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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1300
    ऋषिः - पवित्र आङ्गिरसो वा वसिष्ठो वा उभौ वा देवता - पवमानाध्येता छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः काण्ड नाम -
    29

    पा꣣वमानीः꣢ स्व꣣स्त्य꣡य꣢नीः सु꣣दु꣢घा꣣ हि꣡ घृ꣢त꣣श्चु꣡तः꣢ । ऋ꣡षि꣢भिः꣣ सं꣡भृ꣢तो꣣ र꣡सो꣢ ब्राह्म꣣णे꣢ष्व꣣मृ꣡त꣢ꣳ हि꣣त꣢म् ॥१३००

    स्वर सहित पद पाठ

    पा꣣वमानीः꣢ । स्व꣣स्त्य꣡य꣢नीः । स्व꣣स्ति । अ꣡यनीः꣢꣯ । सु꣣दु꣡घाः꣢ । सु꣣ । दु꣡घाः꣢꣯ । हि । घृ꣣तश्चु꣡तः꣢ । घृ꣣त । श्चु꣡तः꣢꣯ । ऋ꣡षि꣢꣯भिः । स꣡म्भृ꣢꣯तः । सम् । भृ꣣तः । र꣡सः꣢꣯ । ब्रा꣣ह्मणे꣡षु꣢ । अ꣣मृ꣡त꣢म् । अ꣣ । मृ꣡त꣢꣯म् । हि꣣त꣢म् ॥१३००॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पावमानीः स्वस्त्ययनीः सुदुघा हि घृतश्चुतः । ऋषिभिः संभृतो रसो ब्राह्मणेष्वमृतꣳ हितम् ॥१३००


    स्वर रहित पद पाठ

    पावमानीः । स्वस्त्ययनीः । स्वस्ति । अयनीः । सुदुघाः । सु । दुघाः । हि । घृतश्चुतः । घृत । श्चुतः । ऋषिभिः । सम्भृतः । सम् । भृतः । रसः । ब्राह्मणेषु । अमृतम् । अ । मृतम् । हितम् ॥१३००॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1300
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 8; मन्त्र » 3
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 10; खण्ड » 7; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    आगे फिर वेद के अध्ययन का ही फल वर्णित है।

    पदार्थ

    (पावमानीः) पवमान देवतावाली ऋचाएँ (हि) निश्चय ही (स्वस्त्ययनीः) कल्याण प्राप्त करानेवाली, (सुदुघाः) मधुर दूध देनेवाली और (घृतश्चुतः) घी चुआनेवाली होती हैं। इनके अध्ययन से (ऋषिभिः) वेदरहस्यवेत्ता ऋषिजन (रसः) आनन्द-रस को (संभृतः) आस्वादन करते हैं और (ब्राह्मणेषु) वेदपाठी ब्राह्मणों को (अमृतम्) दुःखमोक्षरूप अमृतत्व (हितम्) प्राप्त होता है ॥३॥ यहाँ ‘सुदुघाः’ और ‘घृतश्चुतः’ इन शब्दों के अर्थ से पावमानी ऋचाएँ दुधारू गायें हैं, यह व्यङ्ग्यार्थ निकलता है ॥३॥

    भावार्थ

    वेदों के अध्ययन से कर्मयोगी होकर लोग सब लौकिक और आध्यात्मिक सम्पदा प्राप्त कर लेते हैं ॥३॥

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    पदार्थ

    (पावमानीः) पवमान—सोम—परमात्मा की स्तुतियाँ (स्वस्ति-अयनीः) कल्याण प्राप्त कराने वाली (सुदुघाः) साधुरूप कामना को दूहने वाली (हि) अवश्य (घृतश्चुतः) ज्ञानदीप्ति को झिराने वाली हैं (ऋषिभिः-रसः सम्भृतः) जिनको अपने अन्दर धारण कर उपासक मेधावीजनों ने रसरूप परमात्मा को परम्परा से सम्यक् धारण किया है (ब्राह्मणेषु-अमृतं हितम्) ब्रह्मवेत्ता विद्वानों के निमित्त अमृत—मोक्ष कहा गया है॥३॥

    विशेष

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    विषय

    रस व अमृत

    पदार्थ

    ये ऋचाएँ १. (पावमानी:) = हमारे जीवनों को पवित्र करनेवाली हैं— मनोवृत्ति को उत्तम बनाकर ये हमारे जीवनों को सुन्दर बना देती हैं । २. (स्वस्त्ययनीः) = ये हमें सदा कल्याण के मार्ग पर लेचलनेवाली हैं, उत्तम कर्मों की प्रेरणा द्वारा हमें अशुभ मार्ग से निवृत्त करती हैं । ३. (सु-दुघा) = उत्तम वस्तुओं का हममें पूरण करनेवाली हैं। हमारे मनों में उत्तम भावनाओं को भरनेवाली हैं। ४. (हि) = निश्चय से ये (घृतश्चुतः) = हममें [घृ दीप्ति] दीप्ति को प्राप्त करानेवाली हैं, [घृ=क्षरण] मलों को दूर करके हमारी बुद्धियों की कुण्ठा को नष्ट करके ये हमारे ज्ञान को दीप्त करती हैं ।

    इन्हीं के द्वारा (ऋषिभिः) = मन्त्रार्थद्रष्टाओं ने (रसः संभृतः) = अपने जीवन में रस का संचार किया अपने जीवन को मधुर बनाया और इन्हीं के द्वारा (ब्राह्मणेषु) = ब्रह्मज्ञानियों में (अमृतं हितम्) = मोक्ष निहित हुआ । इन्हीं का आश्रय करके उन्होंने अमरता का लाभ किया।

