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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1379
    ऋषिः - गोतमो राहूगणः देवता - अग्निः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
    55

    उ꣣पप्रय꣡न्तो꣢ अध्व꣣रं꣡ मन्त्रं꣢꣯ वोचेमा꣣ग्न꣡ये꣢ । आ꣣रे꣢ अ꣣स्मे꣡ च꣢ शृण्व꣣ते꣢ ॥१३७९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ꣣पप्रय꣡न्तः꣢ । उ꣣प । प्रय꣡न्तः꣢ । अ꣣ध्वर꣢म् । म꣡न्त्र꣢꣯म् । वो꣣चेम । अग्न꣡ये꣢ । आ꣣रे꣢ । अ꣢स्मे꣡इति꣢ । च꣣ । शृण्वते꣢ ॥१३७९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उपप्रयन्तो अध्वरं मन्त्रं वोचेमाग्नये । आरे अस्मे च शृण्वते ॥१३७९॥


    स्वर रहित पद पाठ

    उपप्रयन्तः । उप । प्रयन्तः । अध्वरम् । मन्त्रम् । वोचेम । अग्नये । आरे । अस्मेइति । च । शृण्वते ॥१३७९॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1379
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 12; खण्ड » 1; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (5)

    विषय

    प्रथम मन्त्र में परमेश्वरोपासना का विषय कहते हैं।

    पदार्थ

    (अध्वरम्) हिंसारहित ब्रह्मयज्ञ वा देवयज्ञ में (उपप्रयन्तः) जाते हुए हम (आरे) दूर (अस्मे च) और हमारे समीप (शृण्वते) प्रार्थना-वचनों को सुननेवाले (अग्नये) अग्रनायक जगदीश्वर के लिए (मन्त्रम्) वेदमन्त्र को (वोचेम) उच्चारण करें ॥१॥

    भावार्थ

    ब्रह्मयज्ञ वा देवयज्ञ करते हुए मनुष्य मन्त्रोच्चारणपूर्वक परमेश्वर के गुण-कर्म-स्वभावों का ध्यान किया करें और उससे शिक्षा-ग्रहण किया करें ॥१॥

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    पदार्थ

    (अध्वरं-उपप्रयन्तः) हम उपासक अध्यात्मयज्ञ को (उपप्रयन्त) अपने अन्दर चरित करने के हेतु१ (अस्मे-आरे च) हमारे दूर२ और समीप भी (शृण्वते) सुनने वाले (अग्नये) ज्ञानप्रकाशस्वरूप सर्वज्ञ अन्तर्यामी परमात्मा के लिये (मन्त्रं वोचेम) मननीय स्तुतिवचन बोलें॥१॥

    विशेष

    ऋषिः—गोतमः (परमात्मा में अत्यन्त गतिशील उपासक)॥ देवता—अग्निः (ज्ञानप्रकाशस्वरूप परमात्मा)॥<br>

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    विषय

    किसकी प्रार्थना सुनी जाती है ?

    पदार्थ

    राहूगण – त्यागियों में गिनने योग्य, अर्थात् उत्तम त्यागी पुरुष अपने मित्रों को प्रेरणा देता हुआ कहता है कि १. (अध्वरम्) - हिंसाशून्य यज्ञों के (उपप्रयन्तः) = समीप प्रकर्षेण प्राप्त होते हुए हम २. (अग्नये) = हमें आगे और आगे ले चलकर मोक्षस्थान में प्राप्त करानेवाले प्रभु के लिए (मन्त्रं वोचेम) = स्तुतिवचनों का उच्चारण करें। उस प्रभु के लिए जोकि (आरे) = दूर (च) = तथा (अस्मे) = हमारे समीपवालों की पुकारों को शृण्वते सुनते हैं ।

