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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1336
ऋषिः - अहमीयुराङ्गिरसः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
41
त꣡मिद्व꣢꣯र्धन्तु नो꣣ गि꣡रो꣢ व꣣त्स꣢ꣳ स꣣ꣳशि꣡श्व꣢रीरिव । य꣡ इन्द्र꣢꣯स्य हृद꣣ꣳस꣡निः꣢ ॥१३३६॥
स्वर सहित पद पाठत꣢म् । इत् । व꣢र्धन्तु । नः । गि꣡रः꣢꣯ । व꣣त्स꣢म् । स꣣ꣳशि꣡श्व꣢रीः । स꣣म् । शि꣡श्व꣢꣯रीः । इ꣣व । यः꣢ । इ꣡न्द्र꣢꣯स्य । हृ꣣दꣳस꣡निः꣢ ॥१३३६॥
स्वर रहित मन्त्र
तमिद्वर्धन्तु नो गिरो वत्सꣳ सꣳशिश्वरीरिव । य इन्द्रस्य हृदꣳसनिः ॥१३३६॥
स्वर रहित पद पाठ
तम् । इत् । वर्धन्तु । नः । गिरः । वत्सम् । सꣳशिश्वरीः । सम् । शिश्वरीः । इव । यः । इन्द्रस्य । हृदꣳसनिः ॥१३३६॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1336
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 20; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 10; खण्ड » 11; सूक्त » 5; मन्त्र » 2
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 20; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 10; खण्ड » 11; सूक्त » 5; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अगले मन्त्र में परमात्मा का विषय है।
पदार्थ
(तम् इत्) उस सोम अर्थात् शान्तिदायक परमात्मा को (नः गिरः) हमारी वाणियाँ (सं वर्धन्तु) बढ़ाएँ, प्रचारित करें। (शिश्वरीः) समृद्ध दूधवाली दुधारू गाएँ (वत्सम् इव) जैसे अपने बछड़े को दूध से बढ़ाती हैं। कैसे परमात्मा को? (यः) जो सोम परमात्मा (इन्द्रस्य) जीवात्मा के (हृदंसनिः) हृदय में रहनेवाला है ॥२॥ यहाँ उपमालङ्कार है ॥२॥
भावार्थ
विद्वान् धार्मिक जनों को चाहिए कि वे अपने उपदेशों से जनता में परमेश्वर के प्रति विश्वास उत्पन्न करें, जिससे सर्वत्र आस्तिकता और धार्मिकता का वातावरण उत्पन्न हो ॥२॥
पदार्थ
(तम्-इत्) उस सोम—परमात्मा को ही (नः-गिरः संवर्धन्तु) हमारी स्तुतियाँ बढ़ावा दें—हमारी ओर आने को उत्साहित करें३ (वत्सं शिश्वरीः-इव) जैसे शिशु वाली४ माताएँ दूध पिलाने वाली अपनी ओर आने के लिये बच्चे को उत्साहित करती हैं (यः-इन्द्रस्य हृदं सनिः) जो उपासक आत्मा के हृदय का सम्भक्ता—हृदय में रहने वाला या हृदयग्राही हो॥२॥
विशेष
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विषय
प्रभु-स्मरण से उत्साहमय जीवन
पदार्थ
(नः)-हमारी (गिरः) = वाणियाँ (इत्) = निश्चय से (तम्) = उस प्रभु को ही (वर्धन्तु) = बढ़ाएँ, अर्थात् हमारी स्तुति-वाणियाँ उस प्रभु की भावना को हमारे अन्दर इस प्रकार बढ़ाएँ (इव) = जैसे (संशिश्वरी:) = उत्तम शिशुओंवाली माताएँ (वत्सम्) = अपने प्रिय सन्तान को बढ़ाती हैं । स्तुतिवचन मातृस्थानापन्न हैं और की भावना सन्तान के स्थान में हैं। स्तुति-वचन प्रभु-भावना को हमारे अन्दर अधिकाधिक बढ़ाएँगे उस प्रभु की भावना को ये स्तुतिवचन हममें बढ़ाएँ (यः) = जो प्रभु (इन्द्रस्य) = इन्द्रियों के अधिष्ठाता जीव के (हृदं सनिः) = हृदय में उत्साह प्राप्त करानेवाले हैं। जब मेरा जीवन प्रभु की भावना से ओतप्रोत होता है तब जहाँ मुझे पवित्रता प्राप्त होती है वहाँ निर्भीकता भी प्राप्त होती है। मेरा जीवन निराशा की भावना को परे फेंककर उत्साह की भावना से भर जाता है ।
भावार्थ
