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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1385
    ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः देवता - अग्निः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
    35

    उ꣡द꣢ग्ने भारत द्यु꣣म꣡दज꣢꣯स्रेण꣣ द꣡वि꣢द्युतत् । शो꣢चा꣣ वि꣡ भा꣣ह्यजर ॥१३८५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ꣢त् । अ꣣ग्ने । भारत । द्युम꣢त् । अ꣡ज꣢꣯स्रेण । अ । ज꣣स्रेण । द꣡वि꣢꣯द्युतत् । शो꣡च꣢꣯ । वि । भा꣣हि । अजर । अ । जर ॥१३८५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उदग्ने भारत द्युमदजस्रेण दविद्युतत् । शोचा वि भाह्यजर ॥१३८५॥


    स्वर रहित पद पाठ

    उत् । अग्ने । भारत । द्युमत् । अजस्रेण । अ । जस्रेण । दविद्युतत् । शोच । वि । भाहि । अजर । अ । जर ॥१३८५॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1385
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 2; मन्त्र » 3
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 12; खण्ड » 2; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    इस प्रकार परमेश्वर से प्रार्थना करके अब फिर जीवात्मा को उद्बोधन देते हैं।

    पदार्थ

    हे (भारत) शरीर का भरण-पोषण करनेवाले, (अजर) अविनाशी (अग्ने) जीवात्मन् ! तुम (द्युमत्) शोभनीय रूप से (अजस्रेण) अविच्छिन्न तेज से (दविद्युतत्) अतिशय चमकते हुए (उत् शोच) उत्साहित होओ, (वि भाहि) विशेष यशस्वी होओ ॥३॥

    भावार्थ

    मनुष्य का आत्मा जागरूक होकर मन, बुद्धि आदि का अधिष्ठातृत्व करता हुआ तेजस्वी, ब्रह्मवर्चस्वी होता हुआ अपनी कीर्ति फैलाये ॥३॥

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    पदार्थ

    (भारत-अजर-अग्ने) हे भरणकर्ता जरारहित—अमर परमात्मन्! तू (अजस्रेण द्युमत्) निरन्तर वर्तमान प्रकाश वाले तेज से (दविद्युतत्) प्रकाशित हुआ (उत्-शोच-विभाहि) उज्ज्वलित हो२ साक्षात् हो और हमें विभासित कर—तेजस्वी बना॥३॥

    विशेष

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    विषय

    शोच, विभाहि [ पवित्रता व ज्योति ] है |

    पदार्थ

    (अग्ने) = हे उन्नत करके मोक्षस्थान को प्राप्त करानेवाले प्रभो ! (भारत) = नित्य अभियुक्तों के योगक्षेम का भरण करनेवाले प्रभो! अथवा संसारमात्र के पोषक प्रभो! (द्युमत्) = ज्योतिर्मय प्रभो! (अजस्त्रेण दविद्युतत्) = निरन्तर प्रकाश फैलानेवाले प्रभो ! (अजर) - कभी भी जीर्ण न होवाले प्रभो! आप हमें भी इस संसार के प्रलोभनों से (उत्) = ऊपर उठाकर, बाहर [out] निकालकर (शोच) = पवित्र बनाइए और (विभाहि) = हमारे जीवनों को ज्योतिर्मय कर दीजिए ।

    हे प्रभो! आपका उपासक बनता हुआ मैं भी अग्नि- आगे बढ़नेवाला बनूँ, भारत - भरण करनेवाला नकि नाश करनेवाला होऊँ, द्युमत् – अपने जीवन को ज्योतिर्मय बनाने का उद्योग करूँ अजस्रेण दविद्युतत्- निरन्तर ज्योति का प्रसार करनेवाला होऊँ । आपकी उपासना मुझे संसार के प्रलोभनों में फँसने से बचाए तथा मेरा जीवन आपकी ज्योति से ज्योतिर्मय हो उठे। 

    भावार्थ

    हे प्रभो मुझे पवित्र कीजिए - मेरे जीवन को ज्योतिर्मय कर दीजिए। ।

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    विषय

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    भावार्थ

    हे (भारत) समस्त संसार के भरण पोषण करने हारे ! हे (अजर) जरामरणरहित ! (अग्ने) प्रकाशस्वरूप परम आत्मन् ! (दविद्युतत्) निरन्तर प्रकाशमान होता हुआ तू (अजस्त्रेण) निरन्तर वर्त्तमान, (द्युमत्) प्रकाशमान तेज से (शोच) स्वयं प्रकाशित हो और (उद्-वि-भाहि) उत्तम रीति से समस्त जगत् को भी प्रकाशित कर।

