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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1236
    ऋषिः - निध्रुविः काश्यपः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
    26

    प꣡व꣢मान꣣ नि꣡ तो꣢शसे र꣣यि꣡ꣳ सो꣢म श्र꣣वा꣡य्य꣢म् । इ꣡न्दो꣢ समु꣣द्र꣡मा वि꣢꣯श ॥१२३६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प꣡व꣢꣯मान । नि । तो꣣शसे । रयि꣢म् । सो꣣म । श्रवा꣡य्य꣢म् । इ꣡न्दो꣢꣯ । स꣣मु꣢द्रम् । स꣣म् । उद्र꣢म् । आ । वि꣣श ॥१२३६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पवमान नि तोशसे रयिꣳ सोम श्रवाय्यम् । इन्दो समुद्रमा विश ॥१२३६॥


    स्वर रहित पद पाठ

    पवमान । नि । तोशसे । रयिम् । सोम । श्रवाय्यम् । इन्दो । समुद्रम् । सम् । उद्रम् । आ । विश ॥१२३६॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1236
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 15; मन्त्र » 2
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 9; खण्ड » 8; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में पुनः परमात्मा का विषय है।

    पदार्थ

    हे (पवमान) पवित्रतादायक (सोम) रसागार परमात्मन् ! आप (श्रवाय्यम्) कीर्ति उत्पन्न करनेवाले (रयिम्) आध्यात्मिक तथा भौतिक ऐश्वर्य को (नितोशसे) देते हो। हे (इन्दो) उपासकों को चन्द्रमा के समान आह्लाद देनेवाले परमेश ! आप (समुद्रम्) जीवात्मरूप समुद्र में (आविश) प्रवेश करो ॥२॥

    भावार्थ

    जैसे चन्द्रमा अपने आकर्षण से समुद्र के जल को ऊपर उठाता है, वैसे परमेश्वर अपने चुम्बकीय आकर्षण से जीवात्मा को उन्नत करता है ॥२॥

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    पदार्थ

    (पवमान सोम इन्दो) हे आनन्दधारा में प्राप्त होने वाले शान्तस्वरूप रसीले परमात्मन्! तू (श्रवाय्यं रयिं नितोशसे) श्रवणीय—यशोधन को अपने अन्दर रख—रखता है, तू (समुद्रम्-आविश) मुझ उपासक के मन को—में३ आविष्ट हो॥२॥

    विशेष

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    विषय

    प्रेय और श्रेय No man can serve two Masters

    पदार्थ

    (पवमान) = अपने को पवित्र करने के स्वभाववाले (सोम) = सोम के रक्षक सौम्य 'निध्रुवि काश्यप'=स्थिर मनोवृत्तिवाले ज्ञानिन् ! आप (श्रवाय्यम्) = श्रवण के योग्य, अर्थात् बहुत प्रसिद्ध - अत्यधिक (रयिम्) = धन को (नितोशसे) = निश्चय से समाप्त कर देते हैं। जो ‘पवमान' है वह अनुभव करता है कि धन मुझे कुछ अभिमान की ओर ले चलता है, इसलिए वह अपने अत्यधिक धन को भी फेंक देता है— - दान के द्वारा समाप्त कर देता है । वह यह अनुभव करता है कि यह धन मुझे अपवित्र व अभिमानी बनाकर प्रभु से दूर कर रहा है। प्रभु के समीप तो मैं धन को अपने से पृथक् करके ही रह सकूँगा । -

    वेद कहता है कि हे (इन्दो) = इस तुच्छ सांसारिक धन को अपने से दूर करके उत्कृष्ट आत्मसम्पत्ति को प्राप्त करनेवाले ज्ञानिन् ! तू (समुद्रम्) = सदा आनन्दस्वरूप में रहनेवाले उस प्रभु में [स+मुद्] आविश= प्रवेश कर । हमारा मन इस धन से दूर होकर प्रभु का ध्यान करनेवाला हो । 