प्रभु-स्मरण से मेरे मन में उत्साह का संचार हो ।
विषय
missing
भावार्थ
(शिश्वरीः) माताएं जिस प्रकार (वत्सं इव) बालक को अपने दुग्धरसों से बढ़ाती हैं उसी प्रकार (नः) हमारी (गिरः) ज्ञानकथाएं (तमिद्) उस आत्मा के आनन्द को ही (बर्धन्तु) वृद्धि करें। उसके बल को बढ़ावें (यः) जो (इन्द्रस्य) अन्तरात्मा रूप इन्द के (हृदंसनिः) हृदय में व्यापक रहता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः—१ पराशरः। २ शुनःशेपः। ३ असितः काश्यपो देवलो वा। ४, ७ राहूगणः। ५, ६ नृमेधः प्रियमेधश्च। ८ पवित्रो वसिष्ठौ वोभौ वा। ९ वसिष्ठः। १० वत्सः काण्वः। ११ शतं वैखानसाः। १२ सप्तर्षयः। १३ वसुर्भारद्वाजः। १४ नृमेधः। १५ भर्गः प्रागाथः। १६ भरद्वाजः। १७ मनुराप्सवः। १८ अम्बरीष ऋजिष्वा च। १९ अग्नयो धिष्ण्याः ऐश्वराः। २० अमहीयुः। २१ त्रिशोकः काण्वः। २२ गोतमो राहूगणः। २३ मधुच्छन्दा वैश्वामित्रः॥ देवता—१—७, ११-१३, १६-२० पवमानः सोमः। ८ पावमान्यध्येतृस्तृतिः। ९ अग्निः। १०, १४, १५, २१-२३ इन्द्रः॥ छन्दः—१, ९ त्रिष्टुप्। २–७, १०, ११, १६, २०, २१ गायत्री। ८, १८, २३ अनुष्टुप्। १३ जगती। १४ निचृद् बृहती। १५ प्रागाथः। १७, २२ उष्णिक्। १२, १९ द्विपदा पंक्तिः॥ स्वरः—१, ९ धैवतः। २—७, १०, ११, १६, २०, २१ षड्जः। ८, १८, २३ गान्धारः। १३ निषादः। १४, १५ मध्यमः। १२, १९ पञ्चमः। १७, २२ ऋषभः॥
संस्कृत (1)
विषयः
अथ परमात्मविषयमाह।
पदार्थः
(तम् इत्) तं खलु सोमं शान्तिदायकं परमात्मानम् (नः गिरः) अस्माकं वाचः (सं वर्धन्तु) संवर्धयन्तु, संवर्धनं चात्र प्रचारणं ज्ञेयम्। कथमिव ? (शिश्वरीः) वृद्धपयस्का (दोग्ध्र्यो गावः)। [टुओश्वि गतिवृद्ध्योः इत्यस्य रूपम्।] (वत्सम् इव) यथा स्वकीयं वत्सं पयसा वर्धयन्ति तथा। कीदृशम् परमात्मानम् ? (यः) सोमः परमात्मा (इन्द्रस्य) जीवात्मनः (हृदंसनिः) हृदयसेवी वर्तते। [हृदं हृदयं सनति संभजते यः स हृदंसनिः। द्वितीयाया अलुक्। षण सम्भक्तौ] ॥२॥ अत्रोपमालङ्कारः ॥२॥
भावार्थः
विद्वद्भिर्धार्मिकैर्जनैः स्वोपदेशैः जनतायां परमेश्वरं प्रति विश्वास उत्पादनीयः, येन सर्वत्राऽऽस्तिकताया धार्मिकतायाश्च वातावरणं भवेत् ॥२॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Just as mothers nourish the child with their milk, so may our learned discourses exalt God, Who resides inside the soul.
Meaning
As mother cows love, cheer and caress the calf, so let our songs of adoration celebrate and exalt Soma, love and grace of the heart of Indra, lifes glory on top of existence. (Rg. 9-61-14)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (तम् इत्) તે સોમ-પરમાત્માને જ (नः गिरः संवर्धन्तु) અમારી સ્તુતિઓને વધારી દે-અમારી તરફ આવવા માટે ઉત્સાહિત કરે. (वत्सं शिश्वरीः इव) જેમ બાળકોની માતાઓ દૂધપાન કરાવવા પોતાની તરફ આવવા માટે બાળકોને ઉત્સાહિત કરે છે. (यः इन्द्रस्य हृदं सनिः) જે ઉપાસક આત્માનાં હૃદયનો સંભક્ત-હૃદયમાં રહેનાર અથવા હૃદયગ્રાહી હોય. (૨)
मराठी (1)
भावार्थ
विद्वान धार्मिक लोकांनी आपल्या उपदेशाने लोकांमध्ये परमेश्वराबद्दल विश्वास उत्पन्न करावा, ज्यामुळे सर्वत्र आस्तिकता व धार्मिकतेचे वातावरण उत्पन्न व्हावे. ॥२॥
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