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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1234
    ऋषिः - भर्गः प्रागाथः देवता - इन्द्रः छन्दः - बार्हतः प्रगाथः (विषमा बृहती, समा सतोबृहती) स्वरः - पञ्चमः काण्ड नाम -
    42

    त꣢꣫ꣳ हि स्व꣣रा꣡जं꣢ वृष꣣भं꣡ तमोज꣢꣯सा धि꣣ष꣡णे꣢ निष्टत꣣क्ष꣡तुः꣢ । उ꣣तो꣢प꣣मा꣡नां꣢ प्रथ꣣मो꣡ नि षी꣢꣯दसि꣣ सो꣡म꣢काम꣣ꣳ हि꣢ ꣣ते म꣡नः꣢ ॥१२३४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त꣢म् । हि । स्व꣣रा꣡ज꣢म् । स्व꣣ । रा꣡ज꣢꣯म् । वृ꣣षभ꣢म् । तम् । ओ꣡ज꣢꣯सा । धि꣣ष꣡णे꣣इ꣡ति꣢ । नि꣣ष्टतक्ष꣡तुः꣢ । निः꣣ । ततक्ष꣡तुः꣢ । उ꣣त꣢ । उ꣣पमा꣡ना꣢म् । उ꣣प । मा꣡ना꣢꣯म् । प्र꣣थमः꣢ । नि । सी꣣दसि । सो꣡म꣢꣯कामम् । सो꣡म꣢꣯ । का꣣मम् । हि꣢ । ते꣣ । म꣡नः꣢꣯ ॥१२३४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तꣳ हि स्वराजं वृषभं तमोजसा धिषणे निष्टतक्षतुः । उतोपमानां प्रथमो नि षीदसि सोमकामꣳ हि ते मनः ॥१२३४॥


    स्वर रहित पद पाठ

    तम् । हि । स्वराजम् । स्व । राजम् । वृषभम् । तम् । ओजसा । धिषणेइति । निष्टतक्षतुः । निः । ततक्षतुः । उत । उपमानाम् । उप । मानाम् । प्रथमः । नि । सीदसि । सोमकामम् । सोम । कामम् । हि । ते । मनः ॥१२३४॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1234
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 14; मन्त्र » 2
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 9; खण्ड » 7; सूक्त » 4; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में पुनः आचार्य का विषय है।

    पदार्थ

    (तं हि स्वराजम्) विद्या के सूर्य उस आचार्य को, (तं वृषभम्) विद्या के वर्षक उस आचार्य को (धिषणे) विद्या तथा वाणी ने (निष्टतक्षतुः) संस्कृत किया हुआ है। अब प्रत्यक्षरूप में कहते हैं—(उत) और, हे आचार्यवर ! आप (उपमानाम्) उपमानों के मध्य (प्रथमः) श्रेष्ठ होकर (निषीदसि) स्थित हो। (ते मनः) आपका मन (सोमकामं हि) ज्ञानरस के प्रदान का इच्छुक है ॥२॥

    भावार्थ

    वही आचार्य श्रेष्ठ है, जिसका विद्या-वैभव और वाणी-वैभव दोनों ही उत्कृष्ट हों ॥२॥ इस खण्ड में परमात्मा, आचार्य, उपासनायज्ञ, आनन्दरस और प्रसङ्गतः राजा का वर्णन होने से इस खण्ड की पूर्व खण्ड के साथ सङ्गति जाननी चाहिए ॥ नवम अध्याय में सप्तम खण्ड समाप्त ॥

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    पदार्थ

    (तम्) उस तुझ (ओजसा स्वराजं वृषभं हि) बल से स्वयं राजमान कामवर्षक इन्द्र—ऐश्वर्यवान् परमात्मा को (धिषणे) स्तुति और विद्या१ (निष्टतक्षतुः) निष्पन्न करती है—साक्षात् कराती है (उत) अपि च (उपमानां प्रथमः-निषीदसि) उपासना योग्यों में२ प्रमुख—सर्वोपरि तू निश्चित इष्ट प्रसिद्ध होता है (ते मनः सोम कामं हि) तेरा मन सोम की—उपासनारस की कामना करने वाला है॥२॥

    विशेष

    <br>

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    विषय

    सर्व- प्रथम

    पदार्थ

    (हि) = निश्चय से (तम्) = उस (स्वराजम्) = स्वयं देदीप्यमान (तम्) = उस (वृषभम्) = अत्यन्त शक्तिशाली व सब सुखों के वर्षक प्रभु को (धिषणे) = ये द्युलोक और पृथिवीलोक (ओजसा) = अपने ओज के द्वारा (निष्टतक्षतुः) = तक्ष=[form in the mind] हमारे मनों में निर्मित करते हैं, अर्थात् हम इस देदीप्यमान द्युलोक तथा अत्यन्त दृढ़ पृथिवी को देखते हैं तो हमारे मनों में उस प्रभु की कल्पना उठती है । इन सूर्यादि पिण्डों को दीप्ति प्राप्त करानेवाले प्रभु 'स्वयं देदीप्यमान' हैं— स्वराट् हैं, उन्हीं की दीप्ति से ये सब सूर्य, अग्नि, विद्युत् व नक्षत्र चमक रहे हैं। ये पृथिवी किस प्रकार माता के समान हमपर सब सुखों का वर्षण कर रही है – पृथिवी में इस उत्पादक शक्ति को रखनेवाले वे प्रभु ही वस्तुतः ‘वृषभ' है। इस प्रकार इस पृथिवी व द्युलोक का ओज हमें प्रभु का स्मरण कराता है।