    हमें प्रभु की स्तुति तो करनी ही चाहिए, परन्तु इस स्तुति की एक आवश्यक शर्त है कि हम पुरुषार्थ करने के उपरान्त ही प्रार्थना करें। बिना पुरुषार्थ के सब स्तवन भाटों के स्तवन के समान है। उसकी उपयोगिता सन्दिग्ध है। हमारा पुरुषार्थ भी यज्ञात्मक हो । हमारे कर्म विध्वंसक कर्म न होकर निर्माणात्मक हों । निर्माणात्मक कर्मों को करते हुए हम प्रभु-स्तवन करेंगे तो वे प्रभु हमारी पुकार अवश्य सुनेगें। वे प्रभु समीप व दूर सबकी बातों को सुनते हैं । 'हम पात्र बनेंगे तो प्रभु न सुनेंगे' यह नहीं हो सकता । वे प्रभु तो सर्वत्र व्याप्त हैं— उनके लिए समीप व दूर कुछ नहीं है । हम अध्वर को अपने साथ संयुक्त करके 'अध्वर्यु' बनें, प्रभु अवश्य सुनेंगे । इस प्रकार अध्वर्यु बनकर उत्तम इन्द्रियोंवाले हम प्रस्तुत मन्त्र के ऋषि ‘गोतम' भी तो होंगे।
     

    भावार्थ

    हम यज्ञमय जीवनवाले, त्याग की वृत्तिवाले 'राहूगण' बनें, जिससे हम इस योग्य हों कि प्रभु हमारी प्रार्थना सुनें ।

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    पदार्थ

    शब्दार्थ =  ( अध्वरम् ) = हिंसा रहित यज्ञ के  ( उपप्रयन्तः ) = समीप जाते हुए हम  ( आरे ) = दूरस्थों की  ( च ) = और  ( अस्मे ) =  समीपस्थों की  ( शृण्वते अग्नये ) = सुनते हुए ज्ञान स्वरूप परमेश्वर के लिए  ( मन्त्रं वोचेम ) = स्तुतिरूप मन्त्र को उच्चारण करें। 
     

    भावार्थ

    भावार्थ = हे विभो ! हम से दूरवर्ती और समीपवर्ती सब प्राणिमात्र की पुकार को, आप सदा सुनते हैं, इसलिए हम सब को योग्य है कि आपके रचे वेदों के पवित्र स्तुतिरूप सूक्त और मन्त्रों का, वाणी से पाठ, यज्ञ होमादिकों के आरम्भ में अवश्य किया करें और मन से आप का ही ध्यान और उपासना सदा किया करें ।

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    विषय

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    भावार्थ

    (अध्वरं) हिंसा आदि रहित पर-उपकार आदि पवित्र कर्मों को (उप प्रयन्तः) अनुष्ठान करते हुए हम लोग (आरे) दूर देश में (च) भी (अस्मे) हमारी स्तुति को (शृण्वते) सुनने वाले (अग्नये) प्रकाशस्वरूप, ज्ञान के दाता परमात्मा की स्तुति के लिये (मन्त्रं) मनन करने योग्य वेदमन्त्र का (वोचेम) उच्चारण करें।

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१ गोतमो राहूगणः, वसिष्ठस्तृतीयस्याः। २, ७ वीतहव्यो भरद्वाजो वा बार्हस्पत्यः। ३ प्रजापतिः। ४, १३ सोभरिः काण्वः। ५ मेधातिथिमेध्यातिथी काण्वौ। ६ ऋजिष्वोर्ध्वसद्मा च क्रमेण। ८, ११ वसिष्ठः। ९ तिरश्वीः। १० सुतंभर आत्रेयः। १२, १९ नृमेघपुरुमेधौ। १४ शुनःशेप आजीगर्तिः। १५ नोधाः। १६ मेध्यातिथिमेधातिथिर्वा कण्वः। १७ रेणुर्वैश्वामित्रः। १८ कुत्सः। २० आगस्त्यः॥ देवता—१, २, ८, १०, १३, १४ अग्निः। ३, ६, ८, ११, १५, १७, १८ पवमानः सोमः। ४, ५, ९, १२, १६, १९, २० इन्द्रः॥ छन्दः—१, २, ७, १०, १४ गायत्री। ३, ९ अनुष्टुप्। ४, १२, १३, १६ प्रागाथं। ५ बृहती। ६ ककुप् सतोबृहती च क्रमेण। ८, ११, १५, १० त्रिष्टुप्। १७ जगती। १६ अनुष्टुभौ बृहती च क्रमेण। २९ बृहती अनुष्टुभौ क्रमेण॥ स्वरः—१, २, ७, १०, १४ षड्जः। ३, ९, १०, गान्धारः। ४-६, १२, १३, १६, २० मध्यमः। ८, ११, १५, १८ धैवतः। १७ निषादः।

