे । नक्तम् । ऋज्रः ॥१११८॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1118
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 8; खण्ड » 1; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 8; खण्ड » 1; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अगले मन्त्र में आचार्य शिष्यों को यह उपदेश दे रहा है कि चन्द्रमा सूर्य से प्रकाशित होता है।
पदार्थ
(सः) वह सोम चन्द्रमा (उरुगायस्य) विस्तीर्ण ग्रहोपग्रहों में जिसका प्रकाश पहुँचता है, ऐसे सूर्य के (जूतिम्) वेगवान् किरणसमूह को (योजते) अपने साथ जोड़ता है। (वृथा) अनायास (क्रीडन्तम्) भूमि और सूर्य के चारों ओर क्रीड़ा करनेवाले उस चन्द्रमा को (गावः) सूर्यकिरणें (न मिमते) सम्पूर्ण रूप में व्याप्त नहीं करतीं, किन्तु जितने भाग में सूर्यकिरणें पहुँचती हैं, चन्द्रमा का उतना ही भाग प्रकाशित होता है। तो भी कभी-कभी (तिग्मशृङ्गः) तीक्ष्ण किरणोंवाला सूर्य चन्द्रमा को (परीणसम्) परि व्याप्त (कृणुते) कर लेता है, तब पूर्णिमा में चन्द्रमा पूर्णतः प्रकाशित हो जाता है। वह चन्द्रमा (दिवा) दिन में (हरिः) हरा-काला सा (ददृशे) दिखाई देता है, (नक्तम्) रात्रि में (ऋज्रः) शुभ्र ॥३॥
भावार्थ
पृथिवी सूर्य के चारों ओर घूमती है और चन्द्रमा पृथिवी के चारों ओर घूमता-घूमता पृथिवी के साथ-साथ सूर्य की भी परिक्रमा करता है। चन्द्रमा सूर्य की किरणों से प्रकाशित होता है। चन्द्रमा की जितनी कलाओं पर सूर्य-किरणें पहुँचती हैं, उतनी ही कलाएँ प्रकाशित दिखती हैं। प्रतिपदा को एक कला, द्वितीया को दो कलाएँ, तृतीया को तीन कलाएँ, अष्टमी को आठ कलाएँ, और पूर्णमासी को सब कलाएँ प्रकाशित होती हैं। अमावस्या को चन्द्रमा पर कहीं भी सूर्य-किरणों के न पहुँचने से सारा ही चन्द्र-मण्डल अन्धकार से ढका रहता है। यह भी ध्यान देने योग्य है कि सूर्य-किरणें हमेशा चन्द्रमा के एक गोलार्ध पर ही पड़ती हैं, अतः दूसरे गोलार्ध में सदा अन्धेरा ही रहता है। गुरुओं को चाहिए कि चन्द्रमा के प्रकाशित होने का यह नियम तथा भूगोल और खगोल सम्बन्धी अन्य भी नियम शिष्यों को उपदेश करते रहें ॥३॥
पदार्थ
(सः) वह सोम—शान्तस्वरूप परमात्मा (उरुगायस्य) बहुत स्तुतिकर्ता की*11 (जूतिम्) प्रीति को*12 (योजत) युक्त होता है—अपनाता है (गावः) स्तोता—स्तुति करनेवाले*13 (वृथा क्रीडन्तम्) निष्काम जगद्रचनारूप क्रीड़ा करते हुए*14 परमात्मा को (मिमते न) माप नहीं सकते हैं परिमित नहीं करते हैं (परीणसं कृणुते) क्योंकि बहुविध अन्नभोग्य*15 या जगत् को रचता है अतः उसे परिमित नहीं करते (तिग्मशृङ्ग) उत्साहक*16 शृङ्ग—ज्ञानज्वलन—ज्वालाएँ रश्मियाँ वेदरूप जिसकी हैं*17 (दिवा नक्तम्) दिन रात (हरिः-ऋज्रः-ददृशे) वह दुःखापहर्ता सुखाहर्ता एवं प्रेरक ऋजुमार्ग नायक उपासक को साक्षात् होता है॥३॥