    इस प्रकार प्रभु का स्मरण करनेवाला ‘भर्ग प्रागाथ'=तेजस्वी, प्रभु का स्तोता, प्रभु का स्तवन करता हुआ कहता है कि (उत) = और (उपमानाम्) = उपमेय पदार्थों में आप (प्रथमः निषीदसि) = सर्वप्रथम स्थान में स्थित होते हैं । ज्ञानियों में आप सर्वाधिक ज्ञानी हैं तो तेजस्वियों में सर्वाधिक तेजस्वी । वस्तुत: बलवानों के बल आप ही हैं और बुद्धिमानों को बुद्धि आपसे ही दी जाती है ।

    हे प्रभो! (ते मनः) = आपका मन हि निश्चय से (सोमकामम्) = सौम्य पुरुष को चाहनेवाला है । सौम्य पुरुष को ही आप मनुष्य से ऋषि बना देते हैं ।

    भावार्थ

    वे प्रभु स्वयं देदीप्यमान व शक्तिशाली हैं। पृथिवी व द्युलोक के अन्दर प्रसृत शक्ति उसका प्रतिपादन करती है । प्रभु प्रत्येक गुण की चरमसीमा हैं। सौम्य पुरुषों को चाहते हैं|

    टिप्पणी

    नोट - प्रभु के मन की कल्पना पुरुषविधता के कारण हुई है । 

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    विषय

    missing

    भावार्थ

    (हि) क्योंकि (तं) उस (स्वराजं) स्वयं प्रकाशस्वरूप, स्वतः सबके प्रकाशक, (वृषभम्) समस्त सुखों के वर्षक, परमेश्वर को (धिषणे) आकाश और पृथिवी (ओजसा) अपने बल से (निः ततक्षतुः) धारण करती हैं। हे प्रभो ! तू (उपमानां) ज्ञानयोग्य अथवा अपने बनाये समस्त पदार्थों के भी (प्रथमः) प्रथम ज्ञानोपदेश करने हारा या रचने हारा होकर उनमें (निषीदसि) गुप्तरूप से व्यापक है। (ते) तेरे (मनः) मन, संकल्प या ज्ञान सामर्थ्य सदा (सोमकामं हि) सबको प्रेरणा करने वाला, सबका उत्पादक, इच्छामय कारणरूप संकल्प मात्र है। ‘सोऽकामयत बहु स्यां प्रजायेय’ इत्यादि प्रकार का सृष्टि रचने का भगवान् का संकल्प समस्त पदार्थों में व्यापक है, जो सर्वत्र अद्भुतरूप से स्थावर, जंगम एवं दिव्य सृष्टियों को बराबर बनाता है और उन सबमें भगवान् स्वतः व्यापक भी है। (तत् सृष्ट्वा तदेवानु प्राविशत्। तदनुप्रविश्य सच्च त्यच्चाभवत् निरुक्तं चानिरुक्तं च। इत्यादि (तैत्तिरीय उप० ब्रह्मानन्द वल्ली २। अनु० ६।) आकाश और पृथिवी परमात्मा को अपने भीतर धारण करती हूँ। जैसे (मुण्डकोपनि० २ मु० व० १. क० ४) “अग्निमूर्धा, चतुषी चन्द्र सूर्यौ दिशः श्रोत्रे, वाग्विवृताश्च वेदाः (वायुः प्राणो, हृदयं विश्वमस्य, पद्भ्यां पृथिवी, ह्येष सर्वभूतान्तरात्मा”। अथवा छान्दोग्य में, वैश्वानर प्रकरण में “तस्य ह वा एतस्यात्मनो वैश्वानरस्य मूर्धैव सुतेजाश्चक्षुर्विश्वरूपः प्राणः पृथग्वर्त्माऽऽत्मा संदेहो बहुलो, वस्तिरेव रयिः, पृथिव्येव पादावुर एव वेदिर्लोमानि हृदयं गार्हपत्यो मनोऽन्वहार्यपचनः आस्यमाहवनीयः। ” (छा० उप० अ० ५। ख० १७) अथवा स्वयं वेद श्रुति—“यस्य भूमिः प्रमाऽन्तरिक्षमुतो दरम्। दिवं यश्चक्रे मूर्धानं तस्मै ज्येष्टाय ब्रह्मणे नमः।” (अथर्व० का० १०। सू० ८। मं० १)

