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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1337
    ऋषिः - अहमीयुराङ्गिरसः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
    22

    अ꣡र्षा꣢ नः सोम꣣ शं꣡ गवे꣢꣯ धु꣣क्ष꣡स्व꣢ पि꣣प्यु꣢षी꣣मि꣡ष꣢म् । व꣡र्धा꣢ स꣣मु꣡द्र꣢मुक्थ्य ॥१३३७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ꣡र्ष꣢꣯ । नः꣣ । सोम । श꣢म् । ग꣡वे꣢꣯ । धु꣣क्ष꣡स्व꣢ । पि꣣प्यु꣡षी꣢म् । इ꣡ष꣢꣯म् । व꣡र्ध꣢꣯ । स꣡मुद्र꣢म् । स꣣म् । उ꣢द्रम् । उ꣣क्थ्य ॥१३३७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अर्षा नः सोम शं गवे धुक्षस्व पिप्युषीमिषम् । वर्धा समुद्रमुक्थ्य ॥१३३७॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अर्ष । नः । सोम । शम् । गवे । धुक्षस्व । पिप्युषीम् । इषम् । वर्ध । समुद्रम् । सम् । उद्रम् । उक्थ्य ॥१३३७॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1337
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 20; मन्त्र » 3
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 10; खण्ड » 11; सूक्त » 5; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में परमात्मा से प्रार्थना करते हैं।

    पदार्थ

    हे (सोम) जगत् के रचयिता शान्तिप्रिय परमात्मन् ! आप (नः) हमारी (गवे) सारी धरती को (शम्) सुख-शान्ति (अर्ष) प्राप्त कराओ, हमें (पिप्युषीम्) समृद्ध (इषम्) अभीष्ट सम्पदा (धुक्ष्व) प्रदान करो। हे (उक्थ्य) स्तुतियोग्य ! (समुद्रम्) सद्गुणों के समुद्र जीवात्मा को अथवा उसमें विद्यमान आनन्द के समुद्र को (वर्ध) बढ़ाओ। जैसे सोम चन्द्रमा जलों के पारावार समुद्र को बढ़ाता है, यह यहाँ ध्वनित होता है ॥३॥

    भावार्थ

    रमात्मा की कृपा से और मनुष्यों के प्रयत्न से सारी धरती सुख, शान्ति तथा प्रचुर सम्पदा प्राप्त करे और उसके निवासी आपस में प्रेम का व्यवहार करें ॥३॥ इस खण्ड में परत्मात्मा, ब्रह्मानन्द और गुरु-शिष्य के विषयों का वर्णन होने से इस खण्ड की पूर्व खण्ड के साथ सङ्गति जाननी चाहिए ॥ दशम अध्याय में एकादश खण्ड समाप्त ॥

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    पदार्थ

    (सोम) हे शान्तस्वरूप परमात्मन्! तू (नः-गवे शम्-अर्ष) हमारी वाणी के लिये५ सुख प्रेरित कर (पिप्युषीम्-इषं धुक्षस्व) बढ़ी-चढ़ी दर्शन कामना को प्रपूर्ण कर (उक्थ्यं समुद्रं वर्ध) हमारे प्रशंसनीय मन को६ बढ़ा॥३॥

    विशेष

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    विषय

    वृद्धि की कारणभूत प्रेरणा

    पदार्थ

    'अमहीयु: ' = मही को - पार्थिव भोगों को न चाहनेवाला प्रभु से प्रार्थना करता है—१. हे (सोम) = शान्त प्रभो ! (नः) =हमें (अर्ष) = प्राप्त होओ । २. (शं गवे) = हमारे ज्ञानेन्द्रियों व कर्मेन्द्रियों को शान्ति प्राप्त कराइए ३. (पिप्युषीम्) = वृद्धि की कारणूभत (इषम्) = प्रेरणा को (धुक्षस्व) = हममें भर दीजिए। हमें वह प्रेरणा प्राप्त कराइए, जिसे प्राप्त करके हम और आगे बढ़ते चलें, सदा उन्नति के मार्ग पर अग्रसर हों । ४. हे (उक्थ्य) = ऊँचे स्वर से गाने योग्य स्तोत्रों से स्तूयमान प्रभो ! (नः) = हमारे (समुद्रम्) = ज्ञान के समुद्र को (वर्ध) = खूब बढ़ा दीजिए |

    भावार्थ

    प्रभु कृपा से हमारी इन्द्रियाँ शान्त हों । हमें उन्नति के मार्ग पर बढ़ानेवाली प्रेरणा प्राप्त हो, तथा हमारे ज्ञानसमुद्र की वृद्धि हो ।