    भावार्थ

    प्रेय को छोड़कर हम श्रेय का आश्रय करें ।

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    विषय

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    भावार्थ

    हे (पवमान) सोम ! विद्वन् ! आप (श्रवाय्यं) यश और कीर्ति के जनक अथवा वेद द्वारा श्रवण करने योग्य (रयिं नितोशसे) आत्मज्ञान रूप ऐश्वर्य को प्रदान करते हो एवं अभ्यास करते हो। अतः हे (इन्दो) ज्ञान-प्रकाशक ! आप (समुद्रम्) समुद्र के समान गम्भीर, अगाध, ज्ञानमय परब्रह्म ज्ञान में (आविश) प्रवेश करें।

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१ प्रतर्दनो दैवोदामिः। २-४ असितः काश्यपो देवलो वा। ५, ११ उचथ्यः। ६, ७ ममहीयुः। ८, १५ निध्रुविः कश्यपः। ९ वसिष्ठः। १० सुकक्षः। १२ कविंः। १३ देवातिथिः काण्वः। १४ भर्गः प्रागाथः। १६ अम्बरीषः। ऋजिश्वा च। १७ अग्नयो धिष्ण्या ऐश्वराः। १८ उशनाः काव्यः। १९ नृमेधः। २० जेता माधुच्छन्दसः॥ देवता—१-८, ११, १२, १५-१७ पवमानः सोमः। ९, १८ अग्निः। १०, १३, १४, १९, २० इन्द्रः॥ छन्दः—२-११, १५, १८ गायत्री। त्रिष्टुप्। १२ जगती। १३ बृहती। १४, १५, १८ प्रागाथं। १६, २० अनुष्टुप् १७ द्विपदा विराट्। १९ उष्णिक्॥ स्वरः—२-११, १५, १८ षड्जः। १ धैवतः। १२ निषादः। १३, १४ मध्यमः। १६,२० गान्धारः। १७ पञ्चमः। १९ ऋषभः॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ पुनरपि परमात्मविषयमाह।

    पदार्थः

    हे (पवमान) पवित्रताप्रदायक (सोम) रसागार परमात्मन् ! त्वम् (श्रवाय्यम्) कीर्तिजनकम्। [श्रावयतीति श्रवाय्यः। श्रुदक्षिस्पृहिगृहिभ्य आय्यः। उ० ३।९६ इत्यनेन शृणोतेः आय्य प्रत्ययः।] (रयिम्) आध्यात्मिकं भौतिकं चैश्वर्यम् (नितोशसे२) प्रयच्छसि। हे (इन्दो) उपासकानां चन्द्रवदाह्लादक परमेश ! त्वम् (समुद्रम्) जीवात्मरूपं समुद्रम् (आ विश) प्रविश ॥२॥

    भावार्थः

    यथा चन्द्रः स्वाकर्षणेन समुद्रजलमुन्नयति तथा परमेश्वरश्चुम्बकीयेन स्वाकर्षणेन जीवात्मानमुन्नयति ॥२॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ९।६३।२३, ‘इन्दो’ इत्यत्र ‘प्रि॒यः’ इति पाठः। २. तोशसे, तुश दाने, ददासि—इति वि०। रयिं शत्रूणां धनं नितोशसे अतितरां पीडयसि—इति सा०। निघण्टौ नितोशते इति वधकर्मसु पठितम् (निघं० २।१९)।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O holy learned person, thou, the Creator of fame and glory, bestowest spiritual wealth. May thou go to God, Vast like the ocean.

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    Meaning

    Soma, pure and purifying omnificent lord, you grant ample and praise-worthy wealth, honour and excellence to the devotees. Pray, let your dear and blissful presence arise in the ocean-like time and space of human existence, inspire the depth of the heart and save the supplicant. (Rg. 9-63-23)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (पवमान सोम इन्दो) હે આનંદધારારૂપમાં પ્રાપ્ત થનાર શાન્ત સ્વરૂપ પરમાત્મન્ ! તું (श्रवाय्यं रयिं नितोशसे) શ્રવણીય-યશોધનને પોતાની અંદર રાખ-રાખે છે, તું (समुद्रम् आविश) મારા ઉપાસકનાં મનમાં પણ આવિષ્ટ થા-પ્રાપ્ત થા. (૨)
     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जसा चंद्र आपल्या आकर्षणाने समुद्राचे जल वर खेचतो, तसा परमेश्वर आपल्या चुंबकीय आकर्षणाने जीवात्म्याला उन्नत करतो. ॥२॥

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