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१ प्रतर्दनो दैवोदामिः। २-४ असितः काश्यपो देवलो वा। ५, ११ उचथ्यः। ६, ७ ममहीयुः। ८, १५ निध्रुविः कश्यपः। ९ वसिष्ठः। १० सुकक्षः। १२ कविंः। १३ देवातिथिः काण्वः। १४ भर्गः प्रागाथः। १६ अम्बरीषः। ऋजिश्वा च। १७ अग्नयो धिष्ण्या ऐश्वराः। १८ उशनाः काव्यः। १९ नृमेधः। २० जेता माधुच्छन्दसः॥ देवता—१-८, ११, १२, १५-१७ पवमानः सोमः। ९, १८ अग्निः। १०, १३, १४, १९, २० इन्द्रः॥ छन्दः—२-११, १५, १८ गायत्री। त्रिष्टुप्। १२ जगती। १३ बृहती। १४, १५, १८ प्रागाथं। १६, २० अनुष्टुप् १७ द्विपदा विराट्। १९ उष्णिक्॥ स्वरः—२-११, १५, १८ षड्जः। १ धैवतः। १२ निषादः। १३, १४ मध्यमः। १६,२० गान्धारः। १७ पञ्चमः। १९ ऋषभः॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ पुनरप्याचार्यो वर्ण्यते।

    पदार्थः

    (तं हि स्वराजम्) तं खलु विद्यायाः सूर्यम् आचार्यम्, (तं वृषभम्) तं विद्यावर्षकम् आचार्यम् (धिषणे) विद्या वाक् च। [विद्या वै धिषणा तै० सं० ५।१।७।२, धिषणा वाग्, धिषेर्दधात्यर्थे, धीसादिनीति वा धीसानिनीति वा। निरु० ८।३।] (ओजसा) तेजसा (निष्टतक्षतुः) संस्कृतवत्यौ। [निरित्येष समित्येतस्य स्थाने। निरु० १२।७।] अथ प्रत्यक्षकृतमाह—(उत) अपि च, हे आचार्यवर ! त्वम् (उपमानाम्) उपमानानां मध्ये (प्रथमः) श्रेष्ठः सन् (निषीदसि) निषण्णोऽसि। (ते मनः) तव मानसम् (सोमकामं हि) ज्ञानरसप्रदानेच्छुकं किल विद्यते ॥२॥

    भावार्थः

    स एवाचार्यः श्रेष्ठो यस्य विद्यावैभवं वाग्वैभवं चोभयमप्युत्कृष्टम् ॥२॥ अस्मिन् खण्डे परमात्मन आचार्यस्योपासनायज्ञस्यानन्दरसस्य प्रसङ्गतो नृपतेश्च वर्णनादेतत्खण्डस्य पूर्वखण्डेन संगतिर्वेद्या ॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ८।६१।२, अथ० २०।११३।२, उभयत्र ‘तमोजसे’ इति भेदः।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O Refulgent God, the Giver of happiness, the denizens of the Earth and Sky seek after Thee, with their spiritual power. Verily Thy knowledge longs for the lovely feeling of our heart Thou art the Foremost and Subtlest amongst the forces of Nature, and art present every where, being All-Pervading !

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    Meaning

    That self-ruled, self-refulgent, brave and generous human character and programme, that human republic, the heaven and earth vested with divine will and intelligence conceive, create and fashion forth for self-realisation of innate glory. O man, among similar and comparable, you stand the first and highest, and your mind is dedicated to the love of soma, peace, pleasure and excellence of life. (Rg. 8-61-2)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (तम्) તે તારા (ओजसा स्वेराजं वृषभं हि) બળથી સ્વયં પ્રકાશમાન કામવર્ષક ઇન્દ્ર-ઐશ્વર્યવાન પરમાત્માને (धिषणे) સ્તુતિ અને વિદ્યા (निष्टतक्षतुः) નિષ્પન્ન કરે છે-સાક્ષાત્ કરાવે છે (उत) અને (उपमानां प्रथमः निषदसि) ઉપાસના યોગ્યોમાં પ્રમુખ-સર્વોપરિ તું નિશ્ચિત ઇચ્છિત પ્રસિદ્ધ થાય છે (ते मनः सोम कामं हि) તારું મન સોમની-ઉપાસનારસની કામના કરનાર છે. (૨)
     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    ज्याचे विद्या-वैभव व वाणी-वैभव दोन्ही उत्कृष्ट असतील, तोच आचार्य श्रेष्ठ असतो. ॥२॥ या खंडात परमात्मा, आचार्य, उपासना यज्ञ, आनंदरस व प्रसंगत: राजाचे वर्णन असल्यामुळे, या खंडाची पूर्व खंडाबरोबर संगती जाणली पाहिजे

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