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    विषय

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    भावार्थ

    हे सोम ! तू (नः) हमारे (गवे) गोरूप वाणी के लिये (शं) शान्तिदायक कल्याणकारी सुख को (अर्ष) प्रेरित कर और (पिप्युषी) निरन्तर सामर्थ्य बढ़ाने वाली (इषं) इच्छा शक्ति और अन्न के समान पोषक बल को (धुक्षस्व) प्राप्त करा और हे (उक्थ्य) प्रशंसनीय ! (समुद्रं) रसों के सागर रूप आत्मा को (वर्ध) बढ़ा।

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१ पराशरः। २ शुनःशेपः। ३ असितः काश्यपो देवलो वा। ४, ७ राहूगणः। ५, ६ नृमेधः प्रियमेधश्च। ८ पवित्रो वसिष्ठौ वोभौ वा। ९ वसिष्ठः। १० वत्सः काण्वः। ११ शतं वैखानसाः। १२ सप्तर्षयः। १३ वसुर्भारद्वाजः। १४ नृमेधः। १५ भर्गः प्रागाथः। १६ भरद्वाजः। १७ मनुराप्सवः। १८ अम्बरीष ऋजिष्वा च। १९ अग्नयो धिष्ण्याः ऐश्वराः। २० अमहीयुः। २१ त्रिशोकः काण्वः। २२ गोतमो राहूगणः। २३ मधुच्छन्दा वैश्वामित्रः॥ देवता—१—७, ११-१३, १६-२० पवमानः सोमः। ८ पावमान्यध्येतृस्तृतिः। ९ अग्निः। १०, १४, १५, २१-२३ इन्द्रः॥ छन्दः—१, ९ त्रिष्टुप्। २–७, १०, ११, १६, २०, २१ गायत्री। ८, १८, २३ अनुष्टुप्। १३ जगती। १४ निचृद् बृहती। १५ प्रागाथः। १७, २२ उष्णिक्। १२, १९ द्विपदा पंक्तिः॥ स्वरः—१, ९ धैवतः। २—७, १०, ११, १६, २०, २१ षड्जः। ८, १८, २३ गान्धारः। १३ निषादः। १४, १५ मध्यमः। १२, १९ पञ्चमः। १७, २२ ऋषभः॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ परमात्मानं प्रार्थयते।

    पदार्थः

    हे (सोम) जगत्स्रष्टः शान्तिप्रिय परमात्मन् ! त्वम् (नः) अस्माकम् (गवे) सम्पूर्णधरित्र्यै (शम्) सुखं शान्तिं च (अर्ष) प्रापय, अस्मभ्यम् (पिप्युषीम्) समृद्धाम् [ओप्यायी वृद्धौ, लिटः क्वसौ रूपम्।] (इषम्) अभीष्टां सम्पत्तिम् (धुक्ष्व) प्रदेहि। हे (उक्थ्य) स्तुत्यर्ह ! (समुद्रम्) सद्गुणानां सागरं जीवात्मानम् यद्वा, तत्र विद्यमानम् आनन्दस्य सागरम् (वर्ध) वर्धय। यथा सोमेन चन्द्रमसाऽपां राशिः समुद्रो वर्ध्यते इति ध्वन्यते ॥३॥

    भावार्थः

    परमात्मकृपया मानवानां प्रयासेन च सकलापि धरा सुखं शान्तिं प्रचुरां सम्पदं च प्राप्नुयात्, तन्निवासिनश्च परस्परं प्रेम्णा व्यवहरेयुः ॥३॥ अस्मिन् खण्डे परमात्मनो ब्रह्मानन्दस्य गुरुशिष्ययोश्च विषयाणां वर्णनादेतत्खण्डस्य पूर्वखण्डेन संगतिर्वेद्या ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O God, grant peaceful calm to our speech, grant us invigorating willpower. O Praiseworthy God, exalt our soul unfathomable like the ocean !

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    Meaning

    O Soma, peaceable ruling powers of the world, rise, move forward and create conditions of peace and progress for the earth, work for nature, animal wealth and environment, advance human culture, create nourishing food and productive energy for comfort and common good and, thus, exalt the grace and glory of human life, rolling like the infinite ocean. (Rg. 9-61-15)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (सोम) હે શાન્ત સ્વરૂપ પરમાત્મન્ ! તું (नः गवे शम् अर्ष) અમારી વાણીને માટે સુખ પ્રેરિત કર. (पिप्युषीम् इषं धुक्षस्व) અત્યંત વધેલી કામનાને પ્રપૂર્ણ કર. (उक्थ्यं समुद्रं वर्ध) અમારા પ્રશંસનીય મનને વિકસિત કર. (૨)
     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमेश्वराच्या कृपेने व माणसांच्या प्रयत्नाने संपूर्ण धरतीवर सुख, शांती व प्रचुर संपदा प्राप्त व्हावी व तेथील निवासी लोकांनी आपापसात प्रेमाचा व्यवहार करावा. ॥३॥

    टिप्पणी

    या खंडात परमात्मा, ब्रह्मानंद व गुरू-शिष्यांच्या विषयाचे वर्णन असल्यामुळे या खंडाची पूर्व खंडाबरोबर संगती जाणावी

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