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ परमेश्वरोपासनाविषयमाह।

    पदार्थः

    (अध्वरम्) हिंसारहितं ब्रह्मयज्ञं देवयज्ञं वा (उप प्रयन्तः) उपगच्छन्तः वयम् (आरे) दूरे। [आरे इति दूरनाम। निघं० ३।२६।] (अस्मे च) अस्माकं समीपे च, (शृण्वते) प्रार्थनावचांसि आकर्णयते (अग्नये) अग्रनायकाय जगदीश्वराय (मन्त्रम्) वेदमन्त्रम् (वोचेम२) उच्चारेयम ॥१॥३

    भावार्थः

    ब्रह्मयज्ञं देवयज्ञं वा कुर्वन्तो जना मन्त्रोच्चारणपूर्वकं परमेश्वरस्य गुणकर्मस्वभावान् ध्यायेयुस्ततः शिक्षां च गृह्णीयुः ॥१॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Leading a life of non-violence and self-abnegation, let us chant Vedic verses in praise of God, Who hears us even from afar.

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    Meaning

    Moving close to the vedi of the yajna of love and non-violence, let us chant holy words of thought and devotion in praise of Agni, lord of light and yajna who listens to us from far as well as near. (Rg. 1-74-1)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (अध्वरं उपप्रयन्तः) અમે ઉપાસકો અધ્યાત્મયજ્ઞોને (उपप्रयन्त) પોતાની અંદર અનુષ્ઠાન કરવા માટે (अस्मे आरे च) અમારાથી દૂર અને પાસે પણ (श्रृण्वते) વાત સાંભળનાર (अग्नये) જ્ઞાનપ્રકાશસ્વરૂપ, સર્વજ્ઞ. અન્તર્યામી પરમાત્માને માટે (मन्त्रं वोचेम) મનનીય સ્તુતિ વચન બોલીએ છીએ. (૧)
     

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    बंगाली (1)

    পদার্থ

    উপপ্রযন্তো অধ্বরং মন্ত্রং বোচেমাগ্নয়ে।

    আরে অস্মে চ শৃণ্বতে।।৫০।।

    (সাম ১৩৭৯)

    পদার্থঃ (অধ্বরম্) হিংসা রহিত যজ্ঞের (উপপ্রয়ন্তঃ) সন্নিকটমুখী হয়ে আমরা (আরে) দূরে অবস্থানকারী (চ) এবং (অস্মে) সমীপে অবস্থানকারী (শৃণ্বতে অগ্নয়ে) সকলের শ্রবণকারী জ্ঞানস্বরূপ পরমেশ্বরের জন্য (মন্ত্রং বোচেম) স্তুতিরূপ মন্ত্রের  উচ্চারণ করি। 

     

    ভাবার্থ

    ভাবার্থঃ হে বিভু! আমাদের থেকে দূরবর্তী এবং সমীপবর্তী সকল প্রাণীমাত্রের আহ্বানকে তুমি সদা শ্রবণ করো। এজন্য আমরা যজ্ঞ হোমাদির আরম্ভে তোমার রচিত বেদের পবিত্র স্তুতিরূপ সূক্ত এবং মন্ত্রের বাক্ পাঠ অবশ্যই করি এবং সর্বদা মন দ্বারা তোমারই ধ্যান এবং উপাসনা করি।। ৫০।।

     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    ब्रह्मयज्ञ किंवा देवयज्ञ करत माणसाने मंत्रोच्चारणपूर्वक परमेश्वराच्या गुण-कर्म-स्वभावाचे ध्यान करावे व त्यापासून शिकवण घ्यावी. ॥१॥

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