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१ गोतमो राहूगणः, वसिष्ठस्तृतीयस्याः। २, ७ वीतहव्यो भरद्वाजो वा बार्हस्पत्यः। ३ प्रजापतिः। ४, १३ सोभरिः काण्वः। ५ मेधातिथिमेध्यातिथी काण्वौ। ६ ऋजिष्वोर्ध्वसद्मा च क्रमेण। ८, ११ वसिष्ठः। ९ तिरश्वीः। १० सुतंभर आत्रेयः। १२, १९ नृमेघपुरुमेधौ। १४ शुनःशेप आजीगर्तिः। १५ नोधाः। १६ मेध्यातिथिमेधातिथिर्वा कण्वः। १७ रेणुर्वैश्वामित्रः। १८ कुत्सः। २० आगस्त्यः॥ देवता—१, २, ८, १०, १३, १४ अग्निः। ३, ६, ८, ११, १५, १७, १८ पवमानः सोमः। ४, ५, ९, १२, १६, १९, २० इन्द्रः॥ छन्दः—१, २, ७, १०, १४ गायत्री। ३, ९ अनुष्टुप्। ४, १२, १३, १६ प्रागाथं। ५ बृहती। ६ ककुप् सतोबृहती च क्रमेण। ८, ११, १५, १० त्रिष्टुप्। १७ जगती। १६ अनुष्टुभौ बृहती च क्रमेण। २९ बृहती अनुष्टुभौ क्रमेण॥ स्वरः—१, २, ७, १०, १४ षड्जः। ३, ९, १०, गान्धारः। ४-६, १२, १३, १६, २० मध्यमः। ८, ११, १५, १८ धैवतः। १७ निषादः।

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    एवं परमेश्वरं संप्रार्थ्य पुनर्जीवात्मानमद्बोधयति।

    पदार्थः

    हे (भारत) देहस्य भरणपोषणकर्तः, (अजर) अविनश्वर (अग्ने) जीवात्मन् ! त्वम् (द्युमत्) शोभनीयं यथा स्यात्तथा (अजस्रेण) अविच्छिन्नेन तेजसा (दविद्युतत्) अतिशयेन द्योतमानः सन्। [दाधर्ति०। अ० ७।४।६५ इत्यनेन द्युतेर्यङ्लुगन्तस्य शतरि अभ्यासस्य संप्रसारणाभावः अत्वं विगागमश्च निपात्यते।] (उत् शोच) उत्साहितो भव, (वि भाहि) विशेषेण यशस्वी भव ॥३॥२

    भावार्थः

    मनुष्यस्यात्मा जागरूको भूत्वा मनोबुद्ध्यादीनधितिष्ठन् तेजस्वी ब्रह्मवर्चस्वी सन् स्वकीर्तिं प्रसारयेत् ॥३॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O Sustainer of the universe, O Deathless God, Ever Radiant manifest Thyself with constant lustrous glory, and nicely illumine the whole world!

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    Meaning

    Agni, unaging sustainer of life, shining with the light of excellence and blazing with glory, rise up with flames of fire and shine on with inexhaustible splendour, and help the shining people too to rise in the light of knowledge and excellence of life. (Rg. 6-16-45)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (भारत अजर अग्ने) હે ભરણ-પોષણ કરનાર, જરારહિત-અમર પરમાત્મન્ ! તું (अजस्रेण द्युमत्) નિરંતર વિદ્યમાન પ્રકાશવાન તેજથી (दविद्युतत्) પ્રકાશિત થઈને (उत् शोच विभाहि) ઉજ્વલિત થા-સાક્ષાત્ થા અને અમને તેજયુક્ત કર-તેજસ્વી બનાવ. (૩)
     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    माणसाच्या आत्म्याने जागृत होऊन मन, बुद्धी इत्यादींचे नियमन करत तेजस्वी, ब्रह्मवर्चसी बनून आपली कीर्ती पसरवावी. ॥१॥

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