टिप्पणी
[*11. “गायति-अर्चतिकर्मा” [निघं॰ ३.१४]।] [*12. “जूतिः प्रीतिः” [निरु॰ १०.२८]।] [*13. “गौः स्तोतृनाम” [निघं॰ ३.१६]।] [*14. “लोकवत्तु लीलाकैवल्यम्” [वेदान्त॰ २.१.३३]।] [*15. “अन्नं वै परीणसम्” [जै॰ ३.१७४] “परीणसा बहुनाम” [निघं॰ ३.१]।] [*16. “तिग्मं तेजतेरुत्साहकर्मणः” [निरु॰ १०.६]।] [*17. “शृङ्गाणि ज्वलतो नाम” [निघं॰ १.१७] “चत्वारि शृङ्गा इति वेदा वा एतदुक्ताः” [काठक सं॰ २५.१]।]
विशेष
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विषय
उस प्रभु का अद्भुत कार्य
पदार्थ
१. (सः) = प्रस्तुत मन्त्र का ऋषि‘वृषगण' (उरुगायस्य) = उस बहुत यशवाले प्रभु की (जूतिम्) = गति को (योजते) = अपने जीवन में जोड़ता है। 'वृषगण'=धर्म का चिन्तन करनेवाला व्यक्ति प्रभु का गायन करता है और प्रभु के गुणों को अपने जीवन में धारण करने का प्रयत्न करता । २. यह अनुभव करता है कि (वृथा क्रीडन्तम्) = उस अनायास सृष्टि के निर्माण, धारण व प्रलयरूप क्रीड़ा को करते हुए उस प्रभु को (गावः न मिमते) = वाणियाँ नहीं माप सकतीं, अर्थात् शब्दों से उस प्रभु की महिमा का वर्णन सम्भव नहीं । (तिग्मशृङ्गः) = यह तीक्ष्ण तेजवाला प्रभु (परीणसं कृणुते) = तो खूब ही, [परीणसं इति बहुनाम – नि० ३.१.६] करता है कि (दिवानक्तम्) = दिन-रात वह (हरिः) = अन्धकार का हरण तथा (ऋज्र:) = [ऋजि भर्जने] पापों का दहन करता हुआ ददृशे दीखता है। उस प्रभु का सर्वमहान्, अद्भुत कार्य यही है कि वे वृषगणों के अन्धकार को दूर कर रहे हैं और पापों का भर्जन कर रहे हैं । उस प्रभु का दर्शन-चिन्तन हमारे पापों का नाश करनेवाला है ।
भावार्थ
१. हम प्रभु की क्रियाओं को अपने साथ जोड़ें - उन्हीं की भाँति दया व न्याय करनेवाले बनें। २. वे प्रभु हमारे अन्धकार को दूर करेंगे और हमारे पापों का दहन कर देंगे ।
विषय
missing
भावार्थ
(सः) वह योगी (उरुगायस्य) विशाल गुणों वाले, स्तुतियों से सम्पन्न परमात्मा की (जूतिं) ज्योति या प्रेरणा को (योजते) समाधि द्वारा साक्षात् करता है। (गावः) अन्य इन्द्रियगण या अन्य लोग (वृथा) अनायास (क्रीड़न्तं) नाना प्रकार से जगत् सर्जन प्रलय आदि लीला करते हुए उस परमात्मा को (न) नहीं (मिमते) ज्ञान करते। (सः हरिः) वह सब दुःखों को हरण करने वाला, हरि (तिग्मशृंगः) तीक्ष्ण तेज से युक्त होकर आदित्य के समान (परीणसं) नाना प्रकार का तेज प्रकट करता है, और वह (ऋज्रः) विस्पष्ट प्रकाश से युक्त ऋजु मार्ग पर चलने हारा, धार्मिक, होकर (दिवा नक्तं) रात दिन (ददृशे) प्रकाशित होता है। इसमें सूर्य और स्वराट् योगी का वर्णन है। जिसके मुख पर दिन रात तेज का मण्डल दीखने लगता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः—१ वृषगणो वासिष्ठः। २ असितः काश्यपो देवलो वा। ११ भृगुर्वारुणिर्जमदग्निः। ८ भरद्वाजो बार्हस्पत्यः। ४ यजत आत्रेयः। ५ मधुच्छन्दो वैश्वामित्रः। ७ सिकता निवावरी। ८ पुरुहन्मा। ९ पर्वतानारदौ शिखण्डिन्यौ काश्यप्यावप्सरसौ। १० अग्नयो धिष्ण्याः। २२ वत्सः काण्वः। नृमेधः। १४ अत्रिः॥ देवता—१, २, ७, ९, १० पवमानः सोमः। ४ मित्रावरुणौ। ५, ८, १३, १४ इन्द्रः। ६ इन्द्राग्नी। १२ अग्निः॥ छन्द:—१, ३ त्रिष्टुप्। २, ४, ५, ६, ११, १२ गायत्री। ७ जगती। ८ प्रागाथः। ९ उष्णिक्। १० द्विपदा विराट्। १३ ककुप्, पुर उष्णिक्। १४ अनुष्टुप्। स्वरः—१-३ धैवतः। २, ४, ५, ६, १२ षड्ज:। ७ निषादः। १० मध्यमः। ११ ऋषभः। १४ गान्धारः॥
संस्कृत (1)
विषयः
अथाचार्यः शिष्यान् सूर्याच्चन्द्रमसः प्रकाशनमाह।
पदार्थः
(सः) असौ सोमः चन्द्रः (उरुगायस्य) उरुषु विस्तीर्णेषु लोकेषु ग्रहोपग्रहेषु गायः प्रकाशगतिः यस्य तस्य सूर्यस्य (जूतिम्) वेगवन्तं किरणसमूहम् (योजते) स्वात्मना योजयति। (वृथा) अनायासम् (क्रीडन्तम्) भूमिं सूर्यं च परितः आकाशे विहरन्तं तं चन्द्रम् (गावः) सूर्यकिरणाः (न मिमते) सम्पूर्णतया न परिच्छिन्दन्ति। [माङ् माने शब्दे च जुहोत्यादिः।] यावति भागे सूर्यकिरणाः पतन्ति चन्द्रस्य तावानेव भागः प्रकाशितो दृश्यत इति भावः। तथापि कदाचित् (तिग्मशृङ्गः) तीक्ष्णकिरणः सूर्यः चन्द्रमसम् (परीणसम्) परितो व्याप्तम्। [नसतिः गतिकर्मा। निघं० २।१४।] (कृणुते) करोति, तदा च पूर्णिमायां चन्द्रः, पूर्णतः प्रकाशितो जायते। स चन्द्रः (दिवा) दिवसे (हरिः) हरितः कृष्णवर्णः (ददृशे) दृश्यते, (नक्तम्) रात्रौ च (ऋज्रः) शुभ्रः ॥३॥
भावार्थः
पृथिवी सूर्यं परितो भ्रमति, चन्द्रमाश्च पृथिवीं परितो भ्रमन् पृथिव्या सह सूर्यमपि परिक्राम्यति। चन्द्रः सूर्यकिरणैः प्रकाश्यते। यावतीषु चन्द्रकलासु सूर्यरश्मयः पतन्ति तावत्य एव चन्द्रकलाः प्रकाशिता दृश्यन्ते। प्रतिपद्येका कला, द्वितीयायां द्वे कले,तृतीयायां तिस्रः कलाः प्रकाशन्ते। अमावस्यायां च चन्द्रे कुत्रापि सूर्यरश्मीनामपतनाच्चन्द्रमण्डलमन्धकारावृतं जायते। एतदप्यवधेयं यत् सूर्यरश्मयः सदा चन्द्रस्यैकस्मिन्नेव गोलार्द्धे पतन्ति, तस्माद् द्वितीयो गोलार्धः सदाऽन्धकारित एव तिष्ठति। चन्द्रप्रकाशस्य स नियमो भूगोलखगोलयोरन्ये चापि नियमा गुरुभिः शिष्यान् प्रत्युपदेष्टव्याः ॥३॥
टिप्पणीः
१. ऋ० ९।९७।९ ‘सं र॑हंत उरुगा॒यस्य॑’ इति पाठः।
इंग्लिश (2)
Meaning
A Yogi realises through Samadhi the glory of God, the Possessor of grand virtues. Ordinary mortals have no knowledge of Him, Who easily creates, sustains and dissolves the universe. He (Yogi), the alleviator of all miseries, endowed with blazing halo, sheds diverse lustre like the sun, and fall of light, travelling on the straight path of virtue, shines day and night.