    भावार्थ

    ऋचाओं से हम अपने जीवनों को पवित्र बनाएँ जिससे इहलोक में हमारा जीवन रसमय हो और परलोक में हम अमृत हों ।

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    विषय

    missing

    भावार्थ

    (याः पावमान्यः ऋचः) जो पवमान सोमसम्बन्धी ऋचाएं हैं वे (स्वस्त्ययनीः) कल्याण और योगक्षेम को प्राप्त कराने हारी, (सुदुधाः) सुखसे ही परमानन्द रस को देने वाली, (घृतश्चुतः) ज्ञान और सात्विक प्रकाश के उत्पन्न करने वाली हैं। वे तो साक्षात् (ऋषिभिः) ऋषियों द्वारा (संभृतः) प्राप्त (रसः) परम रसस्वरूप (ब्राह्मणेषु*) वेद के विद्वानों के भीतर (हितम्) स्थापित (अमृतं) कभी न नाश होने वाली अमृतं, अध्यात्म ब्रह्मज्ञान के समान हैं।

    टिप्पणी

    *विपायो विरजोऽविचिकित्सो ब्राह्मणो भवति। [ वृ० उप० अ० ४। ४। २३ ] ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१ पराशरः। २ शुनःशेपः। ३ असितः काश्यपो देवलो वा। ४, ७ राहूगणः। ५, ६ नृमेधः प्रियमेधश्च। ८ पवित्रो वसिष्ठौ वोभौ वा। ९ वसिष्ठः। १० वत्सः काण्वः। ११ शतं वैखानसाः। १२ सप्तर्षयः। १३ वसुर्भारद्वाजः। १४ नृमेधः। १५ भर्गः प्रागाथः। १६ भरद्वाजः। १७ मनुराप्सवः। १८ अम्बरीष ऋजिष्वा च। १९ अग्नयो धिष्ण्याः ऐश्वराः। २० अमहीयुः। २१ त्रिशोकः काण्वः। २२ गोतमो राहूगणः। २३ मधुच्छन्दा वैश्वामित्रः॥ देवता—१—७, ११-१३, १६-२० पवमानः सोमः। ८ पावमान्यध्येतृस्तृतिः। ९ अग्निः। १०, १४, १५, २१-२३ इन्द्रः॥ छन्दः—१, ९ त्रिष्टुप्। २–७, १०, ११, १६, २०, २१ गायत्री। ८, १८, २३ अनुष्टुप्। १३ जगती। १४ निचृद् बृहती। १५ प्रागाथः। १७, २२ उष्णिक्। १२, १९ द्विपदा पंक्तिः॥ स्वरः—१, ९ धैवतः। २—७, १०, ११, १६, २०, २१ षड्जः। ८, १८, २३ गान्धारः। १३ निषादः। १४, १५ मध्यमः। १२, १९ पञ्चमः। १७, २२ ऋषभः॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ पुनरपि वेदाध्ययनस्यैव फलमाह।

    पदार्थः

    (पावमानीः) पावमान्यः पवमानदेवताका ऋचः (हि) निश्चयेन (स्वस्त्ययनीः) कल्याणप्रापिकाः, (सुदुघाः) मधुरदुग्धप्रदाः, (घृतश्चुतः) घृतस्राविण्यश्च भवन्ति। आसामध्ययनेन (ऋषिभिः) वेदरहस्यविद्भिः (रसः) आनन्दरसः (संभृतः) आस्वादितो भवति, (ब्राह्मणेषु) वेदपाठिषु विप्रेषु च (अमृतम्) दुःखमोक्षरूपम् अमृतत्वम् (हितम्) निहितं जायते ॥३॥ अत्र ‘सुदुघाः’, ‘घृतश्चुतः’ इत्यनेन पावमानीनामृचां धेनुत्वं व्यज्यते ॥३॥

    भावार्थः

    वेदाध्ययनेन कर्मयोगिनो भूत्वा जनाः सर्वामपि लौकिकीमाध्यात्मिकीं च सम्पदं लभन्ते ॥३॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    The purifying Vedic verses pertaining to Soma, are the bestower of eternal happiness, the bearers of nice fruit, and the givers of knowledge. They are the essence of the Vedas realised by the Rishis, and eternal knowledge stored in the knowers of the Vedas.

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    Meaning

    Flowing, sanctifying, edifying, fructifying and ecstatic is the holy experience of divine vision and message of the Rks received and collected by sagely seers and that is the eternal nectar preserved among the dedicated Brahmanas.

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (पावमानीः) પવમાન-સોમ-પરમાત્માની સ્તુતિઓ (स्वस्ति अयनीः) કલ્યાણ પ્રાપ્ત કરાવનારી (सुदुघाः) સુંદર કામનાનું દોહન કરનારી (हि) અવશ્ય (घृतश्चुतः) જ્ઞાન દીપ્તિને ઝરાવનારી-વરસાવનારી છે. (ऋषिभिः रसः सम्भृतः) જેને પોતાની અંદર ધારણ કરીને ઉપાસક મેધાવીજનોએ રસરૂપ પરમાત્માને પરંપરાથી સારી રીતે ધારણ કરેલ છે. (ब्राह्मणेषु अमृतं हितम्) બ્રહ્મવેત્તા વિદ્વાનોને માટે અમૃત-મોક્ષ કહેવામાં આવેલ છે. (૩)

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    वेदाचे अध्ययन करण्याने कर्मयोगी बनून लोक संपूर्ण लौकिक व आध्यात्मिक संपदा प्राप्त करतात. ॥३॥

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