Meaning
That Soma source of beauty, music and poetry is ever dynamic spontaneously playing the sportive game. The power, force and velocity of that presence, the mind and senses do not comprehend. The spirit of ultimate penetrative and pervasive power reflects infinite possibilities, the beatific saviour manifests its omnipotence day and night. (Rg. 9-97-9)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (सः) તે સોમ-શાન્ત સ્વરૂપ પરમાત્મા (उरुगायस्य) અત્યંત સ્તુતિકર્તાની (जूतिम्) પ્રીતિને (योजत) યુક્ત થાય છે-અપનાવે છે. (गावः) સ્તોતા-સ્તુતિ કરનારા (वृथा क्रीडन्तम्) નિષ્કામ જગત રચનારૂપ ક્રીડા કરતાં પરમાત્માને (मिमते न) માપી શકતા નથી પરિમિત કરી શકતા નથી. (परीणसं कृणुते) કારણ કે અનેકવિધ અન્નભોગ્ય અર્થાત્ જગતને રચે છે. તેથી તે પરિમિત થતો નથી. (तिग्मश्रृङ्ग) ઉત્સાહક શ્રૃંગ - જ્ઞાનજ્વલને જેની જ્વાળાઓ રશ્મિઓ વેદરૂપ છે. (दिवा नक्तम्) દિવસ-રાત (हरिः ऋज्रः ददृशे) તે દુ:ખહર્તા, સુખદાતા અને પ્રેરક સરળ માર્ગ નાયક ઉપાસકને સાક્ષાત્ થાય છે. (૩)
मराठी (1)
भावार्थ
पृथ्वी सूर्याच्या चारही बाजूंनी फिरते व चंद्र पृथ्वीच्या चारही बाजूंनी फिरत फिरत पृथ्वीबरोबर सूर्याची परिक्रमा करतो. चंद्र सूर्याच्या किरणांनी प्रकाशित होतो. चंद्राच्या जितक्या कलांवर सूर्यकिरणे पोचतात, तितक्या कला प्रकाशित होतात. प्रतिपदेला एक कला, द्वितीयेला दोन कला, तृतीयेला तीन कला, अष्टमीला आठ कला, पौर्णिमेला सर्व कला प्रकाशित होतात. अमावास्येला चंद्रावर कुठेही सूर्यकिरणे न पोचल्यामुळे संपूर्ण चंद्रमंडल अंधकाराने झाकलेले असते. एक गोष्ट लक्षात ठेवण्यासारखी आहे, की सूर्य किरणे सदैव चंद्राच्या एका गोलार्धावरच पडतात व दुसऱ्या गोलार्धात सदैव अंधारच असतो. गुरूनी चंद्राच्या प्रकाशित होण्याचा नियम व भूगोल खगोलासंबंधीचे इतर नियमही शिष्यांना सांगितले पाहिजेत. ॥३॥
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